कुशवाहा कांतःअनुभूतियों में हमेशा जिंदा रहेंगे कालजयी साहित्य के अमर शिल्पी

 




० जलनखोर लेखकों ने कराई थी हत्या, आज तक नहीं छंटी लाखों पाठकों को उदासी

० याद की जाएगी बनारस के महान उपन्यासकार की अनसुलझी मौत की मिस्ट्री

० अनुराग कुशवाहा

आर्किटेक्ट, वाराणसी।

कालजयी साहित्य के अमर शिल्पी और हिंदी के सर्वाधिक प्रसिद्ध लेखकों में से एक थे-कुशवाहा कांत। ये बनारस के ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके बगावती तेवर और लेखनी की रुमानियत को आज भी याद किया जाता है। बनारस के साहित्यिक जगत में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल के बाद अगर किसी रचनाकार ने सर्वाधिक लोकप्रियता अर्जित की तो वो थे कुशवाहा कांत। उनके क्रांतिकारी और जासूसी उपन्यासों में गजब की रुमानियत थी। फकत पच्चीस साल की उम्र में वह हिंदी के उपन्यास जगत में बेस्टसेलर लेखक बन चुके थे। स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी पात्रों पर बुने गए इनके चर्चित उपन्यास 'लाल रेखाको पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में गैर-हिन्दी भाषियों ने हिन्दी सीखी थी। 'लाल रेखाकी लोकप्रियता आज तक अक्षुण्ण है।

कुशवाहा कांत का जन्म मीरजापुर शहर के महुवरिया मुहल्ले में 9 दिसंबर 1918 को हुआ थालेखन और कल्पनाशीलता बचपन से ही इनके व्यक्तित्व में शामिल थी। कुशवाहा कांत जब नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, तभी उन्होंने खून का प्यासानामक जासूसी उपन्यास लिखकर समूचे उत्तर भारत में तहलका मचा दिया था। कुशवाहा ने मीरजापुर से बनारस आकर अपना निजी प्रेस खोला। नाम था-चिनगारी प्रकाशन। कबीरचौरा के इसी प्रेस में उनकी कालजयी कृतियां छपा करती थीं। दरअसल, कुशवाहा कांत के उपन्यासों में रुमानीयत कूट-कूटकर भरी होती थी। उसी रुमानियत को पढ़ने के लिए उस दौर की युवा पीढ़ी दीवाना हुआ करती थी।

साल 1940 से 1950 के बीच उत्तर भारत में कुशवाहा कांत के उपन्यासों ने धूम मचा रखी थी। इनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए युवा पीढ़ी में जो बेसब्री और तड़प दिखती थी, उसी के दम पर वो रुमानी साहित्य के ब्रांड एंबेस्डर बन गए थे। शुरू में कुशवाहा कांत की कृतियां 'कुँवर कान्ता प्रसाद' के नाम से प्रकाशित होती थीं। बाद में उन्होंने अपना नाम कुशवाहा कांत रख लिया। युवा अवस्था में वो रजत पट के किसी अभिनेता के माफिक खूबसूरत थे। इसलिए भी उनके चाहने वालों फेहरिश्त बहुत लंबी थी।  

आजादी के बाद हिंदी साहित्य प्रकाशन का बड़ा केंद्र बनने लगा था बनारस। इसी दौर में कुशवाहा कांत के उपन्यासों की धूम मची थी। कांत फरेबी नहीं, सीधे-सच्चे और नेक दिन इनसान थे। लिखना-पढ़ना उनका जुनून था। लगातार बढ़ती ख्याति के चलते इनके तमाम दोस्त जलनखोर बन गए। तीक्ष्ण बुद्धि के कुशवाहा कांत लोकप्रियता के उच्च शिखर पर चल रहे थे कि अचनाक सब कुछ बिखर गया। हिंदी जगत का ये धूमकेतु महज 33 साल की उम्र में इस दुनिया से रुखसत कर गया। 29 फरवरी 1952 को वाराणसी के कबीरचौरा के पास गुण्डों ने उन पर जानलेवा हमला किया और कुछ दिन अस्पतालों में जीवन और मौत से जंग लड़ने के बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। हिंदी जगत का महान लेखक देश के लाखों पाठकों को उदास कर गया।



कुशवाहा कांत की मौत के बाद भी इनके उपन्यासों की धूम रही। लंबे समय तक इनके उपन्यास बेस्ट सेलर के तौर पर बाजार में बिकते रहे। रेलवे के बुक स्टालों पर आज भी इनके उपन्यास आपको पढ़ने के लिए मिल जाएंगे। दरअसल, इनके उपन्यासों का जादू है ही कुछ ऐसा। ऐसा जादू जो खामोशी से पाठकों के दिल में उतरता है और पहले पन्ने से लेकर आखिर तक पढ़ने का भाव जगा देता है। कुशवाहा कांत की लोकप्रियता का हर कोई दीवाना था। युवा अवस्था में ही वो वाराणसी के लोकप्रिय सख्शियत में शुमार हो गए थे। उन्होंने 'महाकवि मोची' नाम से कई हास्य नाटकों और कविताओं का भी सृजन किया।

