हजरत निजामदुद्दीन औलिया: शांति एवं सामाजिक सद्भाव के युग द्रष्टा

साझी विरासत के अलमबरदार थे निजामदुद्दीन औलिया



भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास में शेख निजामुद्दीन औलिया के व्यक्तित्व और उनके कार्यों को विशेष महत्व प्राप्त है। उन्होंने धर्म की वह क्रांतिकारी भावना प्रस्तुत की थी जिसमें जनसेवा को भक्ति का स्थान प्राप्त हो गया था। राजा और राजनीति से पृथक रहकर उन्होंने मानव निर्माण का कार्य किया। आध्यामिकता से परिपूर्ण इंसानों की पूरी एक पीढ़ी तैयार कर दी। जिसने अपने जीवन को नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की सेवा में समर्पित कर दिया। उनकी खानकाह से मानवता, आध्यामिकता, मानव-मैत्री और प्रेम के स्रोत पूरी दुनियां में फैल गए। वें कबीर के लिए चिंतन की एक ऐसी धारा छोड़ गए, जिसे कबीर ने न केवल आगे बढ़ाया बल्कि नई दिशा भी प्रदान की।

ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के समय दिल्ली सल्तनत दुनियां भर में राजनैतिक और आध्यात्मिक आकर्षण का केंद्र थी। ऐसी राजनैतिक हलचल में भी शेख का काम लोगों को सद्गुणों और सद्कार्यों की शिक्षा देना ही था। वे जीवन भर दत्तचित्त होकर इस काम में लगे रहे। प्रत्येक धर्म-वर्ग के लोग उनके खानकाह में आते वें हरेक से उनसे ज्ञान और समझ के हिसाब से बातें करते, जो कोई भी उनसे मिलता वह उनसे मोहित हो जाता। सद्भाव और प्रेम की इस कार्यशैली ने उन्हें महबूब-ए-इलाही से महबूब-ए-आलम बना दिया। ये इस्लामी सूफीवाद की वो धारा थी जो वेदांत के रहस्यवाद से काफी मेल खाली थी। इसका भी आधार रहस्य यानी तसव्वुफ था।



उनकी महफिल सभी धार्मिक वर्गों के लिए खुली जगह थी। धर्म-जाति के आधार पर भेद-भाव न था। उनके विचारों ने समाज में उदारता और सद्भाव का वातावरण निर्मित किया। उन्होंने संप्रदायवाद व नफरत के बीच शांति, अहिंसा और प्रेम को प्रचारित किया। उन्होंने बार-बार कहा कि जो नेक राह तलाश करते हैं, उनके लिए ईश्वर की मोहब्बत एकमात्र प्रेरक तत्व होना चाहिए।

अहिंसा में विश्वास रखने वाले हजरत निजामदुद्दीन औलिया का कथन था कि ‘हिंसा का प्रयोग समस्याओं को हल करने से अधिक समस्याएं पैदा करता है, अगर कोई तुम्हारे रास्ते में कांटे रखता है और तुम भी उसके रास्ते में कांटे रखते हो, तो संसार में हर जगह कांटे ही कांटे होंगे।’ बदला लेने को उन्होंने जंगल का कानून करार दिया। आज भी हजरत निजामुद्दीन की दरगाह गंगा-जमुनी तहजीब और सहिष्णुता का महत्वपूर्ण केंद्र है। बसंत पंचमी पर यहां पीले वस्त्र और फूलों का खुमार होता है। हिंदुस्तान की संस्कृति में यह आयोजन एक खास तरह के सद्भाव और सहिष्णुता का प्रतीक है। 

इस सूफी बसंत की शुरूआत खुद अमीर खुसरो ने 13वीं सदी में की थी। कहा जाता है कि शेख अपने भांजे की मृत्यु से बेहद दुखी थे। बसन्त के मौके पर अमीर खुसरो ने कुछ औरतों को पीले वस्त्र और पीले फूलों को गाते हुए देखा तो खुसरो भी ऐसा ही रूप धारण कर हजरत निजामदुद्दीन औलिया के सामने गाने लगे। जिससे शेख खुश हो गए। इसके बाद खानकाह में बसन्त का त्योहार मनाया जाने लगा जो आज तक कायम है। निजामदुद्दीन औलिया इस रंग में इतना डूबे की अपना जन्मदिन भी बसन्त के दिन मानने लगे। 

