‘लॉकडाउन’ में लोक कलाकारों की आजीविका भी ‘लॉक’, पूर्वांचल में दर्द भरी कहानियों को तान देने वाले गंवई माटी से जुड़े कलाकार हताश

कोरोना संकट के चलते बेहाल हो चुके लोक कलाकारों ने खूंटी पर टांग दिया ढोलक-करताल


बनारसी कवि बिहारी के बिरह के गीतों की जगह बिरहा में अब ‘लॉकडाउन’ का तड़का



विजय विनीत के साथ जितेंद्र श्रीवास्तव व सत्यप्रकाश


वाराणसी। जेठ की तपती दोपहरी...। अंगारे बरसाते सूरजदेव...। अदहन की तरह दहकती धरती...। भीषण गर्मी और प्यास से बेहाल पशु-पक्षी...। उदास और ठूठ सरीखे खड़े पेड़...। अजीब सी खामोशी और सन्नाटा...। चक्रवाती आंधी से हताश किसानों की कातर नजरें... अब कोई नहीं पढ़ पा रहा है। इनकी दर्द भरी कहानियों को आवाज देने वाले गंवई माटी से जुड़े लोक कलाकार हताश हैं। कोरोना संकट के चलते पूर्वांचल के लोक कलाकारों की आजीविका भी ‘लॉकडाउन’ है। अब ढोल की थाप और करताल पर छेड़ी जाने वाली दर्द भरी आवाजें खामोश हो गई हैं। वो आवाजें, जिन्हें सुनकर कलेजा दरक उठता था। इन कलाकारों पर कोरोना महामारी की दोहरी गाज गिरी है। एक तो उनकी कला के कद्रदान छिन गए, दूसरे अपने ‘फन’ के दम पर पेट पालने वालों को दो वक्त की रोटी जुटा पाना कठिन हो गया।



पूर्वांचल में लॉकडाउन ने जीवन से गीत-संगीत सब कुछ छीन लिया है। मानवीय संवेदनाओं के संवाहक की भूमिका अदा कर रहे खाटी लोक कलाकारों की व्यथा काफी गहरी है, मगर कोई सुनने वाला नहीं है। इनमें ज्यादातर वो लोग हैं, जो कम पढ़े-लिखे और सोशल मीडिया से दूर हैं। बनारसी कवि बिहारी ने आजादी के बाद बिरहा विधा में क्रांति पैदा की थी। उन्होंने बिरहा से न सिर्फ अश्लीलता मिटाई, बल्कि इसे संवारा-सुधारा और नया रूप दिया। निर्गुण, भक्तिरस और देश-समाज से संबंधित तमाम पद उन्होंने तैयार किए। बिहारी ने बिरहा को धार्मिक कथाओं में डाला, तब इसे नई पहचान मिली। 



बिरहा की शुरुआत करने वाले आदि गुरु बिहारी के जन्म को लेकर काफी भ्रांतियां हैं। शागिर्द इन्हें गाजीपुर के गोपालपुर का निवासी बताते हैं, लेकिन साक्ष्य के मुताबिक वो चोलापुर के सिंधोरा गांव के रहने वाले थे। दारानगर (वाराणसी) में किराये पर रहते थे और राजगीर मिस्त्री का काम करते थे। हरतीरथ में उनकी ससुराल थी। बाद में उन्होंने बुलानाले पर मकान बनवा लिया था। इनके शिष्य आज भी इनके ठौर पर मत्था टेकने जाते हैं। वो शिष्य भी जो आजकल लॉकडाउन के चलते काफी कड़की में हैं। प्रोग्राम न मिलने की वजह से बेहद दुखी हैं।  



बिरहा गायकी में हीरालाल एक बड़ी हस्ती थे। साल 2019 में उन्हें पद्यश्री मिला। बाद में 12 मई बीमारी से उनका निधन हो गया। इनके साथ बुल्लू की जोड़ी काफी चर्चित रहीं। लोक कवि मंगल की रचनाओं को ये अपने बिरहा में पिरोते थे। इनके समकालीन कलाकार थे काशीनाथ। वे चंदौली जिले के रघुनाथपुर के निवासी हैं। पिछले 47 सालों से वो लोकगीत और बिरहा गा रहे हैं। कहते हैं, ‘पहले खाने-पीने का समय नहीं मिलता था। शादी-विवाह-सगाई से लगायत मरनी तक में उनकी टीम गाने-बजाने जाती थी। लॉकडाउन के चलते सारे प्रोग्राम रद हो गए हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन भी प्रोग्राम नहीं दे रहा है। लोक कलाकारों के सामने अब रोजी-रोटी का बड़ा संकट आ गया है। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी प्रभावित हो रही है।’