बनारस के साहित्यकार जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद और रामचन्द्र शुक्ल के बाद साहित्यिक मशाल को इस चिर युवा साहित्यकार ने जलाया। कुशवाहा कांत की सरल और सशक्त लेखनी ने हिन्दी उपन्यास जगत में हलचल मचा दी थी। इनके उपन्यासों में जहां श्रृंगार रस का अनूठा समन्वय है, वहीं क्रांतिकारी लेखनी और जासूसी कृतियों का कोई जवाब ही नहीं है। वो कई विधाओं में पारंगत थे। फकत तैंतीस साल की उम्र में उन्होंने कहानी, नाटक और व्यंग्य शैली में कई पुस्तकों की रचना की। सामाजिक और तिलस्मी उपन्यास लिखकर साहित्य जगत में अपनी नई पहचान बनाई।



अंग्रेजों की हुकूमत में जनमानस गुलामी के कारण पहले से ही सहमा हुआ था और ऊपर से दिसम्बर की हाड़ कपकपाने वाली शीतलहर का प्रकोप। नौ दिसंबर 1918 को महुवरिया (मीरजापुर) में बाबू केदारनाथ के पुत्र के रूप में इन्होंने जन्म लिया। उस समय बनारसियों के दिल और दिमाग पर देवकी नंदन खत्री के तिलस्मी उपन्यासों का खुमार छाया हुआ था। उस दौर में त्रिलोचन शास्त्री और बेचन शर्मा उग्र चर्चित साहित्यकार हुआ करते थे। इनका सानिध्य इस साहित्यकार को नहीं मिल पाया। कुशवाहा कांत अपने दिल की अनुभूतियों से लिखते-पढ़ते और प्रसिद्धि हासिल करते रहे। समूचे उत्तर भारत में अपने उपन्यासों से तहलका मचालते रहे। वो अपने जमाने के बेस्ट सेलेबल रचनाकार थे। लाल रेखा, विद्रोही सुभाष, लाल किला जैसी कालजयी रचनाएं लिखकर वो अमर हो गए। उन्होंने अपने उपन्यासों में सामाजिक कुरीतियों पर भी जमकर प्रहार किया है। नक्सल संकट को उन्होंने सात दशक पहले ही भांप लिया था। वो हिन्दी भाषी प्रदेशों के अमर साहित्यकार थे।

25 साल की उम्र से उपन्यास और नाटक लेखन की दुनिया में पूर्ण मनोयोग से पदार्पण कर चुके थे कुशवाहा कांत जी। वो किसी पहचान के मोहताज नहीं थे। अपनी लेखनी के दम पर प्रतिनिधि लेखक का दर्जा खुद ही हासिल कर लिया। रुमानियत, जासूसी और राष्ट्रीयता के त्रिकोण के अन्त:क्षेत्र में इनकी लेखनी खूब दौड़ती थी। जो इनको पढ़ता, इनका होकर रह जाता। वो ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके पास सर्वाधिक पाठक हुआ करते थे। पाठकों की बेकरारी और उनकी प्रसिद्धि देखकर दूसरे समकालीन लेखक इनके पीछे पड़ गए थे। तमाम झूठे आरोप गढ़े गए और दुष्प्रचार किया गया कि कुशवाहा कांत अपने उपन्यासों में सेक्सपरोसता है। अफवाहों के चलते बनारस के कई रचनाकारों ने उनके खिलाफ मुहिम चलाकर घृणा पैदा करने की कोशिश की।

महाकवि मोची के नाम से भी कुशवाहा कांत के कई नाटक और कविताएं प्रकाशित हुई थीं। इन्होंने तीन पत्रिकाओं का संपादन भी किया जो चिनगारी, नागिन और बिजली नाम से थीं। बचपन से ही लेखन में रुचि होने के कारण किसी और व्यवसाय में कुशवाहा कांत मन नहीं लगा। तीन पुत्र और दो पुत्रियों के पिता होने के बावजूद भी वह खुद को घर-गृहस्थी से दूर रखते थे। इनके छोटे भाई जयन्त कुशवाहा परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी निभाते थे।

