कोरोना काल में कैसे प्राप्त करें गुरूकृपा? धर्मशास्त्र के अनुसार बता रहे है सनातन संस्था के गुरूराज प्रभु


जनसंदेश न्यूज़
वाराणसी। आगामी 5 जुलाई को गुरुपूर्णिमा है। इस दिन गुरुतत्व अन्य दिनों की तुलना में 1000 गुना अधिक कार्यरत रहता है। भारत में गुरू-शिष्य की एक सनातन परंपरा रही है। सदियों से यहां पर गुरू को गोविंद के ऊपर का दर्जा दिया गया है। गुरू को पूजने वाले दिन गुरूपूर्णिमा का पर्व इस बार 5 जुलाई को पड़ रहा है। हर साल इस पवित्र दिवस को शिष्य अपने गुरू के यहां पहुंचकर उनसे आशीर्वाद ग्रहण करता है। लेकिन इस बार कोरोना संकट के कारण परिस्थितियां बदली हुई है। जिसको लेकर गुरू-शिष्य की परंपरा को किस प्रकार निभाया जाये। यह बता रहे हैं सनातन संस्था के श्री गुरूराज प्रभु। 


आइए जानते है गुरू-शिष्य परंपरा की कुछ प्रमुख बातें.....


शिष्य किसे कहते हैं और शिष्यत्व का महत्त्व क्या है ?
आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, उसे ‘शिष्य’ कहते हैं।  शिष्यत्व का महत्त्व यह है कि उसे देवऋण, ऋषिऋण, पितरऋण एवं समाजऋण चुकाने नहीं पडते।  


गुरु को ढूंढने का प्रयत्न न करें। इसका कारण क्या है?
गुरु ढूंढने से नहीं मिलते, क्योंकि गुरुतत्त्व सूक्ष्मतम है तथा साधक को केवल स्थूल का एवं कभी-कभी थोडा सूक्ष्म का ज्ञान होता है। अध्यात्म में शिष्य गुरु को धारण नहीं करता, अपितु गुरु ही शिष्य को अपनाते हैं अर्थात, वें ही शिष्य को चुनते हैं तथा उसे तैयार करते हैं। जब साधक का आध्यात्मिक स्तर (टिप्पणी) 55 प्रतशित से अधिक हो जाता है, तो गुरु स्वयं उसके पास आकर उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं। किसी साधक का स्तर केवल 40 प्रतिशत हो, परंतु उसमें मुमुक्षुत्व तीव्र है, तो भी उसे गुरुप्राप्ति होती है। तात्पर्य यह कि गुरु ढूंढने के प्रयत्न की अपेक्षा शिष्य कहलाने योग्य बनने का प्रयत्न करें ।


टिप्पणी: प्रत्येक व्यक्ति में सत्त्व, रज एवं तम, ये त्रिगुण होते हैं। व्यक्ति द्वारा साधना, अर्थात ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न आरम्भ करने पर उसमें विद्यमान रज-तम गुणों की मात्रा घटने लगती है एवं सत्त्वगुण की मात्रा बढने लगती है। सत्त्वगुण की मात्रा पर आध्यात्मिक स्तर निर्भर करता है। सत्त्वगुण की मात्रा जितनी अधिक, आध्यात्मिक स्तर उतना अधिक होता है। सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर 20 प्रतिशत होता है, जबकि मोक्षप्राप्त व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर 100 प्रतिशत होता है एवं तब वह त्रिगुणातीत हो जाता है।


