‘वाह’ और ‘आह’ के गले में फंसा रोटी का निवाला, लॉकडाउन के चक्रव्यूह में रंगमंच
आर्थिक संकट में घिरे नुक्कड़ नाटक करने वाले फ्रीलांस आर्टिस्ट
संवादों और गीतों से गूंजता रंगमंच सन्नाटे की चकरघिन्नी में कैद
विजय विनीत के साथ सुरोजीत चैटर्जी
वाराणसी। बनारस का रंगमंच सूना-सूना सा है। कलाकार आर्थिक संकट में हैं। वो कलाकार जिसकी आजीविका का साधन था नुक्कड़ नाटक। लाकडाऊन में ये कलाकार फांकाकशी के शिकार हो गए हैं। सबसे बदहाल हैं नुक्कड़ नाटक करने वाले फ्रीलांस आर्टिस्ट। इन्हें पाई-पाई के लिए मुसीबत झेलनी पड़ रही है। सबके शो रद हो गए हैं। लाकडाउन में नुक्कड़ नाटकों का अनुबंध भी लॉक हो गया है। बनारस की विभा पांडेय नुक्कड़ नाटक की नामी कलाकार हैं। नाटकों से ही इनकी आजीविका चलती थी। लाकडाउन ने इनके नाटकों का कांट्रेक्ट ही किल कर दिया है। विभा कहती हैं, ‘कोरोना और लॉकडाउन की स्थिति पहली बार देखी है। इस आपदा ने सबको ‘घर बैठा’ कर दिया है। हमारे सभी शो और अनुबंध रद हो चुके हैं। नुक्कड़ नाटकों में आमतौर पर फ्रीलांस कलाकार ही शामिल होते हैं। इन आर्टिस्टों के लिए अब दो वक्त का भोजन जुटा पाना कठिन हो गया है। लाकडाउन से हमें भारी नुकसान हुआ है। लेकिन, ज्यादा नुकसान उन कलाकारों का है, जो बनारस और पूर्वांचल की तमाम संस्थाओं में काम करते रहे हैं।’
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से फरियाद करते हुए विभा कहती हैं, ‘हम जैसे कलाकारों के बारे में सरकार कुछ सोचे। यूपी में कोई कल्चरल पॉलिसी होती तो शायद हमें किसी से गुहार लगाने की जरुरत ही न पड़ती। लॉकडाउन को देखते हुए लगता नहीं कि हम दो-चार महीने तक कोई शो कर पाएंगे। संगीत नाटक अकादमी से हम इतना जरूर चाहते हैं कि सरकारी ग्रांट उन कलाकारों को मिले, जिनकी समूची जिंदगी का दारोमदार सिर्फ रंगमंच और नुक्कड़ नाटकों पर ही टिका है।’
युवा रंगकर्मी हर्षित सिंह बनारस में रहते थे। थिएटर में काम करते थे। बाकी समय नुक्कड़ नाटकों के लिए देते थे। ये नाटक ही कमाई का जरिया थे। लाकडाउन हुआ तो आर्थिक तंगी ने जकड़ लिया। लाचार होकर अपने गांव बजहां (चंदौली) चले गए। हर्षित बताते हैं, ‘लॉकडाउन की वजह से उनके सभी कार्यक्रम रद हो चुके हैं। हम फ्रीलांस आर्टिस्ट के रूप में विभिन्न ग्रुप्स के लिए थिएटर और नुक्कड़ नाटकों में काम करते थे। हमें नहीं पता था कि ये नाटक उनकी असल जिंदगी की लाचारी और बेबसी का आइना बन जाएंगे। लॉकडाउन की वजह से हम न रिहर्सल कर पा रहे हैं और न ही कोई शो।’
मोहम्मद रसूल नुक्कड़ नाटकों से ही आठ परिवारों का खर्च उठाते थे। वो अपनी विधवा बहन के अलावा भांजी की भी परवरिश करते थे। नुक्कड़ नाटक बंद हुआ तो जैसे इनकी जिंदगी की गाड़ी बीच सड़क पर खड़ी हो गई। दिशा क्रिएशन के निदेशक नवीन कुमार मिश्र बताते हैं कि लाकडाउन ने बनारस के उन सभी कलाकारों को बुरी तरह तोड़कर रख दिया है। ऋचा, प्रिया पांडेय, पूजा सिंह, छोटे राजा, आकाश सेठ, अमित त्रिपाठी और भगवान मौर्य कहते हैं कि खुद की जिंदगी अब नाटक बनकर रह गई है। अब तो हर पल एक बेबस सीन है, और मुंह से निकली आह, एक संवाद।
