धान के कटोरे में भी सत्ता की सांस उखाड़ने लगे हैं किसान

विरोध पर किसानों का तर्क

0 आंदोलन से खेती तो एक सीजन की नष्ट होगी, नया कृषि कानून तो उनका समूचा भविष्य ही बर्बाद कर देगा

0 किसानों का उत्पाद होता है शुद्ध, मल्टीनेशनल कंपनियां करती हैं मिलावट, शहद की तरह खराब हो जाएगा जायका



आरिफ हाशमी

चंदौली। धान के कटोरे में कृषि विधेयक के खिलाफ नारे लगाते किसान अब सत्ता की सांस उखड़ने लगे हैं। इन्हें लगता है कि आंदोलन से खेती तो एक सीजन की नष्ट होगी, नया कृषि कानून तो उनका समूचा भविष्य ही बर्बाद कर देगा। चंदौली के किसान तर्क दे रहे हैं कि लोग जब उनका उत्पाद खरीदेंगे, तभी सब कुछ शुद्ध मिलेगा, अन्यथा मल्टीनेशनल कंपनियों की शहद की तरह मुंह का जायका और सेहत दोनों बिगड़ जाएगी। सरकार अगर निजी व्यापारियों और कॉरपोरेट कंपनियों की ख़रीदारी पर एनएसपी अनिवार्य करेगी, तभी किसानों के शोषण की संभावनाएं कानूनी तौर पर खत्म हो सकेंगी।


चंदौली के किसान अभी धान की कटाई-मड़ाई और गेहूं समेत रबी की फसलों की बुआई में व्यस्त हैं। आमतौर पर इस वक़्त किसान खेतों में डटे रहते हैं, लेकिन इस समय उनके खेतों में सन्नाटा है। काम के लिए न मजदूर मिल रहे हैं और न हार्वेस्टर। जिन किसानों ने धान की मंड़ाई करा ली है, वो भी अपनी फसल वाजिब दाम पर नहीं बेच पा रहे हैं। समर्थन मूल्य के तहत क्रय केंद्रों पर उन्हीं किसानों का धान बिक पा रहा है, जिनका जुगाड़ अथवा सियासी तौर पर प्रभावशाली हैं।

भारत बंद को समाजवादी पार्टी और कांग्रेस समेत सभी सियासी दलों के कार्यकर्ता आंदोलित थे। चंदौली जिला मुख्यालय पर आंदोलन में शरीक होने कुछ महिलाएं भी पहुंचीं थीं। ये महिलाएं भारतीय किसान यूनियन (भाकियू-भानु गुट) से जुड़ी हैं। महिला मोर्चा की अध्यक्ष प्रमिला शुक्ला से सवाल किया गया तो बोलीं, नए क़ानून से हमें बहुत नुकसान होगा। जो कानून बनाया गया है सरकार ने उसे पक्का नहीं बनाया है। एमएसपी पक्की कर दी जाए तब सही रहेगा। सरकार तो आती-जाती रहेगी, लेकिन कानून हमारे हक में रहेगा, तभी बात बनेगी। आखिर सरकार हीलाहवाली क्यों कर रही है? इसका मतलब उसकी नीयत में कोई खोट है। खेती को भारी नुकसान हो रहा है। फिर भी किसान भाई आंदोलन में डटे हैं। अभी तो एक सीजन की फसल बर्बाद होगी, कानून को किसानों का भविष्य ही चौपट कर देगा। 

भाकियू महिला मोर्चा की महासचिव शशि पांडेय ने कहा कि कई दौर की वार्ता के बाद भी कोई हल न निकलने के कारण किसानों को भारत बंद करना पड़ा है। लगता है कि आंदोलन लंबा खिंचेगा। यह ज़रूर है कि किसानों के आंदोलन में जाने के कारण खेती को नुक़सान हो रहा है। चंदौली के ज़्यादातर किसान अपनी खेती ख़ुद ही करते हैं। बड़े किसानों के यहां मज़दूर भी काम करते हैं, लेकिन छोटे किसानों के यहां घर के ही सभी सदस्य मिलकर खेती करते हैं। किसानों के आंदोलन में शामिल होने के चलते उनके घर की महिलाओं ने खेती और फ़सलों की देख-रेख का ज़िम्मा संभाल रखा है। धान से खाली खेत सूख रहे हैं, लेकिन अभी उनमें गेहूं नहीं बोया जा सका है। पराली जलाने पर सरकारी प्रतिबंध ने चंदौली के किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी है।

चकिया इलाके के बैरी गांव की चंचला देवी, भरदुआ की विभावरी और रेशमा भी सरकार के रवैये को लेकर गुस्से में हैं। बोलीं, " चंदौली के किसान बड़े ज़िद्दी होते हैं, लेकिन हमें तो यही लग रहा है इस सरकार से अधिक ज़िद्दी कोई नहीं है। कोई बात ही सुनने के लिए तैयार नहीं है।