न तो कभी गुरु की परीक्षा लें और न ही अपने आपको किसी का शिष्य समझें! ऐसा क्यों ?
यदि हम ऐसा सोचें कि गुरु को परखने के पश्चात ही उन पर श्रद्धा रखेंगे, तो उनकी परीक्षा लेनी पडेगी। परीक्षक का पद परीक्षार्थी की अपेक्षा ऊंचा ही होता है। यदि अपने आपको परीक्षक मानते हों, तब परीक्षार्थी को गुरु कैसे मान सकते हैं?
साथ ही ‘मैं अमुक गुरु का शिष्य हूं’, ऐसा भी नहीं समझना चाहिए, अपितु गुरु को ही कहना चाहिए, ‘यह मेरा शिष्य है।’ यदि कोई युवक स्वयं ही मन में सोच लें कि एक विशेष युवती उसकी प्रेमिका है, तो इसका कोई लाभ नहीं होगा। युवती को भी उसे स्वीकारना चाहिए। गुरु-शिष्य का संबंध भी कुछ इसी प्रकार का है।


गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा होने हेतु क्या करें?
तीव्र मुमुक्षुत्व अथवा गुरुप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा, इस एक गुण के कारण गुरुप्राप्ति शीघ्र होती है एवं गुरुकृपा सदा बनी रहती है। किशोरावस्था में जैसे कोई युवक किसी युवती का प्रेम पाने के लिए दिन-रात यही विचार एवं प्रयत्न करता है कि ‘मैं क्या करूं जिससे वह प्रसन्न होगी’, ठीक उसी प्रकार गुरु मुझे ‘अपना’ कहें, मुझ पर उनकी कृपादृष्टि हो, दिन-रात इसी बात का स्मरण कर, ‘मैं क्या करूं जिससे वे प्रसन्न होंगे’, इस दृष्टि से प्रयत्न करना अति आवश्यक है। आद्य तीन युगों की तुलना में कलियुग में गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा होना कठिन नहीं है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि गुरुकृपा के बिना गुरुप्राप्ति नहीं होती। भविष्य में कौन उनका शिष्य होगा, यह गुरु को पहले से ही ज्ञात होता है। गुरुप्राप्ति हेतु एवं गुरुकृपा बनाए रखने हेतु गुरुकृपायोगानुसार साधना के अंतर्गत नामजप, सत्संग, सत्सेवा, त्याग, प्रीति, स्वभावदोष-निर्मूलन, अहं-निर्मूलन एवं भावजागृति, ये अष्टांग सूत्र निरंतर आचरण में लाने होते हैं।


गुरुकृपा स्थायी रूप से टिकाए रखने के लिए क्या करना अनिवार्य है ?
गुरुप्राप्ति होते ही एवं गुरुमंत्र मिलते ही गुरुकृपा आरंभ होती है। उसे अखंड बनाए रखने के लिए गुरु द्वारा बताई गई साधना जीवन भर करते रहना अनिवार्य है।


संकटकालीन स्थिति में (कोरोना की पृष्ठभूमि पर) 
धर्मशास्त्र के अनुसार गुरुपूर्णिमा मनाने की पद्धति!      



पांच जुलाई को व्यासपूर्णिमा अर्थात गुरुपूर्णिमा है। प्रतिवर्ष अनेक लोग एकत्रित होकर अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार गुरुपूर्णिमा महोत्सव मनाते हैं, परंतु इस वर्ष कोरोना विषाणु के प्रकोप के कारण हम एकत्रित होकर गुरुपूर्णिमा महोत्सव नहीं मना सकते। यहां महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि हिन्दू धर्म ने धर्माचरण के शास्त्र में संकटकाल के लिए भी कुछ विकल्प बताए हैं, जिसे ‘आपद्धर्म’ कहा जाता है । आपद्धर्म का अर्थ है ‘आपदि कर्तव्यो धर्मः।’ अर्थात आपदा के समय आचरण करना आवश्यक धर्म! वर्तमान कोरोना संकट की पृष्ठभूमि पर देशभर में यातायात बंदी (लॉकडाऊन ) है। इसी अवधि में गुरुपूर्णिमा होने से संपत्काल में बताई गई पद्धति के अनुसार इस वर्ष हम सार्वजनिक रूप से गुरुपूर्णिमा नहीं मना सकेंगे। इस दृष्टि से प्रस्तुत लेख में वर्तमान परिस्थिति में धर्माचरण के रूप में क्या किया जा सकता है, इस पर भी विचार किया गया है। यहां महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि इससे हिन्दू धर्म ने कितने उच्च स्तर तक जाकर मनुष्य का विचार किया है, यह सीखने को मिलता है। इससे हिन्दू धर्म की विशालता ध्यान में आती है।