कहा कि इससे अच्छा दिन कोई हो ही नहीं सकता है। पूरी खानकाह पीले रंगों से सजी होती थी। खुसरो की रचना ‘आज बसन्त रच्यो है निजाम घर’ की सर्वत्र धूम मची रहती थी। उनका मानना था कि खुदा से इश्क तभी हो सकता है जब उसके बंदों से भी हो। सूफी संतों की दरगाहों में होली प्रमुखता से मनाई जाती थी, जिसे जश्न-ए फाग कहते थे। इनकी हिंदी कविताएं खानकाहों में भी सुनाई जाती थीं। इन कविताओं में गोपी, मुरली और रासलीला जैसे शब्द बार-बार सुनाई देते थे। 

निजामदुद्दीन औलिया के खानकाह में होने वाली होली और गीत बहुचर्चित रही है। जिस दिन अमीर खुसरो शेख के मुरीद हुए, इत्तेफाक से उस दिन भी होली थी। खुसरो होली और मुरीद बनने की दोहरी खुशी व उत्साह को एक साथ जाहिर करते हुए गीत गाने लगे। तभी से सूफियों में होली के रंग खेलने की परंपरा आरम्भ हुई या यूं कहिये की भारतीय संस्कृति और इस्लामिक सँस्कृति का गहराई से एक दूसरे को समझने का रास्ता हमवार हुआ। अमीर खुसरो के रचना की एक बानगी देखिये...

‘मोहे रंग दे महबूब ए इलाही,

मोहे रंग दे रंग दे, मोहे रंग दे निजामदुद्दीन औलिया,

अबीर गुलाल मोहे लगाओ, होली खेलन आया कान्हा बिरज में,

मैं भी होली खेलूं तोरे संग निजाम, मारो पिचकारी मोरे ख्वाजा निजाम’

दूसरा गीत...

‘हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमार,

बाइस ख्वाजा मिल बन-बन आये,

खुसरो निजाम संग होली खेलत,

कुतुबुद्दीन और गंजशकर के साबिर निजाम लाला...

कहते है कि शेख के कहने पर अमीर खुसरो ने आम आदमी की भाषा हिंदवी में एक दीवान हालात-ए-कन्हैया किशन लिखा। निजामुद्दीन औलिया बड़े ही खुले दिल के विचारक और हर मजहब को एक ही दृष्टि से देखने वालों में थे। उनकी इस विशेष कार्यशैली से उस दौर के उलमा नाराज थे। पर उनके विचार लोगों तक पंहुच रहे थे और आम आदमी के दिलों में जगह बना रहे थे। वास्तव में, सूफीवाद का सिर्फ एक ही सिद्धांत है - इंसान चाहे किसी भी मजहब, जाति या रंग का हो, सभी की सेवा करना और दुखी दिलों पर मरहम लगाना। उनका कहना था कि कयामत के दिन वही व्यक्ति अल्लाह के अधिक नजदीक होगा जो गरीबों और मजलूमों के दुखों को दूर किया होगा। 



सूफी एक बात मानते हैं- 

‘अल खल्क-औ-अयालुल्लाह.’ 

माने सब खुदा के बंदे हैं और खुदा से इश्क तभी है जब उसके बंदों से है। वे कहते थे-‘इबादत से ज्यादा सवाब (पुण्य) जरूरतमंदों की मदद से मिलता है’।

एक बार किसी ने उनसे पूंछा कि खुदा तक जाने का रास्ता कौन सा है तो उन्होंने शेख अबू सैद अबुल-खैर की बात दोहरा दी-‘ जितने रेशों से ये जिस्म बना है, खुदा तक जाने के उतने रास्ते हैं। पर सबसे छोटा रास्ता वो है जो इंसान के दिलों को खुशी देता है। मैंने अब तक यही किया है और मेरी सलाह है तुम भी ऐसा करो।’ 