बनारस के मुर्दहां गांव में नुक्कड़ नाटक के फ्रीलांस आर्टिस्ट हैं भोला सिंह राठौर। पिछले बीस साल से इसी पेशे से जुड़े हैं। इन दिनों वो तंगहाल हैं। पाई-पाई के लिए मोहताज हैं। इन्हें वह संस्थाएं भी नहीं पूछ रही हैं जो पहले सिर आंखों पर बैठाए घूमती थीं। अब तो भीख मांगने की नौबत है। लाकडाउन ने जिंदगी की वह आंख खोल दी, जिसकी पलक पर कोई दुख टिक नहीं पाता था।
नुक्कड़ नाटक विधा से जुड़ी कलाकार खुशबू निशा को लें। वो बीएचयू के म्यूजिक विभाग की स्टूडेंट हैं। नुक्कड़ नाटकों से वो आगे की पढ़ाई कर रही थीं। अब सारे रास्ते बंद हो गए हैं। बनारस में ज्ञानेंद्र ज्ञान चौबे, अंकित तिवारी, राजन सिंह, आकाश केसरी, मनोज शिवा, मोहम्मद अजहर, दीपशिखा, प्रियांशु, सोनू पांडेय, अमन तिवारी नुक्कड़ नाटकों के अलावा सीरियल और लघु फिल्मों में अपनी कला का हुनर दिखाते थे। ये सभी कलाकार अब हाशिए पर आ गए हैं। अंकित तिवारी बताते हैं कि पूर्वांचल में लोक नाटकों की बड़ी संपदा है। तमाशा, जात्रा, नौटंकी सरीखी तमाम लोक शैलियों में आधुनिक विषयों को लेकर नाटक लिखे और खेले जाते थे। जब कलाकार ही घर में लाक हैं तो फिर नाटक कहां से होंगे?
नुक्कड़ नाटकों को सफदर ने दिया था नया आयाम
बनारस में नुक्कड़ नाटकों को पहचान तब मिली जब 19वीं सदी में भारतेंदु ने इसे प्रासंगिक बनाया। खुद उन्होंने नाटक लिखे और उनका मंचन भी किया। जन नाट्य मंच और सफदर हाश्मी ने अस्सी के दशक में नुक्कड़ नाटक को नया आयाम दिया था। ये आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। हाल के दिनों में नाटकों का स्वरूप जरूर बदला है। बनारस में नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत के साथ ही रंगमंचीय नाटकों का स्वरूप भी बदला। पहले भव्य सेट हुआ करते और सामान्यत: मिथकों या राजा रानियों पर आधारित कथाएं होती थीं। बाद में बनारस के कलाकारों ने संगीत और संवादों को भी पैना किया।
कोरोना ने चूसा नाटकों का रस
लाइटमैन के पास काम नहीं और ड्रेसमैन का रोजगार भी हुआ ठप
साउंड इफेक्ट्स व संगीत देने वाले हुनरमंद घर बैठे कुनमुना रहे हैं
वाराणसी। रंगमकर्मियों में बेचैनी बढ़ रही है। स्टेज शो के लिए न कहीं किसी स्क्रिप्ट की चर्चा और न ही कोई तैयारी। दर्शकों से रूबरू होकर संवाद बोलने का वो नशा कहीं हिरन हो गया है। अभिनेता-अभिनेत्रियों के मन में कुलबुलाहट है, बेचैनी है। अपनी अदायगी से ‘आह’ और ‘वाह’ सुनने के लिए तरस गये हैं थियेटर आर्टिस्ट। लाइट मैन के पास काम नहीं। ड्रेसमैन का रोजगार ठप है। मेकअपमैन की जेब खाली हैं। नाटकों में साउंड इफेक्ट्स और संगीत देने वाले हुनरमंद घर बैठे कुनमुना रहे हैं। जितना मजा मंच पर नाटकों के पेश करने में आता है, उससे कहीं अधिक रोमांच नाटकों के रिहर्सल में आता है। उस वक्त संवाद बोलने से लेकर एक्टिंग के दौरान जो गलती होती है, उससे उत्पन्न कॉमेडी की बड़ी याद आ रही है।
