वंदना वाजपेयी की चर्चित कहनी-बेवकूफ

 

कहानी-बेवकूफ



वंदना बाजपेयी

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लखपत राय चाचा जी के घर हमारा पुराना आना-जाना रहा है। वो मेरे पिता के मित्र थे। बचपन से उनको देखा है, बहुत उसूल वाले आदमी थे। पिताजी अक्सर उनकी प्रशंसा किया करते थे, जो कहते हैं वो निभाते हैं। उम्र के दौर में जब हमारी समझ थोड़ी–थोड़ी बढ़ रही थी, हमें भी विश्वास होने लगता था। लखपत राय चाचा कुछ तो अलग हैं, सामान्य कद–काठी और नौकरी होते हुए भी उसूलों का पालन उन्हें आम आदमी से अलग खड़ा कर ही देता।  लखपत राय चाचा को उस लोक गए तो बरसों हो गए, पर  घर–आते जाते उनकी बहू सुलेखा जो एक स्कूल की प्रधानाचार्या हैं। मेरी सहेली बन गयी। इसलिए ये रिश्ता चलता रहा। उसमें पहले जैसे गर्मजोशी तो नहीं थी पर इनती आंच बाकी रही कि गुज़रते समय और बढती उम्र के बाद भी हमारा मिलना जुलना होता रहा। फिर प्रेम से बुलाने पर उनके घर न जाने का तो सवाल ही पैदा होता।

विवाह  के दिन मैं भी कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंची।  मंगलगीत,  द्वारचार , मेहमानों की आवभगत से पूरा माहौल खुशनुमा था। मैंने जैसे ही प्रवेश किया एक कप गर्म कॉफ़ी के साथ उन्होंने मेरा स्वागत किया। ठण्ड काफी थी, बाहर से आने के कारण मेरे हाथ अकड़े जा रहे था। लिहाज़ा कॉफ़ी का गर्म कप मुझे बहुत सुकून भरा प्रतीत हुआ। मैं कप ले कर महिलाओं के बीच बैठ गयी। वो आपस में बाते कर रही थी और मैं  कॉफ़ी में मगन थी। तभी एक वाक्य ने मेरा ध्यान खींचा। मैं कान लगा कर सुनने लगी।

महिलाएं आपस में बात कर रही थीं , “ ५० लाख दहेज़ लिया है, लड़की भी मन की मिली है, भाई भाग्य हो तो इनके जैसे ”।

दूसरी ने बात काटी , “ लड़का भी तो इंजीनीयर है ये तो आजकर रेट चल रहा है। अरे पढाया-लिखाया है लड़के को, लड़की वाल्रे कोई अहसान नहीं कर रहे हैं।”

लड़की भी तो इंजिनीयर है , फिर दहेज़ काहे का”, एक आवाज़ उभरी। अरे ये तो परम्परा चली आ रही है , वैसे कुछ परम्पारायें टूट भी रहीं हैं, पर ये नहीं टूटेगी। कौन रोंकना चाहेगा घर आती लक्ष्मी को, “ इस वाक्य के बाद महिलाओं  का सम्मिलित ठहाका गूंजने लगा।”

ठहाकों की ये आवाज़ मुझसे सहन नहीं हुई। मैं कॉफ़ी का कप लेकर दूसरे कमरे में  चली गयी। वहाँ  दीवार पर लखपतराय चाचा जी की बड़ी सी तस्वीर लगी थी। तस्वीर देखकर मेरी आँखे डबडबा गयीं और मैं उस समय में पहुँच गयी जब  सुलेखा इस घर में बहु बन कर आई थी। सुलेखा की शादी लखपतराय जी के एकलौते बेटे श्याम से हुई थी। सुलेखा गरीब परिवार से थी। उनके पिता दहेज़ देने की स्थिति  में नहीं थे। श्याम, जो मुझसे कुछ महीने छोटा है नया–नया इंजीनियर बना था। उसके बहुत सारे रिश्ते आ रहे थे। लोग ढेर सारा दहेज़ देने को भी तैयार थे , पर चाचा जी ने गुणों के आधार पर सुलेखा को चुना। सुलेखा के पिता चाचा जी के पैर पड़  कर बोले, “मैं केवल बेटी दे सकता हूँ”। चाचा जी ने उन्हें गले से लगा लिया और कहा, “ हमें सिर्फ बेटी ही चाहिए, मैं दहेज़ प्रथा का विरोधी हूँ , परंपरा के नाम पर दिया जाने वाला दहेज़ मुझे स्वीकार नहीं, इन सदी –गली परम्पराओं को तोडना ही चाहिए जिसमें किसी बहु की औकात पिता द्वारा दिए गए दहेज़ से तय हो, अब एक नयी परम्परा बनेगी जब बेटा बहु एक सामान माने जायेंगे।”

चाचा जी ने ऐसा ही किया। सुलेखा सिर्फ अपना सूटकेस में मात्र कुछ कपड़े  ले कर घर आई। सासुराल उसका दूसरा मायका बन गया। उसे वही अधिकार  प्राप्त थे जो घर में बेटियों को होते हैं। उस ज़माने में जब हम ससुराल में माथा दिखने तक का नहीं सोच सकते थे,  सुलेखा सर पर पल्लू भी नहीं लेती। सुलेखा आगे पढना नहीं चाहती थी पर चाचा जी ने उसकी शिक्षा  पूरी कराई , उनका मानना था कि शिक्षा के माध्यम से ही आवाज़ में वो ताकत आती है कि गलत का विरोध किया जा सके।  उन्होंने ही सुलेखा की नौकरी भी लगवाई।