कुशवाहा कांत की मुंबई के फिल्मी सितारों से घनिष्ठता थी। बहुतों ने इनका साथ दिया तो कई साथियों ने धोखा भी। बार-बार चोट खाने और आहत होने के बावजूद वो हरे नहीं। पहले से अधिक मनोयोग से लेखन में जुट जाते थे। करीब आठ सालों में उन्होंने तीस से अधिक उपन्यासों, कई नाटकों, दर्जनों कविताओं की पुस्तकें लिखीं, जो इनके विराट व्यक्तित्व का सूचक है।

कुशवाहा कांत के बारे में एक बात और भी जान लीजिए। वो कुछ सालों के लिए सेना में भी भर्ती हुए थे। देशभक्ति कि रोशनाई वो फौज से ही लेकर आए थे। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद वह समाज को जागृत करते रहे। कुशवाहा कांत विलक्षण प्रतिभा के धनी थे तभी तो उन्होंने लालरेखा, पपिहरा, परदेशी, पराया, पारस, जंजीर, मदभरे नयना, नागिन, विद्रोही सुभाष. उसके साजन, जवानी के दिन, हमारी गलियां, खून का प्यासा (भाग एक), रक्त मंदिर (भाग दो), दानव देश (भाग तीन), गोल निशान, उड़ते-उड़ते, अपराजिता, काला भूत, कैसे कहूं, लाल किले की ओर, निर्मोही, लवंग, नीलम, आहूति, बसेरा, इशाऱा, जलन, कुमकुम, पागल, मंजिल, भंवरा, चूड़ियां, अकेला (जून-४४), अपना-पराया सरीखे कालजयी उपन्यासों की रचना की। इनकी कृतियों को आज भी जो पढ़ लेता है, वो उसमें खो जाता है।

कुशवाहा कांत का अंतिम उपन्यास है जंजीर। इनके निधन के बाद भाई जयंत कुशवाहा ने उसे पूरा किया था। नीलम उपन्यास का दूसरा भाग सरोज नाम से इनकी पत्नी गीतारानी कुशवाहा ने लिखा है। कुशवाहा कांत के भाई जयंत के मुताबिक उनकी पापुलर्टी भुनाने के लिए उनके नाम से कई नकली उपन्यास भी छापे गए। ये उपन्यास थे आहट, काजल, कलंक, कटे पंख और उपासना। मगर छद्म लेखक वो जादू नहीं दिखा सके जो सिर्फ कुशवाहा कांत दिखाया करते थे।


बनारस को याद है कि 29 फरवरी 1952 को रुमानियत के इस सर्जनकर्ता के जीवन में रुमानियत काली निशा बनकर आई। वही रुमानियत जो शायद बिहार की उस नारायणी से मिला था, जिस पर वो जान छिड़का करते थे। जब समूची काशी होली में मदमस्त थी, तभी किसी ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। होलिका दहन की रात में साहित्य का यह महाध्रुवतारा सदा के लिए सो गया। एक रिक्शे पर मिली थी उनकी लाश। लाख प्रयास के बावजूद शहर के तमाम नामी डाक्टर भी उनकी सांसों की डोर नहीं थाम पाए। उनके ऊपर छुरे से वार किया गया था। असह्य पीड़ा के बीच उनके प्राण पखेरू हो गए। हैरत की बात यह है कि पुलिस ने भी इस कालजयी रचनाकार की मौत से पर्दा उठाने की जरूरत नहीं समझी।

कुशवाहा कांत की मौत के बाद उनके घोर आलोचक ही नहीं, निंदक भी शर्मसार होकर पश्चाताप करने लगे। उस समय पांडेय बेचन शर्मा उग्रके हृदय में भी कुशवाहा कांत के प्रति वात्सल्य उमड़ आया। वही उग्र जो कुशवाहा कांत के धुर विरोधी हुआ करते थे। बनारसियों को याद है कि कुशवाहा कांत के कई साथी उनसे दूर हटकर उनके कट्टर विरोधियों के खेमें में शामिल हो चुके थे। कलम के दम पर कोई भी उनका मुकाबला नहीं कर पा रहा था। कोई लांछन लगा रहा था तो कोई साजिश रच रहा था। अंततः साजिश के तहत उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इस उपन्यासकार की मौत क्यों हुई? इसकी मिस्ट्री आज तक हल नहीं हुई।



लालरेखा के प्रेम को राष्ट्र के नाम कुर्बान करने वाले कुशवाहा समाज के इस सितारे को बनारस आज तक नहीं भूल पाया है। इस लेखक को नए पथ के प्रणेता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। साथ ही याद की जाएगी उनकी अनसुलझी मौत की मिस्ट्री। कुशवाहा-मौर्य समाज समय-समय पर उपन्यास सम्राट के कत्ल की मिस्ट्री सुलझाने के लिए आवाज उठाता रहा है, लेकिन वो अनुगूज सत्ता के गलियारों में पहुंचती ही नहीं है।

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