वैश्विक महामारी कोरोना के कारण जारी लॉकडाउन ने मानो पूरे रंगकर्म को भी डस लिया है। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन जरूरी है। सो, कहां और कैसे लाएं आडिएंस और किसे दिखाएं अपनी प्रतिभा। इस मौसम में नाट्य प्रशिक्षण कार्यशालाओं में हिस्सा लेने का मन महीनों पहले बना चुके लोग हताश हैं। शहर में सालभर महीने-दो महीने पर नाटकों का मंचन होता रहा है। गर्मी के इस सीजन में तो शहर में मानो नाट्यकर्म की बाढ़ ही आ जाती है। कहीं ड्रामा वर्कशॉप होते हैं तो कहीं नाटकों का पूर्वाभ्यास चलता है, और कहीं प्रस्तुतियां भी होती रहती हैं। लेकिन इस बार कोरोना महामारी ने रंगमंच को भी ब्रेक लगा दिया है। बनारस का हिन्दी रंगकर्म अव्यावसायिक इसलिए कहा जाता है कि इसमें अभिनेता, अभिनेत्रियों और निर्देशक को फूटी कौड़ी नहीं मिलती।
इस क्षेत्र में पैसा मिलता है तो सिर्फ लाइट-साउंड, मेकअप और ड्रेसमैन को। इन लोगों को पेमेंट करने की बाध्यता यह है कि एक्टर्स को छोड़कर सभी प्रोफेशनल हैं। थिएटर के जरिये कमाने वाले रंगकर्म के ये महत्वपूर्ण हिस्से भी इस लॉक डाउन में बेरोजगार हैं। नाटकों में लाइट उपलब्ध कराने और उसका संचालन करने वाले शैलेंद्र कुमार उर्फ ‘पुल्ली’ कहते हैं कि बीते दो महीने से कोई काम नहीं है। लाखों रुपये के लाइट्स कबाड़ की तरह पड़े हैं। उन्हें मेंटेन करना भारी चुनौती है। आर्थिक संकट गहराने लगा है। अपने स्टाफ को किसी प्रकार वेतन दे रहे हैं। ठठेरी बाजार स्थित मोहन श्रृंगार कला केंद्र के प्रमुख अविनाश अग्रवाल भी इस लॉक डाउन से परेशान हैं। बोले, पीक सीजन कोरोना की भेंट चढ़ गया। बंदी के चलते नवरात्र में बिजनेस नहीं हो सका। वर्तमान में नाटकों का मंचन और कार्यशालाएं भी नहीं हो रही हैं। दो माह से प्रोडक्शन भी ठप है। स्थानीय कार्यक्रम नहीं हो रहे हैं और अब जुलाई-अगस्त में बाहर के व्यापारी नहीं आएंगे।
मैकअप मैन कुतबुद्दीन अंसारी परेशान हैं। नाटकों में रूपसज्जा करना उनका पेशा है। पार्ट टाइम में वह बनारसी साड़ियों का नक्शा तैयार करते हैं। नगर के विभिन्न नाट्य संस्थाओं के अलावा स्कूली स्तर पर होने वाले मंचनों में उनकी खासी व्यस्तता रहती है। लेकिन इस बार लॉकडाउन ने कुतबुद्दीन की उन उम्मीदों को धो दिया है जो उन्होंने कमाई के बाद परिवार के लिए कुछ खास करने के लिए पालीं थीं।
लॉक डाउन के चलते न तो कहीं नाटकों का रिहर्सल चल रहा है और न ही कोई तैयारी। मंच पर एक्टिंग करते वक्त सामने बैठे दर्शकों से मिलने वाली सजीव प्रतिक्रिया को अकुला रहे कुछ रंगकर्मियों ने घर बैठे डिजिटल थिएटर का रास्ता चुना है। वह इन दिनों अपने-अपने घर से ही स्मार्ट फोन और लैपटॉप पर या तो प्रस्तुतियां दे रहे हैं अथवा दूसरों की प्रस्तुतियों को देख रहे हैं। डिजिटल थिएटर फेस्टीवल वगैरह के जरिए ऐसा काम जारी है।
इस आनलाइन सिस्टम से वह उतने संतुष्ट नहीं हैं जितना उनको स्टेज पर लाइव परफॉर्मेंस करके मिलता है। सामने बैठे दर्शकों के रिएक्शन को तरस रहे यह रंगकर्मी डिजिटल सिस्टम के माध्यम से खुद को किसी प्रकार दिलासा दिए हुए हैं। नाटकों में साउंड इफेक्टस और संगीत देने वाले रंगकर्मी मो. शहजाद ‘शैज’ खान ने कहा कि वर्तमान का थियेटर बेहद खराब दौर से गुजर रहा है। नाटकों का मंचन न होने के कारण इस विधा से आर्थिक रूप से जुड़े लोग बेहद मुश्किल में हैं।
