भक्तों ने श्रद्धापूर्वक मनाया अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी का 29वाँ परिनिर्वाण दिवस



जनसंदेश न्यूज़

वाराणसी। बाबा कीनाराम आश्रम, क्रीं कुण्ड शिवाला में रविवार को परम् पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी का परिनिर्वाण दिवस पूरी श्रद्धा एवं भक्ति भाव के साथ सामाजिक दूरी का पालन करते हुए मनाया गया। अघोरपीठ अघोराचार्य बाबा कीनाराम अघोर शोध एवं सेवा संस्थान के पीठाधीश्वर, सर्वेश्वरी समूह एवं अघोर सेवा मंडल के अध्यक्ष परम् पूज्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी के सानिध्य में आयोजित इस कार्यक्रम में भक्तों ने दो गज की दूरी रखते हुए कतारबद्ध तरीके से समाधियों का दर्शन पूजन कर आशीर्वाद लिया।

इस अवसर पर परम् पूज्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी ने अवधूत भगवान राम की स्मृतियों को साझा करते हुए बताया कि ’रमता है सो कौन घट-घट में विराजत है, रमता है सो कौन बता दे कोई।’ अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अघोरेश्वर भगवान राम ने कहा था कि मैं अघोरेश्वर स्वरूप ही स्वतंत्र, सर्वत्र, सर्वकाल में स्वच्छंद रमण करता हूं। मैं अघोरेश्वर ही सूर्य की किरणों, चंद्रमा की रश्मियों, वायु के कणों और जल की हर बूंदों में व्याप्त हूं। ..साकार भी हूं, निराकार भी हूं। आप जिस रूप में मुझे अपनी श्रद्धा सहेली को साथ लेकर ढूंढेंगे मैं उसी रूप में आपको मिलूंगा।

बताया कि अघोरेश्वर भगवान राम जी ने जात पात के विषय पर स्पष्टतः समझाया करते थे कि मैं व्यक्तिगत तौर पर कर्म में विश्वास करता हूं। मैं जाति प्रथा और वर्ण व्यवस्था को मान्यता नहीं देता। मानव समाज में व्याप्त जातिगत, धर्मगत, वर्ण, रंग, देश, प्रदेश, राष्ट्र इत्यादि के आधार पर मानव मानव के बीच भेद का मैं विरोधी हूं।

यह पृथ्वी किसी वर्ग या जाति-विशेष की नहीं है। यह किसी व्यक्ति या धर्म विशेष की नहीं है। यह पृथ्वी शासक की नहीं है। यह मनुष्य जाति के लिए है। इस पर हर प्राणियों के। जीवित रहने का अधिकार है। हमारे देश में जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक शोषण हुए हैं, उनमें से अधिकांश का मूल कारण जाति प्रथा ही है। जाति-भेद और वर्ण विभेद से असामाजिक - तत्वों को प्रोत्साहन मिलता रहा है। जात - पात के कारण ही भारत देश में परेशानी,उलझन और दुख है। इस बोझ से, हिन्दू समाज के बहुत से लोग अपना शारीरिक और मानसिक विकास नहीं कर पाते। 

बताया कि एक ही प्राण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र सभी में समान - रुप से प्रतिष्ठित है। यह प्रत्यक्ष सत्य है। इस सत्य का अनादर कर, हम बालू में सिर गाड़ कर मरुभूमि में आए तूफान से त्राण पाने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं। यदि अन्य राष्ट्रों की तरह, इस देश में वर्ण व्यवस्था नहीं होती, तो यह समस्या ही नहीं उठती-कि इसाई कहां से आए, मुसलमान कहां से आ गए?

भारत की वर्ण व्यवस्था और भेद-भाव को उत्पन्न करने और प्रश्रय देने का अपराध-भारतीय-धर्म और धर्माचारियों ने किया है। भारत के तमाम गांवों में अब भी अनपढ़ जनता ही अधिक है-जहां सनातन-धर्म पंडित एवं पुरोहित, वर्ण-भेद बनाए रखने का प्रचार करते रहते हैं। 

वह मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर तथा पूजा आदि की प्रचलित अवधारणा से बिल्कुल भिन्न विचार रखते थे। उनका कहना था कि पत्थरों, ईंटो से निर्मित देवालयों में यदि विश्वास चिपका तो सर्वनाश है। 29 नवम्बर 1992 को उन्होंने अमेरिका के कैलिफोर्निया में पद्मासन में शरीर छोड़ा। भक्तों के दर्शन के लिए उनका शरीर उसी अवस्था में वाराणसी लाया गया था। इस दिन उनका परिनिर्वाण दिवस धूमधाम से मनाया जाता है।

कार्यक्रम के सफलतापूर्वक आयोजन के लिए संस्थान के व्यवस्थापक अरुण सिंह तथा सदस्यों में गुंजन, नाना जी, वीरेंद्र, हिमांशु, नवीन, गोलू, अंशू, सर्वेश, जसवंत, गोवर्धन, मिंटू, फागू एवं अभिषेक ने सराहनीय योगदान दिया।


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