काशीनाथ के सात बच्चे हैं। तीन बेटे और चार बेटियां। दो की शादी हो चुकी है। बाकी पढ़ रहे हैं। कुछ नौकरी की तलाश में हैं। 61 बरस के हो चुके हैं, मगर इनकी जिंदगी का बड़ा टॉस्क पूरा नहीं हो सका है। वो कहते हैं, ‘पूर्वांचल के सभी लोक कलाकार लगातार अपनी समस्याओं को लेकर हमें फोन कर रहे हैं, लेकिन समझ में नहीं आ रहा कि किस तरह से उनकी मदद करें?’ बिरहा के जाने-माने गायक काशीनाथ यादव लॉकडाउन में लॉक हो गए हैं। इन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि लोक गायिकी का लॉक आखिर कब टूटेगा?



पूर्वांचल के लोक कलाकारों के जत्थे में पांच से सात गायक होते हैं। इनमें कुछ कोरस गाने वाले होते हैं तो कुछ ढोल-करताल बजाने वाले। ज्यादातर साजिंदे गरीब और भूमिहीन हैं। ये लोक कलाकार कार्यक्रमों से ही पेट पालते हैं। जो खेती भी करते हैं तो उनकी खरीफ की फसल अबकी चौपट हो चुकी है। बारिश के दिनों में लौकिक देवताओं के सिंगार के समय बिरहा गाने की प्रथा बहुत पुरानी है। अब इसमें ताल, उड़ान, कव्वाली, सैर, पतवा, धुन, फिरकी वाली, टेरी, छंद, गजल और दोहा भी शामिल हो गया है। 



गाजीपुर के नामी बिरहा गायक काशीनाथ यादव एमएलसी रहे चुके हैं। उन्होंने अपनी विधा अब तक नहीं छोड़ी है। वो कहते हैं, ‘सरकार को लोक कलाकारों के भविष्य के लिए कोई कदम उठाना चाहिए। पूर्वांचल के भोले-भाले कलाकार तो अपनी बात रख पाने में सक्षम नहीं हैं। मुझे गांव से भी फोन आ रहे हैं कि सभी लोग परेशान और सभी मदद की उम्मीद में बैठे हैं। सूचना विभाग से लगायत संस्कृति विभाग के अफसरों को फोन करके समस्याएं बता रहे हैं कि लोक कलाकारों के घर में सामान खत्म हो गया है, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है।’



चंदौली के मछरियां गांव की पूजा बिंदेश्वरी नवोदित चर्चित गायिका हैं। वो कहती हैं, ‘बड़े शहरों में तो लॉकडाउन के दौर में आॅनलाइन कन्सर्ट वगैरह हो रहे हैं, लेकिन दूर-दराज के गांवों में रहने वाले लोक कलाकार उसमें कैसे भाग ले सकते हैं? इस समय विकट समस्या और परेशानी हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? हम तो छोटे से गांव में रहते हैं। इंटरनेट वगैरह के बारे में उतना जानते नहीं है। हर लोक कलाकार के लिए आॅनलाइन कार्यक्रम पेश कर पाना संभव नहीं है।’



चर्चित लोक गायिका अनीता राज पूजा बताती हैं कि उनके सभी कार्यक्रम रद हो चुके हैं। उनके दल के साथी खेती और मजूरी करते हैं। दिक्कत तो सबको है। जो कलाकार सिर्फ कला पर निर्भर हैं, उनकी मुश्किलें बड़ी हैं। हालांकि लॉकडाउन में सबके सामने उदर पोषण का संकट है। सरकार को चाहिए कि वो लोक कलाकारों के लिए कोई ठोस प्रबंध करे। आखिर वे कहां जाकर किससे मांगेंगे?