बनारस के रंगमंच ने देखे हैं कई दौर
मंच पर पहले पुरुष कलाकार ही निभाते रहे स्त्री पात्रों की भूमिका
वाराणसी। मान्यता है कि हिन्दी रंगमंच की शुरुआत नेपाल के मटगांव में सन 1853 में ‘विद्या विलाप’ नाटक की प्रस्तुति से हुई। लेकिन वहां के रंगकर्म नेपाल तक ही सीमित रहे। सन 1959 में भारतेंदु जी के पिता बाबू गोपाल चंद ने ‘नहुष’ नाटक लिखकर मंचित किया। जानकारों की मानें तो हिन्दी नाटकों का नवोत्थान बनारस में भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र और राधेश्याम कथावाचक ने 1871 में अल्फ्रेड नाटक मंडली बनाकर की। उसमें राधेश्याम कथावाचक की प्रमुख भूमिका थी।
माना जाता है कि हिन्दी थियेटर का नवोत्थान वाराणसी के कैंटोमेंट क्षेत्र स्थित एक बंगले में पहली बार हिन्दी नाटक की प्रस्तुति हुई जिसमें भारतेंदु ने भी अभिनय किया। सन 1868 में हिन्दी के अव्यवसायिक रंगमंच आरंभ हुआ। हालांकि इसे लेकर भी कई मत हैं। 1884 में स्थापित बनारस के नेश्नल थिएटर ने पहली बार भारतेंदु रचित राजनीतिक कटाक्ष करते हुए प्रहसन ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ की प्रस्तुति की गयी। उसी दौर में जयशंकर प्रसाद के नाटकों के मंचन ने यह भी साबित किया गया कि उनके नाटक मंचित हो सकते हैं। लगभग 1906 में हिन्दी रंगमंच के विकास में भारतेंदु नाटक मंडली ने सत्य हरिश्चंद्र, स्कंदगुप्त, सुभद्रा हरण, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी आदि का मंचन किया। वह ऐसा दौर था जब स्त्री पात्र की भूमिका पुरुष ही निभाया करते थे।
महिला चरित्रों को पुरुष अभिनेता द्वारा पेश करने का यह सिलसिला बाद में कई दशक तक जारी रहा। इसी दौर में मुंबई और कलकत्ता के व्यावसायिक पारसी थिएटर समूहों ने बनारस में भी अपनी चकाचौंध भरी प्रस्तुतियां कीं। उसके बावजूद काशी के अव्यावसायिक हिन्दी रंगमंच में दर्शकों की कमी नहीं थी। बीएचयू में सन 1939 में स्थापित विक्रम परिषद ने नाटकों में स्त्री पात्र की भूमिका महिला कलाकार से कराने की नींव डाली। उसके बाद भी बनारस में विभिन्न संस्थाओं में महिला पात्र की भूमिका पुरुष ही करते रहे। कुछ दशक बाद इस स्थिति मे बदलाव हुआ और स्त्री चरित्र को महिला आर्टिस्ट निभाने लगीं।
पुराने दौर में काशी के रंगमंच पर नाटक विद्या सुंदर, रत्नावली, पाखंड विखंडन, वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति, धनंजय विजय, प्रेम जोगिनी, मुद्राराक्षस आदि मंचन हुए। 1960-70 के दशक से स्थानीय नाट्य संस्थाओं ने टिकट पर शो आरंभ किया। इसके लिए कई समाजसेवी भी आर्थिक सहयोग करते रहे। वर्तमान के आधुनिक दौर में कई संस्थाओं द्वारा नाट्य कार्यशालाओं का आयोजन होने के कारण सैकड़ों की संख्या में रंगकर्म की नयी पौध जरूर तैयार हुई है। टिकट पर आधारित मंचन के प्रयास भी होते रहते हैं लेकिन कई कारणों से यहां का हिन्दी रंगमंच व्यावसायिक नहीं बन पा रहा है।
सजीव प्रतिक्रिया की भरपाई नहीं डिजिटल थिएटर