शहाबगंज की गीता राय अपने खेत में काम रही थीं। पास में कई लोग बैठे थे। सभी किसान आंदोलन के बारे में ही बातें कर रहे थे। हमें पत्रकार जानकर अजय राय मुस्कराए और ख़ुद ही सवाल कर बैठे- "सरकार हमारी बात मानेगी कि नहीं?" इनके सवाल का जवाब वहां मौजूद युवा किसान संजय देते हैं और कहते हैं कि सरकार किसानों की बात नहीं मानेगी तो जाएगी कहां? दिल्ली में देश भर किसान डटा है। रेल बंद है और गाड़ियां भी अन्यथा बहुत अधिक किसान वहां जुट जाते। देर-सबेर सरकार को बात समझ में आ जाएगी कि वो किसानों का बड़ा नुक़सान करने जा रही है। उन किसानों का जिन्होंने उनकी सरकार बनवाई है।"

नए क़ानून में किसानों की आशंकाओं पर अजय राज कुछ इस तरह बताते हैं, "आज किसान अनपढ़ नहीं है। सब समझ रहा है। किसानों को इस बात का डर है कि उसे सौ साल पहले की स्थिति में पहुंचा दिया जाएगा। सारी जमीन अंबानी-अडानी जैसे लोगों की हो जाएगी। वो अपने हिसाब से किसानों को फसल का रेट बताएंगे। कभी अनाज को खराब बताएंगे तो कभी न बिक पाने की मजबूरी का राग अलापा जाएगा। किसान को सबसे ज़्यादा डर इसी बात का है। मामला नफे-नुकसान से जुड़ा है, तो अब भाजपा समर्थक किसान भी विरोध में खुलकर आ गए हैं।"


कृषि क़ानून: क्या हैं प्रावधान, क्यों हो रहा है विरोध

चंदौली। धान के कटोरे में जिले के किसान भी नए कृषि कानूनों से उद्वेलित हैं। वो उन किसानों को खुलकर समर्थन देने लगे हैं जो दिल्ली की यूपी-हरियाणा से लगती सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। दरअसल, इस क़ानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जिसमें किसानों और व्यापारियों को राज्य की एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी। इसमें किसानों की फ़सल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है। बिल में मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर ख़र्च कम करने की बात कही गई है ताकि किसानों को अच्छा दाम मिल सके। इसमें इलेक्ट्रोनिक व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है।

आंदोलित किसानों को लगता है कि राज्यों को राजस्व का नुकसान होगा, क्योंकि अगर किसान एपीएमसी मंडियों के बाहर फ़सल बेचेंगे तो वे 'मंडी फ़ीस' नहीं वसूल पाएंगे। कृषि व्यापार अगर मंडियों के बाहर चला गया तो 'कमीशन एजेंटों' का क्या होगा? इसके बाद धीरे-धीरे एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) के ज़रिए फ़सल ख़रीद बंद कर दी जाएगी। मंडियों में व्यापार बंद होने के बाद मंडी ढांचे के तरह बनी ई-नेम जैसी इलेक्ट्रोनिक व्यापार प्रणाली का आख़िर क्या होगा?

नए कृषि कानून में कृषि करार (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) का उल्लेख है। इसमें कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिग के लिए एक राष्ट्रीय फ्रेमवर्क बनाने का प्रावधान किया गया है। इस क़ानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फ़सल बेच सकते हैं। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। इसके तहत किसान मध्यस्थ को दरकिनार कर पूरे दाम के लिए सीधे बाज़ार में जा सकता है। किसी विवाद की सूरत में एक तय समय में एक तंत्र को स्थापित करने की भी बात कही गई है।

बड़ी कंपनियों को किसी फ़सल को अधिक भंडार करने की क्षमता होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि फिर वे कंपनियां किसानों को दाम तय करने पर मजबूर करेंगी। चंदौली में भाकियू के जिलाध्यक्ष विकास कुमार पांडेय कहते हैं कि किसानों को अगर बाज़ार में अच्छा दाम मिल रहा होता तो वो बाहर क्यों जाते? एफ़सीआई अब राज्य की मंडियों से ख़रीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को क़रीब 2.5 फीसदी कमीशन का घाटा होगा। राज्य सरकारें भी अपना छह प्रतिशत कमीशन खो देंगी। 86 प्रतिशत छोटे किसान एक से दूसरे जिले में नहीं जा पाते। यह कानून बाजार के लिए बनाया गया है, किसानों के हित में नहीं। इससे कालाबाजारी और जमाखोरी को बढ़ावा मिल सकता है।

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