सिर पर रंग-बिरंगा गमछा, सफेद कुर्ता-धोती और हाथ में करताल लेकर पूर्वांचल का लोकगीत और बिरहा गायन करने बनारस के दुर्जन यादव इन दिनों हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। ये हर महीने पांच से दस कार्यक्रम पेश करते रहे हैं। गाने के लिए अक्सर बाहर भी जाते रहे हैं। लोक गायकों के लिए कमाई का सबसे अच्छा सीजन मार्च-अप्रैल होता है। लॉकडाउन में वो निकल चुका है। मई में शादी और मेले नहीं हुए। इस वजह से कमाई जाती रही। इनके दल के हर कलाकार महीने-दो महीने में दस से पचास हजार तक कमा लेते थे। अब हाथ खाली है।



चर्चित बिरहा गायक विजय लाल यादव  कहते हैं, ‘अभी हाथ में बिलकुल पैसा नहीं है। हमें सांस्कृतिक विभाग से भी कोई मदद नहीं आई। दूसरे लोक कलाकारों से भी फोन आ रहे हैं, जो समझते हैं कि हम उनकी बात आगे रख सकते हैं। हमारे ग्रुप में कई उम्रदराज कलाकार भी हैं, जो बैठकर बजाते हैं। वे कोई और काम नहीं कर सकते। वे राशन कार्ड पर मिलने वाले अनाज पर गुजारा कर रहे हैं।’



पूर्वांचल के लोक गायकों पर पुस्तक लिख रहे जाने-माने कवि-लेखक डा. जयशंकर जय कहते हैं कि काशी में गीत-संगीत कला लोकरंजन का मात्र साधन नहीं, भक्तिभाव और अराधना रही है। ढोल, तबला, हारमोनियम की अनुगूंज हर गांव-गली में सुनने को मिलती रही है। इस साज-बाज को बजाने वाले इन दिनों संकट में हैं। गरीबों, मजदूरों, किसानों के अलावा लॉकडाउन का सर्वाधिक प्रभाव लोक कलाकारों पर पड़ा है। इनके सामने रोजी-रोटी की समस्या पैदा हो गई है। सरकार को इनकी मुश्किलों पर गौर फरमाना चाहिए।



बनारस के आदमपुर इलाके के कोनिया वार्ड में बिरहा गायकों का जखेड़ा है। लोक गायक रामदेव यादव ने साल 1980 में यहां आकर बसे थे। इनके निधन के बाद छोटे भाई सचाऊ खलीफा, पप्पू यादव, प्रमोद यादव, पारस यादव, विजय लाल यादव, जगदीश कवि, गिरीश, शोभनाथ चौधरी बिरहा गायिकी से जुड़े हैं।  इनके अलावा रामजनम टोपीवाला, ज्ञानी यादव, मोहन यादव (चुनार) और डा. मन्नू यादव के बिरहा की तान टूट गई है। इनके ढोल, हारमोनियम, करताल खूंटी पर टांग दिए गए हैं। सब के सब बेरोजगार हैं और सभी के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गई है। इन कलाकारों का कहना है कि वे सुबह घरों से निकलते हैं और जो मिलता है वो शाम को लाकर अपने घरों का चूल्हा जलाते हैं। इस कोरोना की वजह से आज हमारे परिवारों के लिए मुसीबत खड़ी हो गई है। हमने विश्व भर में लोकगीत का नाम किया है और इस मुश्किल घड़ी में हम सरकार से मांग करते हैं कि हमारी सहायता करें ताकि हम इस दुख की घड़ी से उबर सकें।



डा. जयशंकर कहते हैं, ‘होली के बाद मार्च, अप्रैल और मई के महीनों में शादियां ज्यादा होती थीं। वैवाहिक कार्यक्रम टाले जा चुके हैं। सभी को भविष्य की चिंता है। लोक कलाकार अपने पेशे को लेकर आशंकित और लाचार हैं। सरकार को चाहिए कि वो लोक गायकों का संकट दूर करे, ताकि उनके ढोलक की थाप और हारमोनियम-करताल की गूंज बजती रहे।’




