प्रवासी छात्रों की संवेदना.....







बात है उन छात्रों कि जो अपने पिंजरे को छोड़ चले हैं अपने सपनों में उड़ान भरने। एक तरफ न जाने कितने सपने पल रहे हैं तो दूसरी तरफ एक डर भी है कि कहीं धूल न जम जाये, कहीं अपनों के आशाओं को तोड़ न दें फिर भी जूनून, मेहनत और लगन है एक ऊँची उड़ान भरने की...बस इन्हीं उम्मीदों के साथ चल दिए हैं। अभी तो रास्ते में ही थे की एक मुसीबत ने दस्तक दे दी।

यह केवल  छात्रों के राह में ही नही अपितु पूरे विश्व, पूरी मानव जाति के राह में एक पत्थर के समान आ गया, जिसको हटाने में न जाने कितने दिन लग जाएं। कभी किसी ने सोचा नही था कि एक ऐसी आपदा भी आएगी जो पूरी व्यवस्था को ठप कर देगी, पूरे विश्व पर एक साथ ही प्रहार हो जायेगा। इस महामारी ने सबके जीवन में कुछ न कुछ परेशानी लाई ही है। जो जहां है वहांं परेशान है।

इसी में एक परेशानी छात्रों की भी है, जो अपने गांव, अपने घर से दूर किराए के मकानों, हाॅॅस्टलों में रह रहे हैं।

सभी छात्र परीक्षा की तैयारी में जुटे थे, परंतु उससे पहले ही इस महामारी ने हल्ला बोल दिया और परिक्षाएं स्थगित हो गयी, रुक गया सब कुछ । जैसे-तैसे कुछ छात्र घर पहुँचे तो कुछ को पहुंचाया गया।


(Ayushi Tiwari)

 

छात्र घर तो पहुंंच गये पर उनके सपनें अभी भी कहीं दूर किसी कमरे में बंद हैं,पर वें सपनें अब बोझ तले दब रहें हैं,वें बोझ है किराये का......जी हां किराया जो इस समय छात्रों के लिए विशेषकर एक बड़ी समस्या बन गयी है, क्योंकि घर का खर्च तो मुश्किल से चल पा रहा तो हॉस्टल का खर्चा कैसे सम्भालें।

छात्र तो हमेशा दूसरों पर ही आश्रित होतें हैं। खर्चों के लिए माँ-बाप, भाई-बहन पर और मंजिल तक पहुँचने के लिए शिक्षकों और कोचिंग संस्थानों पर फिर वो 3-4 महीने से बंद कमरों का किराया जो लगातार मकान मालिकों द्वारा माँगा जा रहा, किस पर आश्रित हो?

इस बोझ का दोषी है कौन !....क्या वें माँ-बाप जो बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए दिन-रात  मेहनत कर रहे, जैसे-तैसे बच्चों को पढ़ा रहे या फिर वें बच्चे जो मज़बूरी में घर से दूर जाकर कुछ बनने के सपने देख रहे या फिर वें मकान मालिक जो शायद बस इन किरायों पर आश्रित। दोष दे भी तो किसका?

ऐसे छात्र इन सवालों का जवाब नही चाहते, न किसी को दोषी बनाना चाहते, वें बस इस पर भी विचार करना और कराना चाहते अपने इस बोझ को कम करना चाहते और सपनों  पर लगे उन जालों को साफ कर एक उम्मीद का दिया जलाना चाहते हैं।

      

        सब कुछ परे रख,चले हैं मंज़िल की चाह में

        कोई मुश्किल ना आ जाए सपनों की उड़ान में


 

 




आयुुुुुषी तिवारी

शिक्षार्थी, महात्‍मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी

 


 



 



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