आध्यामिक अंतदृष्टि प्राप्त करने वाले ही होते हैं सच्चे गुरू


आचार्य विशाल पोरवाल
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में माता-पिता प्रथम गुरू होते हैं। माता-पिता और गुरू यही तीन ऋण भी होते है। लेकिन मानव जीवन में माता-पिता के साथ गुरू का चयन भी अति आश्वयक होता है। क्योंकि गुरू के पुण्य से शिष्य सिध्द होता है। परमात्मा के निकट पहुंचता है। शास्त्र का मत यहां तक है कि यदि आपका गुरू ब्राम्हण और आप किसी अन्य जाति है तो आपके धर्म का मूल्यांकन उसी ब्राम्हण गोत्र के मंत्र से लिया जायेगा। 
संत की जाति नहीं होती, पर वह संत भगवान या दैविक मार्ग का अनुयायी होना चाहिए। वेंद वेदांत उपनिषद का ज्ञान आवश्यक है। किसी को आध्यामिक ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही गुरू का दर्जा देना चाहिए। तभी शिष्य का उध्दार संभव है। 
गुरू शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृति भाषा से हुई है और इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है। इस दो व्यंजन अक्षर गु और रू होते है। जिसमें गु का अर्थ अज्ञान, जो कि अधिकांश मनुष्यों में होता है और रू का अर्थ आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करने वाला होता है। गुरू वे है जो मानव जाति के अज्ञान को मिटाते है। गुरू दिन भर ज्ञान देते है शब्दों से तथा शब्दों के परे भी शब्दातीत ज्ञान देने का कार्य करते है। प्रत्येक संतों का गुरू होना आवश्यक नहीं, केवल कुछ संतों में गुरू बनने की पात्रता होती है। गुरू साधकों को मोक्ष प्राप्ति तक के मार्ग दर्शाने का कार्य करते है। वें इसका दायित्व लेते है और इसके पूरा भी करवाते है। 
हिन्दू धर्म में गुरू एक व्यक्तिगत शिक्षक या निर्देशक होते है। जिन्होंने आध्यामिक अंतदृष्टि प्राप्त कर ली हो। कम से कम उपनिषशदों के समय से भारत में धार्मिक शिक्षा गुरूकुल पध्दति पर जोर दिया जाता है। पारंपरिक रूप से गुरू शिष्य के आश्रम में रहते है और ईश्वर भक्ति और आंदोलन से जुड़ कर गुरू सेवा का कार्य करते है। किसी संप्रदाय के प्रमुख या संस्थापक के रूप में गुरू श्रध्दा के प्राप्त होते है और उसे आध्यात्मिक सत्य का मूर्तिमान रूप माना जाता है। इस प्रकार उन्हें देवता के जैसे सम्मान प्राप्त था। गुरू के प्रति सेवाभाव और आज्ञाकारिता की परंपरा अब भी विद्यमान है। 
मनुस्मृति में गुरू का वर्णन कुछ इस प्रकार है...


निषेकादिनी कर्माणि यः करोति यथाविधि। 
सम्भावयति चात्रेन स विप्रो गुरुरुच्यते।


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