रिमझिम बरसे ला पनिया, चला चलीं धान रोपय धनिया,सुहाने मौसम में महिलाएं कजरी गाते हुए कर रहीं हैं रोपाई

 मस्ती भरी मनोहारी मौसमी गीतों से बटोही हो रहे मदमस्त


 गुरुवार देर रात हुई भारी बारिश के कारण किसान व्यस्त


 सिर्फ भारत में दिखती है खेती संग गीत और ऐसी मस्ती



जनसंदेश न्‍यूज


चांदमारी। गांव की पगडंडियों से गुजरते हुए इन दिनों खेतों में धान रोपती महिलाओं के स्वर ‘रिमझिम बरसे ला पनिया, चला चली धान रोपय धनिया’ जैसे तमाम गीतों से मन को आनंदित कर रहे हैं। आसमान में बादलों का डेरा, हल्की-सी रिमझिम बरसात। साथ में मंद-मंद हवा। इन सबके साथ खेतों में लहराते पानी के बीच में धान का बेहन हाथों में लेकर रोपाई का दृश्य अपने आप में ही मनोरम होता है। उसके साथ धान की रोपती महिलाओं का मौसमी गीत कजरी सुनायी दे तो निकट से गुजरते लोगों का ध्यान बरबस ही उनकी ओर खिंच जाता है।


इन दिनों जनपद के खेतों में यह नजारा आम है। गांवों में ऐसा खुशनुमा माहौल देखकर नहीं लगता कि वैश्विक महामारी कोरोना का संकट खत्म होने के बजाय लगातार बढ़ रहा है और इस बीमारी की छाया कहीं दिख रही है। शुक्रवार। दिन का वक्त। हरहुआ विकास खंड के आयर गांव में सड़क के किनारे स्थित खेतों में महिलाएं कुछ गुनगुनाते हुए धान की रोपाई कर रही थीं। उनके नजदीक पहुंचने पर गुनगुनाहट के शब्द कुछ स्पष्ट सुनाई पड़ने लगे।


ध्यान से सुना तो उनकी मधुर आवाज में ‘...धान रोपे धनिया' कुछ ऐसा ही सुनाई दिया। तुरंत बहुत ज्यादा समझ में नहीं आया। उनके गीत के बोल सुनने के लिए बाध्य होकर रुकना पड़ा। इस पर महिलाएं चुप हो गईं। वह शरमा रहीं थीं। कुछ पल बाद धान रोपती महिलाओं ने फिर गुनगुनाना आरंभ कर दिया। हल्की-हल्की चलती हवा के बीच वह गा रही थीं कि ‘रिमझिम बरसे ला पनिया, चला चलीं धान रोपय धनिया’।


गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि कुछ दशक पहले तक कजरी गाये बगैर धान की रोपाई होती ही नहीं थी। पूर्वांचल के लोकगीतों की यह परंपरा कम से कम खेतों में धान रोपाई के दौरान अब बहुत कम दिखाई-सुनाई पड़ती है। कहीं सुनाई पड़ जाय तो मन प्रसन्न होना स्वाभाविक है। इधर, वहीं, पीली साड़ी पहनी महिला ने गीत को आगे बढ़ाया। उसने अन्य महिलाओं के सुर में सुर मिलाते हुए कहा ‘धान रोपय धनिया हो, धान रोपय धनिया, रिमझिम बरसे ला पनिया चला चली धान रोपय धनिया’।


ये गीत खत्म होने पर उन्हीं में से एक महिलाओं ने दूसरी से कहा कि ‘अब तू गावा’। इस पर लाल साड़ी में महिला ने कजरी शुरु की। ‘सखी बरसे बदरवा से मोती रे झुलनिया से बूंद टपके’, ‘सखी गावेली खूब सावन में कजरिया बदरिया घेरी आई ननदी’ और ‘रुनझुन खोला ना हो केवड़िया हम बिदेसवा जइबे ना’ जैसे गीतों की बहार आ गयी। धान की रोपाई करती हुई गीत गातीं उन महिलाओं की जितनी तल्लीनता अपने काम के प्रति थी उतनी ही उनकी स्वरलहरियों में मिठास।


बीते गुरुवार देर रात हुई भारी बारिश के बाद ग्रामीण महिलाओं में खरीफ सीजन को लेकर भारी उत्साह है। शुक्रवार को धान रोपती महिलाओं के गीत रास्ते से गुजर रहे हर बटोही को अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर रहे थे। उसी बीच किसी ने आवाज लगायी, शायद लंच का वक्तच हो गया था। इधर, वयोवृद्ध किसान गिरिजाशंकर मिश्र कहते हैं कि हमलोगों के जमाने में महिलाओं की टोली तेज आवाज में कुछ यूं कजरी गाती थीं मानो ललकार रही हों। अब वह दौर नहीं रहा। बुजुर्ग किसान धन्नी यादव अतीत में खो गये। बोले, जो बीत गया वह परंपरा अब कम ही दिखती है। संभवत: भारत में ही खेती-किसानी के दौरान ऐसे सुखद दृष्य दिखते हैं। वहीं, ग्रामीण मंजू देवी ने बताया कि हमहन पहिले खूब गावत रहलीं, अब कहां केहू गावत हव।


(प्रस्तुति : रामदुलार यादव)


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