शेख को सूफी साहित्य एवं तत्कालीन समाज में ष्दिलों का हकीमष्भी कहा गया है। उनके प्रभाव में आने वाला व्यक्ति तमाम सामाजिक बुराइयों से किनारा कर लेता था। शेख का हिन्दू रहस्यवादियों और नागाओं से सम्बंध सर्वविदित थे। एक बार जब वो अपने खानकाह (निवास स्थान) की छत पर अमीर खुसरो के साथ टहल रहे थे, उसी समय उनकी दृष्टि नीचे गयी तो देखा कि जमुना के तट पर हिन्दू मूर्तियों की पूजा में लीन हैं उन्हें देखकर शेख इतने अभिभूत हुए कि तुरंत ही एक शेर पढ़ दिया।

हर कौम रास्त राहे दीन व किबला गाहे, यानी प्रत्येक जाति का एक धर्म और किब्लागाह-पूज्यस्थान होता है।

इस पंक्ति में धार्मिक सहिष्णुता की असीम भावना सिमट आई है। एक ऐसे युग में जब मुसलमानों का राजनीतिक प्रभुत्व अपने पूर्ण शिखर पर था,एक धार्मिक नेता की अकस्मात वाणी केवल धार्मिक सहिष्णुता की ही नहीं बल्कि ऐसी धार्मिक विचारधारा का द्योतक है। जिसने भारतीय सभ्यता के जलवा-ए-सदरंग यानी सैकड़ों रूपों को समझ लिया हो, यहां की सभ्यता के मानचित्र में प्रत्येक धर्म और प्रत्येक देवालय (किब्लागाह) को देखने के लिए तैयार हो। धार्मिक सहिष्णुता और भाईचारे का जो वातावरण शेख ने पैदा किया वह हिंदुस्तानी समाज के लिए बेहद अनुकूल सिद्ध हुआ। जिसमें भक्ति आंदोलन विकसित हुआ। 

जिसके भाव में हिन्दू तथा मुसलमान गुरुओं ने अपनी धार्मिक विचारधारा के लिए समान तत्वों की खोज शुरू कर दी। नतीजा हुआ कि धर्म, साहित्य, कला, रहन-सहन एवं जीवन के हर क्षेत्र पर परस्पर प्रभाव पड़ा। ये जड़ें कहाँ से आईं? ये जड़े थी इसी सूफी और भक्ति आंदोलन की जहां ईश्वर और अल्लाह के एक होने की बात कही जा रही थी। जहां सन्त प्राणनाथ वेद और कुरान में समान शिक्षा होने की बात कह रहे थे तो कबीर और रैदास हिन्दू-तुर्क मिलन का संदेश दे रहे थे तथा सूफी संत सब तरह के भेदभाव से ऊपर उठकर प्रभु के एक होने की कोशिश कर रहे थे। शेख ने इन सबके लिए रोशनी का काम किया।

शेख की आध्यात्मिक और सामाजिक शिक्षाओं का बृहत प्रभाव कबीर, रैदास, नानक, दाराशिकोह और गांधी पर पड़ा। उन्होंने साझी संस्कृति और सामाजिक सद्भाव का ताना बाना बुना। जिसपर आगे चलकर भारत आधुनिक हुआ। इसे ही आजादी के आंदोलन में भविष्य के भारत की परिकल्पना के रूप में स्थान मिला।

आज कुछ लोग इस विरासत को नकारने पर जुटे हुए है। गाहे-ब-गाहे इसे नष्ट करने की कोशिश करते रहते हैं। ये कौन लोग है जो हमारी इस पवित्र विरासत के दुश्मन बने हुए हैं। यह इतिहास का साधारण प्रश्न नही बल्कि हमारे अस्तित्व का प्रश्न है। हमें इन्हें पहचानना होगा। यदि इस मिली-जुली सह अस्तित्व की भावना,जो हमारी राष्ट्रीय धरोहर है, को बचाये रखना है तो ऐसी ताकतों से न केवल होशियार रहना होगा बल्कि इनके खिलाफ लामबंद भी होना होगा।



डॉ मोहम्मद आरिफ

(लेखक जाने माने इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)


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