अब विलुप्त हो रही है बिरहा की लोक परंपरा



वाराणसी। ग्रामीणांचलों में मनोरंजन का सबसे सस्ता और सरल साधन है बिरहा। शहर में दूध-दही, सब्जी और गन्ना बेचकर जब देहात का आदमी शहर से घर लौटता है, तब वो अपनी थकान मिटाने के लिए गाता है बिरहा। गायन की यह ऐसी विधा है, जिसमें न किसी श्रोता की जरूरत पड़ती है, न प्रशंसा की। कभी बैलगाड़ी पर तो कभी साइकिल पर बिरहा गाते और टेका लगाते दिख जाते हैं लोग।



वरिष्ठ पत्रकार पदमपति शर्मा बताते हैं कि बिरहा की उत्पत्ति बिरह गीतों से हुई है। प्राचीनकाल में इसे पहले महिलाएं गाती थीं। तब बिरहा में नैहर की याद और ससुराल में उत्पीड़न का दर्द झलकता था। बाद में इस विधा को पुरुषों ने अपने नाम कर लिया। लाचार होकर महिलाएं कजरी गाने लगीं। बिरहा पर पुरुषों ने कब्जा जमाया तो उसकी कोमलता खत्म हो गई और अश्लीलता भर गई। यह विधा अब पिछड़े वर्ग की कुछ जातियों का प्रधान गीत हो गया है। संगीत की पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली शिष्य परंपरा आज भी बनारस में बिरहा के रूप में जीवंत है। इन दिनों लॉकडाउन के चलते बिरहा दंगल बंद है, इसलिए लोक कलाकार संकट में हैं। 




कजरी को पहले डिस्को ने दबोचा और अब कोरोना ने


कजरी के नाम पर परोसी जा रही अश्लीलता व फिल्मी गीत


वाराणसी। कोरोना संकट ने पूर्वांचल के अनेक जिलों में गाई जाने वाली कजरी की लय पर तगड़ी चोट की है। इसे गाने वाले मायूस हैं। चैती, होरी से भी लोकप्रिय है कजरी। भारतेंदु और प्रेमधन सीरीखे साहित्यकार भी इस विधा के दीवाने थे। काले मेघ जब आसमान में उमड़ने-घुमड़ने लगते थे, तब ढोलक की थाप पर छेड़ी गई कजरी की दर्द भरी आवाज सुनकर कलेजा दरक उठता है। अषाढ़ से लेकर कुवार तक कजरी के सुर हर किसी को लुभाते रहे हैं।  



वैसे तो कजरी बनारस, मीरजापुर, जौनपुर और अवध के कुछ ग्रामीण इलाकों में काफी प्रचलित रही है। मीरजापुरी कजरी की टेक राम व हे हरी और बनारसी कजरी की टेक सांवरिया या फिर सांवर गोरिया होती है। कुछ कजरी गीतों की टेक में लालन भी मिलती है। जीवन का शायद ही कोई पक्ष ऐसा होगा, जो कजरी में छूटा हुआ होगा।
एक वो भी समय था जब कवि गुरु रविंद्रनाथ ठाकुर बनारसी कजरी सुनने गायक भैरा हेला की झोपड़ी में पहुंच गए थे। हेला मेहतर थे, लेकिन विद्वतजनों के बीच सम्मानित थे। पूर्वांचल में कई स्थानों पर कजरी मेले भी लगते रहे हैं। कवि मंगल बताते हैं कि बनारस की कजरी लोक गायन की अपनी परंपरा बनाए हुए रही है। यह विधा शास्त्रीय सांचे में ढलकर शिखर तक पहुंची है। हालांकि कजरी की परंपराएं धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। बनारस में अब बनारसीपन ढूंढे नहीं मिल रहा है। न वेष है, न भूषा है। न चाल-ढाल है, न अलमस्ती है। ऐसे में कजरी गायक मिलेंगे भी तो कहां? 