लॉकडाउन में कलाकारों को कद्रदानों की दरकार
वाराणसी। वरिष्ठ वयोवृद्ध रंगकर्मी नीलकमल चैटर्जी कहते हैं कि नाटक एक चमत्कारिक, क्रियाशील कला है जो सीधे तौर पर अभिनेता और दर्शकों को जोड़ता है। यह जुड़ाव तत्काल कलाकार को दर्शकों की प्रतिक्रिया का बोध कराता है। एक्टिंग पर आॅडिएंस की अभिव्यक्ति एक्टर को तुरंत प्रेरित करता है और स्वयं के अभिनय की सार्थकता का बोध कराता है। इस लॉक डाउन ने थियेटर की सभी क्रिया-प्रतिक्रिया को भी ताक पर रख दिया है। ऐसे में परफॉर्मर कहां तलाशे दर्शक और नाटक के जरिये कैसे दे संदेश। ऐसे हालात में अचानक थियेटर के डिजिटलीकरण ने सजीव रंगकर्म की तस्वीर बदल दी है। फिल्मी पर्दे की चकाचौंध के आगे हिन्दी नाटकों का टिक पाना संभव नहीं। नाटकों के आॅन लाइन प्रदर्शनों ने भले ही कुछ राहत दी है लेकिन फिलहाल यह प्रयोग के स्तर पर ही है। यदि डिजिटलीकरण हुआ है तो ऐसा सिस्टम भी बने कि जिसने टिकट बुक कराया सिर्फ वही शो देख सके।
वरिष्ठ रंगकर्मी नरेंद्र आचार्य कहते हैं कि फिजिकल डिस्टेंसिंग के साथ कोई भी कार्यक्रम संभव नहीं। नाटक तो सामूहिक कला है। पूरी उम्मीद है कि कोरोना का खतरा पूरी तरह खत्म होने के बाद रंगकर्म अपने पुराने रौनक में लौटेगा। लॉक डाउन के दौरान इंटरनेट पर जब विभिन्न आयोजन हो रहे हैं तो रंगकर्मी इससे पीछे क्यों रहें। गत दिनों आयोजित डिजिटल थियेटर फेस्टीवल उल्लेखनीय और कुछ हद तक राहत देने वाला प्रयास कहा जा सकता है। फिर भी नाटक को सजीव विधा ही है और उसका आनंद भी अनूठा है।
वरिष्ठ रंगकर्मी डॉ. राजेंद्र उपाध्याय का मामना है कि वर्तमान में यह महज कुछ समय की ही बाधा है। थियेटर कभी खत्म नहीं होगा। यह जीवंत विधा लगातार जारी रहेगी। वरिष्ठ रंगकर्मी कमलाकांत मिश्रा, नारायण द्रविड़, विपुल कृष्ण नागर, सुमित श्रीवास्तव कहते हैं कि समय और परिस्थिति के अनुसार कला या कला प्रदर्शन करने वाले अपने आपको समय के अनुसार परिवर्तित नहीं करते हैं तो उनकी कला धर्मिता का कोई औचित्य या उद्देश्य नहीं रहता। इस संकट काल में कोई और माध्यम भी तलाशने की जरुरत है। रंगमंच जीवित रहेगा। इसके जिंदा रहने के तरीके खोजते हुए सिनेमा और टीवी से इसका अंतर बनाए रखने की जरुरत है।
डॉ. रतिशंकर त्रिपाठी, शुभ्रा वर्मा, आलोक पांडेय, अनूप अग्रवाल, ऋत्विक श्रीधर जोशी, संचिता गोस्वामी, मोतीलाल गुप्ता, परितोष भट्टाचार्य, सलीम राजा कहते हैं कि जब लाक डाउन के बाद के आम जीवन की कल्पना ही कठिन है तो रंगकर्मियों की तरफ विचार आते-आते तो भाप भी नहीं बचेगी।
वैसे भी सरकार की तरफ से नाट्यकर्म को लेकर कोई खास रुझान दिखता नहीं। रंगकर्मी अपने काम के अतिरिक्त इधर उधर का फुटकर व्यवसाय करके अपनी जीविका चलाता है अब इस दौर के बाद तो वो भी कठिन ही लगता है। रंगकर्मी न तो मनरेगा मजदूर है और न ही शरणार्थी। उसका एक नैतिक अभिमान है। वह साहित्य और समाज को जोड़े रखने का कार्य नि:स्वार्थ करता है। प्रतीक्षा में है कि समाज उसे भी उसी सम्मान की दृष्टि से देखे जिस दृष्टि से वह अन्य वर्गों को देखता है। रंगकर्मी आम जनता से आशाएं लिए हुए है।