वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की चर्चित पुस्तक ‘बनारस लॉकडाउन’ का विमोचन



विजय सिंह

वाराणसी। सिगरा छित्तुपुर स्थित पुस्तक मेले में सोमवार को के वरिष्ठ पत्रकार की चर्चित पुस्तक ‘बनारस लॉकडाउन’ का विमोचन किया गया। इस मौके पर मुख्यअतिथि वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो.निर्मला मौर्या और प्रो.सदानंद शाही सहित मंचासीन गण ने पुस्तक को ‘मील का पत्थर’ बताया और कहा कि विजय विनीत की यह पुस्तक कोरोना के दंश से प्रभावित हुई बनारसी मस्ती और उल्लास को इंगित करते हुए बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रभावित हुए प्रवासियों व आम जनमानस समस्याओं को लोगों के सामने रखा है।

इस दौरान लेखक विजय विनीत के साथ राजेंद्र कुमार दुबे, सरदार कुलदीप सिंह, प्रियदीप कौर, पिंटू कुंडु, डा.मनीष, डा.मनोहरलाल, डा.राममोहन अस्थाना, सत्यप्रकाश, अमरनाथ कुशवाहा, विजय कुमार मौर्य, पुष्पा मौर्य, कुमार विजय, आदि गणमान्य उपस्थित रहे।



कोरोना दंश से मौत के मुंह में जाकर वापस लौटने वाले पत्रकार की मर्मस्पर्शी कहानी है ‘बनारस लॉकडाउन’

रामजी प्रसाद भैरव

(साहित्यकार एवं लेखक, चंदौली)

जब कभी निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की बात उठेगी तो बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत जेहन में स्वतः कौंध जाएंगे। यह इत्तिफाक नहीं है कि विजय विनीत ने कोई किताब लिखी है, बल्कि उन्होंने 75 दिनों की इस जिंदगी को बड़ी संजीदगी से जिया है, जो अब किताब की शक्ल में आप के सामने है।

मेरी बात पर शायद आप को आश्चर्य हो की यह 75 दिनों की जिंदगी क्या है? इसे समझने के लिए आप को उनके द्वारा लिखी गयी किताब ”बनारस लॉकडाउन” पढ़ना होगा। जब कोरोना के भय से बनारस की पारम्परिक संस्कृति, ध्वंस के मुहाने पर खड़ी कातर भाव से उन सबकी ओर देख रही थी, जो जिंदगी के रक्षक व रहनुमा थे, तो कौन आगे आकर उन्हें ढांढस बधाया?

किसने भय से आक्रांत बनारस के नब्ज को छूने की कोशिश की? खौफ के सन्नाटे में थमी हुई जिंदगी और धीमी हो चुकी हृदय के स्पंदन को किसने सुनने साहस किया? अपने अड़ी और गलचउर के लिए मशहूर बनारस ने कैसे चुप्पी ओढ़ ली? उस छटपटाहट को महसूस करने वाला कौन था? बनारस के घंटा-घड़ियाल और हर-हर महादेव के नारों की अटक चुकी गले में आवाज को किसने सबसे पहले अकनने की कोशिश की? इन सब प्रश्नों का बस एक उत्तर है विजय विनीत? वही विजय विनीत जो सच और ईमानदार पत्रकारिता के लिए उत्तर भारत में जाने जाते हैं।

विजय विनीत ने कोविड 19 यानी कोरोना वायरस के आतंक में जी रहे बनारस की 75 दिनों तक सूक्ष्म पड़ताल की। जांचा-परखा! जो पाया उसकी रिपोर्टिंग निष्पक्षता के साथ की। कोई कल्पना की उड़ान नहीं। बस जो सच था उसे लिख दिया। कोरोना के भयाक्रांत परिवेश में बनारस ने जो देखा, उसे विजय विनीत ने पल-पल जिया है। यह सब इत्तेफाक नहीं हो सकता। यह साहस नहीं दुःसाहस का काम था। जब लोग अपने घरों की खिड़कियां और दरवाजे बंद कर, दमघोटू कोरोना के भय में जी रहे थे, तो विजय विनीत रिपोर्टिंग करते हुए, सन्नाटे की छाती पर कदमताल करते नजर आ रहे थे। उन्हें अपनी जिंदगी का मोह नहीं था, ऐसा नहीं है, बल्कि बनारस के उन लाखों लोगों की जिंदगी से मोह था। जो इस लॉकडाउन में घुट-घुट कर जी रहे थे। उनकी आमदनी मरती जा रही थी। मानसिक संत्रास जीवन में असंतुलन पैदा कर रहा था। लोग सोच रहे थे, कहाँ पीछे छूट गया? सदियों पहले का हँसता खिलखिलाता हमारा बनारस?

बस इसी बात की पड़ताल करने के लिए उन्होंने चप्पे चप्पे की खाक छानी, जो देखा वह भयावह सच था, सब सोच रहे थे। सांसारिक लोगों को मोक्ष देने वाले बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की यह दशा कैसे हो गयी? खैर आप कल्पना कर सकते हैं, बनारस को कोरोना ने किस तरह बदरंग किया? बनारस की सीमाएं सील थी। चिरई का पूत नदारत था। ऐसे में लेखन का जुनून लिए विजय विनीत सन्नाटे को भेदते हुए ऐसे आगे बढ़ रहे थे, जैसे जल में कोई मछली सरलता से आगे बढ़ जाती है। बनारस में लाखों लोग ऐसे हैं जो रोज कमाते-खाते हैं! लॉकडाउन के दिनों में उनका चूल्हा कैसे जला होगा? क्षुधा की आग आखिर किस वरदान से मिटती होगी? यह जानने की कवायद विजय विनीत ने की है। उनके द्वारा लिखी पुस्तक ”बनारस लॉकडाउन” विपत्तियों की महागाथा बनकर उभरी है। इस लिए कह सकता हूँ, ”बनारस लॉकडाउन” महज एक किताब नहीं है, बल्कि बनारस का दस्तावेज है। सच्ची कहानियों का दस्तावेज, जिसे कई पीढ़ियाँ संजोकर रखेगी। किताब के आंतरिक रिपोर्टों पर हम आगे भी चर्चा करते रहेंगे।


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