खासा चर्चा में रहा "दारोगा का डंडा"




क्राइम राउंड अप


 

रवि प्रकाश सिंह

 

वाराणसी। अपराधियों के लिए पिस्टल और लफूवों(आवारा) के लिए डंडा। पूरा कानून इसी में आकंठ समाहित है। तभी तो पूरे लॉक डाउन में दरोगा जी का ये डंडा खासा चर्चा में रहा। दरोगा जी जिधर निकल जाते एक ही आवाज आती, भागो! दरोगा जी आज फिर डंडा लेकर आए हैं। मजाल है कि कोई छित्तूपुर, साजन सिनेमा,घंटी मिल और आसपास की कालोनियों में खुले में कदम रख दे। चढे तेवर वाली आंख पे चश्मा बाइक के पीछे बैठा एक सिपाही और क्या रुआब भाई वाह...। वर्दी की हनक इस कदर कि किसी को दौड़ा कर यदि दंडप्रहार का अनुसंधान चूक जाए तो मुंह से निकले ताबड़तोड़ मर्यादित अलंकरण से सामने वाले का मिजाज ढीला और पैंट गीली हो जाय।

दरोगा जी ने इस लॉकडाउन में अच्छा काम किया। पुलिस महकमे को शोधपरक जानकारी दी, नया अनुभव भी बताया। शायद इस तजुर्बे का उपयोग सीमा पर चीन के खिलाफ बेहतर हो सके। गोली चलाने की नौबत नहीं आयेगी, डंडा मार के ही चीनियों की सिट्टी-पिट्टी गुम कर देंगे। बिना किसी कैजुअल्टी के सामने वाला सरेंडर कर दे और जीत हमारी इसी महकमे की हो जायेगी। दारोगा का डंडा डराने में कम, ‘कोचने’ में काफी उपयोगी रहा। कोचाई भी ऐसी कि भाला फेल हो जाए। दर्द की तो पूछिए मत, महीनों तक लोग कराहते रहे। कोचने के इस रियाज की दाद देने को किसका जी नहीं चाहेगा। फिर किसी जांच में भी इस दर्द को आइडेंटिफाई भी नही किया जा सकता। ये है सर्जन जैसी नायाब चाल।  इसके बाद भी अगर यकीन नहीं तो आइए उपयोग की गोली साक्षात लें। डंडे का उपयोग कहां-कहां और कैसे करते हैं तो एक बार छित्तूपुर की तरफ रात-बिरात या किसी और समय भी चले आइए। यहां आप को पुलिस के डंडे की कई ‘कला’ देखने को मिल जाएगी।  


 

बहुत प्यार करते हैं गांधीजी से हम

सिगरा थानाक्षेत्र अंतर्गत पूर्व में तैनात एक सिपाही महोदय को गांधीजी से ‘बहोत’ प्यार था। प्यार के भ्रम में न पड़िये, ये प्यार आत्मसात वाला नहीं बल्कि जेब भरने वाला था। महीने में एक दिन और स्वाद (विशेष) लेने रोजाना महोदय को भारत माता मंदिर के पास लगने वाले खानपान की दुकान पर अन्नपूर्णा की शरण में जाते देखा जा सकता है। हालांकि इन दिनों वो नजर नहीं आ रहे हैं। नगद नरायन से प्यार कुछ इस कदर था कि तबादला होकर ये भेलूपुर चले गए, लेकिन किसी पुराने प्रेमी की तहर महीने में एक दिन चक्कर लगा आते थे कि पुरानी राह से आवाज देने वाले गुम न हो जाएं। यहां के दुकानदारों का बाकायदा रेट फिक्स है। एक हजार पर ठेला। यहां खाना खजाना के साथ गांधीजी का दर्शन भी रखवाले करते हैं। लेकिन इधर कई दिनों से नदारद हैं। लग रहा है कि किसी  और  ने फिल इन द गैप कर दिया है। खैर, पैसे से कैसा रंगभेद, उसका कोई रंग नहीं होता है। भगवान को भोग लगे या न लगे, मंत्री से लेकर संतरी तक को लगना जरूरी है। आखिर इस ब्रह्मांड के भगवान यही तो हैं। लॉकडाउन में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी भी इन दिनों अगर किसी के पास है तो वह आबकारी विभाग और पुलिस महकमा है। खैर चालान और शराब बेचने से आए पैसे से अब विकास की गति दी जाएगी।

 

एक का तीन नही बेचेंगे तो देंगे कैसे

बात तो सही है एक का तीन नहीं बेचेंगे तो देंगे कै से। अब कैंट स्टेशन के पास लगने वाली चाय पान की दुकानों को देख लें। ये सीधे मंत्रालय से अनुमति लेकर आये हैं तभी तो रात नौ बजे के बाद भी जनता का खैरमकदम करते हैं। क्या हुआ दस में बिकने वाला माल 12 में बेचें। किसकी मजाल है तो कैफियत मांगे। आखिर दाम बढ़ाकर बेचेंगे नहीं तो आका को देंगे कै से। गलती से इन दुकानदारों से दाम को लेकर बहस की तो सीधे धमकी देते हैं, कहते हैं आप कौन हैं हमारे बॉस वो हैं जो कानून का पाठ पढ़ाते हैं। हम जब चाहे तब दुकान लगायेंगे। लोगों से मुंहमांगा पैसा लेंगे।


 

 




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