कृषि सुधारों के साइड इफेक्ट देखना है तो आईए बिहार में, MSP पर नहीं खरीदा गया 1 फीसदी भी गेहूं! 


अजय कुमार कुशवाहा 

 एक हैं सुशासन कुमार आप समझ ही गए होंगे कि मैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात कर रहा हूं. उनके राज में किसान सबसे बेहाल हैं. किसानों की आय वाली लिस्ट में बिहार नीचे से पहले नंबर पर है. फिर भी इनकी पार्टी जेडीयू ने देशव्यापी किसान आंदोलन की परवाह किए बिना कृषि बिल बिल का समर्थन किया. मैं उसी बिहार की बात कर रहा हूं जहां मुश्किल से 4-6 फीसदी फसल ही न्यूनतम समथर्न मूल्य (MSP) पर खरीदी जाती है. बाकी किसान बाजार के हवाले हैं और बिचौलियों-व्यापारियों के हाथों लूटे जा रहे हैं. सरकार इस लूटतंत्र में तमाशबीन बनी हुई है. मेरी बातों की तस्दीक ये आंकड़े करते हैं.

 

गेहूं किसानों का हाल 

सबसे पहले बात करते हैं रबी की मुख्य फसल गेहूं की. बिहार प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य है, जो देश के कुल उत्पादन में 6.2 फीसदी का योगदान देता है. सुशासन बाबू के पिछले पांच साल की ही बात करें तो यहां गेहूं ख़रीद केंद्रों में करीब 82 फीसदी की कमी आ गई है. जबकि, किसानों को लागत का उचित दाम दिलाने में खरीद केंद्र महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. भारतीय खाद्य निगम (FCI) के हवाले से ‘द वायर’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015-16 में गेहूं खरीद के लिए बिहार में 9,035 खरीद केंद्र बनाए गए थे, जो कि 2019-20 में घटकर सिर्फ 1,619 रह गए. नतीजा ये है कि पिछले पांच साल में बिहार में कुल उत्पादन का एक फीसदी भी गेहूं भी एमएसपी पर नहीं खरीदा गया. 

 

मक्का किसानों का दर्द

 

बिहार एक प्रमुख मक्का उत्पादक सूबा भी है. यहां देश का करीब 9 फीसदी मक्का पैदा होता है. जबकि बिहार का 80 फीसदी मक्का उत्तरी बिहार के खगड़िया, अररिया, बेगूसराय, कटिहार, किशनगंज और सहरसा सहित 18 जिलों में होता है. यहां यह रबी और खरीफ दोनों की फसल है. जिस मक्का उत्पादन को नीतीश कुमार अपने राज्य की ताकत बना सकते हैं उसी को पैदा करने वाले अन्नदाता आज सरकार की नीतियों की वजह से रो रहे हैं. 

 

यहां जेडीयू-बीजेपी की सरकार है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी द्वारा तय किया गया मक्के का न्यूनतम रेट की बात तो छोड़ ही दीजिए किसानों को उत्पादन लागत से भी कम दाम मिल रहा है. मोदी सरकार ने 2020-21 के लिए मक्के (Maize) का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये घोषित किया है. लेकिन बिहार में किसानों को 1020 से लेकर 1200 रुपये प्रति क्विंटल तक का दाम ही मिल पा रहा है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (Commission for Agricultural Costs and Prices) ने इस साल मक्का पैदा करने की लागत 1,213 रुपये प्रति क्विंटल बताई है. 

 

आप पूछेंगे कि दाम क्यों नहीं मिल रहा? तो इसकी वजह बिहार में कृषि का मॉडल है. वहां सरकारी खरीद केंद्र हैं नहीं. किसान बाजार के हवाले है. आज मोदी सरकार ने जिस कृषि बिल को राज्यसभा से भी पास करवा लिया है, उसमें तो देश भर के किसानों  को बाजार के हवाले कर दिया जाएगा. इस बिल के बाद कैसा शोषण हो सकता है इसका उदाहरण सुशासन बाबू के राज्य से लिया जा सकता है. 

 

व्यापारी 1850 वाले मक्के का अधिकतम 1200 रुपये प्रति क्विंटल का ही रेट देते हैं, साथ ही किसान के ही पैसे में से अपना 2 फीसदी गद्दी खर्च भी काट लेते हैं. यहां तक कि जिस बोरे में किसान मक्का ले जाता है उसका पैसा भी नहीं मिलता. दूसरी ओर, पंजाब और हरियाणा में सरकारी मंडी व्यवस्था मजबूत होने की वजह से वहां एमएसपी पर करीब 85 से 90 फीसदी फसल की खरीद हो जाती है. 

 

बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने तो 2006 में ही बाजार उत्पादन विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम को हटाकर भविष्य के कृषि बाजार सुधारों की शुरुआत की थी. सुधारों के नाम पर सरकारी मंडियों को खत्म कर दिया गया. यहां पैक्स (प्राइमरी एग्रीकल्चर को-ऑपरेटिव सोसाइटीज) के जरिए गेहूं, धान की खरीद होती है, वो भी नाम मात्र की. लेकिन मक्का बिल्कुल नहीं खरीदा जाता. खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान बिहार से ही आते हैं लेकिन ताज्जुब यह है कि वहां एफसीआई का एक भी सरकारी खरीद केंद्र नहीं है. 

 

अगर खुली बाजार व्यवस्था से किसानों का हित होता तो बिहार नंबर वन होता. किसानों के लिए खुले बाजार का नतीजा ये है कि यहां के किसानों की औसत आय देश भर में सबसे कम सिर्फ 3558 रुपये प्रति माह है. यह आंकड़ा भी मोदी सरकार का ही है.

 

कुल मिलाकर बिहार में किसानों की उपज खरीद का मामला पूरी तरह से बाजार या व्यापारियों के हवाले है. व्यापारी एमएसपी पर न खरीदकर मनमानी करते हैं. इसके बावजूद मोदी सरकार के ऐसे ही कृषि सुधार से कुछ लोग चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठे हैं. 

 

(लेखक, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी में युवा विंग के राष्ट्रीय  सचिव एवं मीडिया प्रभारी हैं)

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