पूर्वांचल में कॉन्ट्रैक्ट बेसिस खेती में पूंजीपतियों की रुचि नहीं, सब्जी में घाटे से पीछे हट चुकी दो कंपनियां, जैविक खेती में भी फेल

यहां महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक जैसा नहीं माहौल


आधुनिक खेती के बजाय पारंपरिक खेती पर ही जोर


महंगी खेती व मौसम की बेरुखी से डरे रहते हैं किसान


हाई ब्रीड के स्थान पर पारंपरिक बीजों को ही प्रमुखता



सुरोजीत चैैटर्जी
वाराणसी। खेती-बाड़ी को लेकर दक्षिण भारत के राज्यों में जिस प्रकार कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर जोर है और कंपनियां वहां ठेके पर खेती करा रही हैं, वैसा रुझान और माहौल यूपी या पूर्वांचल के जनपदों में नहीं बन पा रहा है। कुछ कंपनियों ने इस दिशा में कोशिश की लेकिन उत्पाद की लागत अधिक होने के चलते वह पीछे हट गये। दूसरी ओर, निजी स्तर पर कुछ ऐसे लोगों ने भी प्रयास किए जिनके पास खेत नहीं बल्कि पूंजी है, उन्होंने घाटे के कारण इस कारोबार को छोड़ना बेहतर समझा।
किसानों से उनके ही खेतों में फसल पैदा कराते हुए सीधे खरीद लिये जाने की इस प्रक्रिया में कई अड़चनों के चलते पूर्वांचल में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है। किसान से सीधे तौर पर फसल की खरीदने वाली या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़ी कंपनियां मुख्य रूप से महाराष्टकृ, कर्नाटक और गुजरात में हैं। कुछ कंपनियां मध्य प्रदेश और ओडीशा आदि में भी हैं। पुणे, वर्धा, जालना, चेन्नई, बंगलुरू, वड़ोदरा, हैदराबाद, मुंबई, अहमदाबाद, सिंकदराबाद, कोरापुर (ओडिशा) आदि जनपदों में स्थित कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में योगदान दे रही हैं।
सरकारी स्तर पर फूड कार्पाेरेशन ऑफ इंडिया, कॉटन कार्पाेरेशन ऑफ इंडिया, जूट कार्पाेरेशन ऑफ इंडिया वगैरह अपने स्तर पर इस दिशा में पहल करती हैं। रबड़, चाय, कॉफी, तंबाकू और सब्जी वगैरह की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग काफी समय से चल रही है। पूर्वांचल में ठेके पर खेती के लिए दो प्रमुख कंपनियों ने पहल की थी। दोनों ने वाराणसी समेत आसपास के जनपदों में सब्जी उत्पादन के लिए किसानों से करार किया। लेकिन उत्पादन लागत बढ़ने और बाजार में उचित मूल्य न मिलने के चलते उन्होंने अपने हाथ खींच लिए।
इसी प्रकार पिंडरा क्षेत्र निवासी एक पूंजीपति ने जैविक खेती के लिए पैसा लगाया लेकिन उन्हें भी घाटे का सामना करना पड़ा। हां, एक अच्छी खबर यह है कि कुछ दिनों पहले बंगलुरू की एक कंपनी ने बनारस में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में रुचि दिखायी है। हालांकि कंपनी की यह तैयारी फिलहाल बातचीत के स्तर पर ही है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर इधर से किसानों की सोच अलग-अलग है। अधिकांश किसान परंपरागत खेती को छोड़कर आधुनिक तकनीक की खेती अपनाना नहीं चाहते। वह हाईब्रीड बीजों में भी रुचि नहीं ले रहे हैं जबकि ऐसे बीज के प्रयोग से अच्छी पैदावार और उत्पादन भी अपेक्षाकृत ज्यादा होता है।
जिला कृषि अधिकारी सुभाष मौर्य कहते हैं कि मूख्य उद्देश्य किसानों को उनकी उपज का अधिक से अधिक लाभ दिलाना है। इस दिशा में शासन की विभिन्न योजनाएं हैं। साथ ही किसान पाठशालाओं में किसानों को प्रशिक्षित और जागरूक भी किया जाता है।



किसान बनाएं ‘फार्मर कंपनी’ तो बने बात


संसाधनों समेत केयरिंग और हैंडलिंग आदि का अभाव


उत्पाद के सुरक्षित भंडारण व प्रोसेसिंग प्लांट का टोटा


जनसंदेश न्यूज
वाराणसी। ठेके पर खेती के लेकर हरहुआ के किसान रामकिशुन कहते हैं कि सिर्फ हाईब्रीड बीज की बात सोचना व्यर्थ है। कारण, मौसम के भारी उतार-चढ़ाव, ओलावृष्टि, संसाधनों का टोटा और लगातार महंगे हो रहे कृषि कार्य के चलते किसान डरा रहता है। फलस्वरूप वह अपनी पूंजी फंसाना नहीं चाहता। सेवापुरी के अजय सिंह ने कहा कि इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, अनाज भंडारण स्थल का अभाव, प्रोसेसिंग प्लांट की अनुपलब्धता, कृषि में सूचनाओं का टोटा, हैंडलिंग और केयरिंग की सुविधा न होना, कमजोर मार्केटिंग के चलते ठेके पर खेती के लिए पूंजीपति या कंपनियां इस इलाके से मुंह फेर लेते हैं।
वहीं, चोलापुर के अखिलेश के मुताबिक दक्षिण भारत में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में प्लांटेशन, मसाला और बागवानी के कार्य अधिक हैं। वहां अनुकूल मौसम के अलावा खेती को लेकर किसान अपडेट और सजग हैं। राजातालाब के किसान चौधरी शार्दूल विक्रम सिंह कहते हैं कि जबतक विभिन्न फसलों को लेकर किसानों का संगठन या ‘फार्मर कंपनी’ नहीं बनेगी तबतक किसानों को उनकी उपज का न तो सही मूल्य मिलेगा और न ही मोलभाव करने की उनकी क्षमता बढ़ेगी।
चिरईगांव प्रतिनिधि के अनुसार क्षेत्र के अन्नदाता अब खेती-किसानी को घाटे का सौदा मान रहे हैं। खाद, बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई, जुताई और मजदूरी का रेट हर साल बढ़ रहा है। उन्हें सरकार के समर्थन मूल्य से अधिक पैसा निजी क्षेत्र में अपना उत्पाद बेचने से मिल रहा है। घर के दरवाजे पर भी फसल खरीद ली जा रही है। प्रगतिशील किसान बद्री नरायन यादव, लालजी यादव, नंदलाल तिवारी, अर्जुन पाल आदि किसानों का कहना है कि कृषि कार्य की लागत बढ़ने से समस्या बढ़ी है।


 


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