1. गुरुपूर्णिमा के दिन सभी को अपने-अपने घर भक्तिभाव के साथ गुरुपूजन अथवा मानसपूजा करने पर भी गुरुतत्त्व का एक सहस्र गुना लाभ मिलना: गुरुपूर्णिमा के दिन अधिकांश साधक अपने श्री गुरुदेवजी के पास जाकर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा के अनुसार कुछ लोग श्री गुरु, कुछ माता-पिता, कुछ विद्यागुरु (जिन्होंने हमें ज्ञान दिया, वे शिक्षक), कुछ आचार्यगुरु (हमारे यहां पारंपरिक पूजा के लिए आनेवाले गुरुजी), तो कुछ लोग मोक्षगुरु (जिन्होंने हमें साधना का दिशादर्शन कर मोक्ष का मार्ग दिखाया, वे श्री गुरु) के पास जाकर उनके चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इस वर्ष कोरोना संकट की पृष्ठभूमि पर हमें घर पर रहकर ही भक्तिभाव से श्री गुरुदेवजी के छायाचित्र का पूजन अथवा मानसपूजन किया, तब भी हमें गुरुतत्त्व का एक सहस्र गुना लाभ मिलेगा। प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा के अनुसार भले ही इष्टदेवता, संत अथवा श्री गुरु अलग हों, परंतु गुरुतत्त्व एक ही होता है ।


2. सभी भक्तों ने एक ही समय पूजन किया, तो उससे संगठित शक्ति का लाभ मिलना: संप्रदाय के सभी भक्त पूजन का एक विशिष्ट समय सुनिश्चित कर संभवतः उसी समय अपने-अपने घरों में पूजन करें। ‘एक ही समय पूजन करने से संगठित शक्ति का अधिक लाभ मिलता है। अतः सर्वानुमत से संभवतः एक ही समय सुनिश्चित कर उस समय पूजन करें।
सवेरे का समय पूजन हेतु उत्तम माना गया है। जिन्हें सवेरे पूजन करना संभव है, वंे सवेरे का समय सुनिश्चित कर उस समय पूजन करें।


कुछ अपरिहार्य कारण से जिन्हें सवेरे पूजन करना संभव नहीं हो, वे सायंकाल का एक समय सुनिश्चित कर उस समय; परंतु सूर्यास्त से पहले अर्थात सायंकाल 7 बजे से पूर्व पूजन करें।


जिन्हें निर्धारित समय में पूजन करना संभव नहीं है, वे अपनी सुविधा के अनुसार; परंतु सूर्यास्त से पहले पूजन करें ।
सभी साधक घर पर ही अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार श्री गुरु अथवा इष्टदेवता की प्रतिमा, मूर्ति अथवा पादुकाओं का पूजन करें ।


चित्र, मूर्ति अथवा पादुकाओं को गंध लगाकर पुष्प समर्पित करें। धूप, दीप एवं भोग लगाकर पंचोपचार पूजन करें और उसके पश्चात श्री गुरुदेवजी की आरती उतारें।


जिन्हें सामग्री के अभाव में प्रत्यक्ष पूजा करना संभव नहीं है, वे श्री गुरु अथवा इष्टदेवता का मानसपूजन करें।


उसके पश्चात श्री गुरुदेवजी द्वारा दिए गए मंत्र का जप करें। जब से हमारे जीवन में श्री गुरुदेवजी आए तब से जो अनुभूतियां हूई है उनका हम स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें।


इस समय, ‘पिछले वर्ष हम साधना में कहां अल्प पडे’, ‘हमने श्री गुरुदेवजी के सीख का प्रत्यक्षरूप में कितना आचरण किया’, इसका भी अवलोकन कर उस पर चिंतन करें।’


 


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