दंडहीनता की कमी भारत में कानून के राज के लिए खतरा-लेनिन रघुवंशी

संविधान दिवस पर यातना और हिंसा पीड़ितों का हुआ सम्मान



जनसंदेश न्यूज़

वाराणसी। संविधान दिवस के अवसर पर मानवाधिकार जननिगरानी समिति, सावित्री बाई फुले महिला पंचायत, जनमित्र न्यास, यूनाइटेड नेशन वोलंटरी ट्रस्ट फण्ड, जिनेवा और इंटरनेशनल रिहैबिलिटेशन कौंसिल फॉर टार्चर विक्टिम, डेनमार्क के संयुक्त तत्वाधान में यातना और हिंसा पीडितो का सम्मान समारोह “न्याय, स्वतंत्रता, समता” का आयोजन किया गया। 

कार्यक्रम की शुरुआत में मानवाधिकार जननिगरानी समिति के संयोजक डॉ लेनिन रघुवंशी ने बताया कि कल अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस के अवसर पर यातना और हिंसा पीड़ित महिलाओ का सम्मान समारोह “नो- यूनाइट टू एंड वायलेंस अगेंस्ट वीमेन का आयोजन किया गया था और यह लगातार मानवाधिकार दिवस 10 दिसम्बर तक चलता रहेगा। 

उन्होंने भारत के संविधान का परिचय के बारे में बताया आज के ही दिन औपचारिक रूप से भारत के संविधान को अपनाया था, जिसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। डॉ बी० आर० आंबेडकर की अध्यक्षता में भारतीय संविधान बनाने में 2 वर्ष, 11 महीना और 18 दिन का समय लगा। 



उन्होंने आगे बताया कि भारत का संविधान मौलिक राजनीतिक सिद्धांतों को परिभाषित करने वाली रूपरेखा तैयार करता है, सरकारी संस्थानों की संरचना, प्रक्रियाओं, शक्तियों और कर्तव्यों को स्थापित करता है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों, निदेशात्मक सिद्धांतों और कर्तव्यों को निर्धारित करता है, फिर भी सबके लिए न्याय आज भी दूर की चीज है। राजनैतिक रसूख वाले धनबली और बाहुबली प्रायः सर्वहारा, गरीब और अशिक्षित को न्याय से वंचित कर देते है। दंडहीनता की संस्कृति भारत के कानून के राज के लिए खतरा है।

इसके पश्चात यातना और हिंसा से पीड़ित को मनो-सामाजिक संबल के लिए टेस्टीमोनियल थेरेपी के तीसरे चरण के अंतर्गत उनकी संघर्ष गाथा को मनो-सामजिक कार्यकर्ता छाया कुमारी और फरहत शबा खानम द्वारा पढ़ा गया। उनके संघर्षो की हौसला अफजाई करने के लिये उन्हें शाल और टेस्टीमनी देकर संघर्षरत पीड़ित सादिक, अकील, रामपती, मुख्तार, आसिफ, अशोक, अजीत, अनिल, दिलबहार और नेसर को सम्मानित किया गया। 

सावित्री बाई फुले महिला महिला पंचायत की संयोजिका श्रुति नागवंशी ने कहा कि भारतीय संविधान की प्रसंगिगता इसलिए अधिक है क्योंकि यह महिलाओ को समानता का आधिकार प्रदान करता है, अभी भी महिलाओ के विरुद्ध हिंसा देश की कानूनी और सामाजिक सेवाओ पर अनावश्यक भर पड़ता है और साथ ही साथ उत्पादकता की भारी क्षति होती है। यह एक ऐसी महामारी है जो जान लेती है, प्रताड़ित करती है और विकलांग बनाती है-शारीरिक, मानसिक, लैंगिक और आर्थिक रूपों में। यह मानवाधिकार का सर्वाधिक उलंघन करने वाली सामाजिक बुराई है। यह स्त्री की समानता, सुरक्षा, गरिमा, आत्मसम्मान और मौलिक अधिकारों को खारिज करती है। कार्यक्रम के अंत में मानवाधिकार जननिगरानी समिति की शिरीन शबाना ने संविधान का प्रस्तावना पढ़ा।





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