सुलेखा आराम से नौकरी कर सके इसके लिए उन्होंने बहुत त्याग किये। उन्होंने घर में बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी खुद ले ली। तब तक उन्हें दिल की बीमारी लग चुकी थी। बच्चों के बीच भागते दौड़ते बहुत थक जाते पर माजाल है कि उफ़ करते। कई बार  लोग उन्हें समझाते पर वो हँस कर इतना ही कहते , हमें अपनी बहु बेटियों को बाहर आराम से काम करने देने के लिए घर का वातावरण बेहतर बनाना होगा। परिवार समाज की  छोटी इकाई है और सामाज यहीं से बदलेगा। एक दिन पता चला कि हृदयघात के कारण चाचाजी का निधन हो गया। मैं भी बच्चों को ले कर रोती कलपती पहुंची। चाचाजी के चेहरे पर बहुत शांति थी। उन्होंने समाज को बदलने का अपने हिस्से का योगदान दे दिया था , अब ये बीड़ा अगली पीढ़ी को उठाना था। पर शायद अभी एक काम बाकी था।  श्याम  बताया था कि  चाचाजी कह गए हैं कि उनकी तेरहवीं पर खर्च होने वाला धन अनाथालय को दे दिया जाए।” मेरे झरते आंसुओं के बीच मेरी नज़रों में चाचा का कद और ऊँचा हो गया।

धीरे–धीरे मेरा मायके जाना कम होता गया और सुलेखा से मिलना भी। आज इतने दिनों बाद मिलने का मौका भी मिला तो  ये जान कर मन दुखी हो उठा कि वो चाचाजी के आदर्शों से विमुख हो रही है। मैं अपनी सोच में मगन थी, तभी सुलेखा उस कमरे में आई, मुझे देखकर बोली, “ देखो ये शेरवानी भेजी है मेरे बेटे के लिए, इतने धनवान हैं पर देने का दिल नहीं है, चाहते हैं सेंत में दामाद मिल जाए।“ अब मैं अपने को रोक न सकी, मैंने सुलेखा का हाथ पकड कहना शुरू किया, “ सुलेखा ये तुम कह रही  हो, तुम! , तुम्हें पता है न चाचाजी तुम्हें बिना दहेज़ के लाये थे, उनका विश्वास था कि अपने स्तर पर उन सड़ी-गली परम्पराओं को तोडा जाए, जो स्त्री को कमतर आंकते हैं। कितना कुछ नहीं किया है उन्होंने तुम्हारे लिएऔर तुम उन्हीं के घर मे , उन्हीं की तस्वीर के नीचे , उन्हीं के उसूलों को तोड़ रही हो। “

सुलेखा ने मेरा हाथ झटकते हुए कहा , “सुनो , पिताजी बेवकूफ थे पर मैं नहीं हूँ।”

सुलेखा चली गयी पर मैं वहाँ  रुक न सकी अपनी  भीगती आँखों को पोछते  हुए बाहर सड़क पर टहलने लगी , अन्दर की घुटन मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। अपने परिवार की इकाई में ही सही पर  कितना कुछ किया था चाचाजी ने स्त्रियों के लिए, उन्हें आशा थी समाज के बदलने की, स्त्री पुरुष समानता की, पर आज उनकी ही बहु उन्हें बेवकूफ बता रही है। जिस स्त्री  को मौका मिला समानता का वो भी अपना समय आने पर स्त्री के पक्ष में खड़ी होने के स्थान पर उस कुरीति को अपना रही है।

 

बैंड बाजे की आवाज़ आने लगी। शायद बारात निकलने वाली थी। मैं एक सेकंड के लिए ठिठकी, फिर पीछे लौटने के स्थान पर आगे बढ़ने लगी। मैंने मन ही मन कहा, “ चाचाजी आप बेवकूफ नहीं थे, आपने एक ईमानदार  कोशिश की थी समाज को बदलने की, बेवकूफ आपके वंशज  निकले जिन्होंने स्वार्थ में आकर समाज परिवर्तन की धरा को पुनः पीछे मोड़ने का प्रयास किया।”

मैं गली के छोर तक आ गयी थी। मैंने एक बार फिर पीछे मुड़  कर देखा, और तेजी से पीछे की ओर चलने लगी। सुलेखा ने मुझे देख कर मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “अरे! आप कहाँ चली गयीं थी, चलिए, बरात प्रस्थान करने वाली है। इस बार मैंने उसका हाथ झटकते हुए कहा,  “ सुलेखा डीयर , में इतनी भी बेवकूफ नहीं हूँ , जो यहाँ उपस्थित  रह कर एक गलत परंपरा को मौन समर्थन दूँ। मैं जा रही हूँ। मेरा विरोध छोटा ही सही, पर प्रखर है।” सुलेखा के चेहरे पर हज़ारों चढ़ते –उतरते भावों को वैसे ही छोड़ कर मैं तेजी से आगे बढ़ने लगी। मुझे महसूस हुआ की कुछ और कदम मेरे पीछे चल रहे हैं। कम से कम वो इतने बेवकूफ नहीं थे जो गलत बात को मौन समर्थन देते।

 

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