कजरी की लोकप्रिय गायिका सरोज वर्मा बताती हैं, ‘पहले कजरी के अखाड़े हुआ करते थे। उस्तादों व शागिर्दों के सामने अखाड़ों में जमकर लाकडाट चलती थी। सवाल-जवाब होते थे। हल्के-फुल्के नहीं, ऊंचे दर्जे के साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर के होते थे। साल भर की मुश्किलें और घटनाएं कजरी की विषय बन जाती थीं। बनारसी गायकों ने सत्याग्रह आंदोलन के समय भी हजारों कजरी लिखी और उन्हें दंगलों में पेश किया। लॉकडाउन कोरोना संकट के बाद हुआ है, लेकिन कजरी की टेक सालों पहले ही धीमी पड़ने लगी थी। अब कजरी के नाम पर जो कुछ सुनाई देता है, वो कजरी नहीं है। कजरी गायकों पर अब फिल्मी भूत सवार हो गया है। लगता है कि डिस्को ने भी इसे दबोच लिया है।’



लॉकडाउन की भेंट चढ़ा भाड़ों का तमाशा


बनारस के अजूबा और बबुरी के मस्सन भाड़ की टूट रही परंपरा


वाराणसी। ग्रामीण अंचलों में लोगों का मनोरंजन करने वाले भांड़ परंपरा लगभग विलुप्त सी हो गई है। कुछ गिनी-चुनी भांड मंडलियां बची हैं पूर्वांचल में। जो हैं भी वो आधुनिकता की चकाचौध में गुमनाम हो गई हैं। इन भाड़ मंडलियों को अब कोरोना ने कचर दिया है। एक वो भी वक्त था जब भांड़ और हिजड़ों का नाम लेते ही बनारस व लखनऊ याद आता था। लखनऊ के किन्नर लोगों की नकल उतारा करते थे। बनारसी भांड़ नौटंकी, नृत्य और गायन में दक्ष थे।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार बताते हैं कि तैमूर लंग के दरबारी सैयद हुसैन ने भांड़ परंपरा शुरू की थी। तैमूर लंग ने सबसे पहले हुसैन को भांड़ की उपाधि से नवाजा था। बनारस में भाड़ मंडली स्थापित करने का श्रेय अजूबा भाड़ के नाम पर दर्ज है। अजूबा का असली नाम था मौलाबख्श। अजूबा ने काशीराज ईश्वरी नारायण के दरबार में अपने हुनर का प्रदर्शन किया था। तब राजा के मुंह से निकला था कि बड़ा अजूबा आदमी है यह।



बनारसियों की खुशमिजाजी के चलते करीब पांच दशक तक भांड मंडलियां छायी रहीं। शादी-विवाह के अवसरों पर इन्हें बुलाया जाना पहले शान की बात समझी जाती थी। चंदौली के उतरौत गांव में बचऊ सिंह भाड़ों के बड़े कद्रदान थे। वो हर साल गांव में भाड़ मंडलियां बुलाते थे। भाड़ों की कला को आगे बढ़ाने में बचऊ सिंह का नाम सबसे ऊपर रहा है। भाड़ मंडिलयों में नाटक और नृत्य दोनों का मंचन होता था। भाड़ जनता की रुचिओं के मुताबिक कार्यक्रम पेश करते थे। कभी रामलीला तो कभी नाट्य मंचन के जरिए अपने जादूगरी दिखाते थे।
बनारस की अधिसंख्य भांड़ मंडलियों का अस्तित्व अब मिट गया है। चंदौली के बबुरी में सिर्फ एक भांड़ मंडली बची है। इसे संचालित कर रहे हैं राम निहोर सिंह के पुत्र विनोद कुमार सिंह। उनके पिता ने पूर्वांचल के प्रसिद्ध भाड़ मस्सन से उनकी मंडली खरीदी थी। वो बताते हैं कि बनारस में पहले मुकुंदी और मारकंडेय भाड़ का काफी बोलबाला था। चंदौली में मस्सन की भाड़ मंडली का बड़ा नाम हुआ करता था। मुकुंदी के 360 चेले थे। सुमेर और बच्चा लाल को बाद में काफी शोहरत मिली। अब गिने-चुने लोग ही भाड़ मंडलियों को बुलाते हैं। भाड़ मंडलियों के कुछ कलाकार मारकंडेय भाड़ की तरह अब शायरी करने लगे हैं। इस साल कुछ उम्मीद बंधी थी, लेकिन लॉकडाउन ने उसे तोड़ दिया। भविष्य में प्रोग्राम नहीं मिलेंगे तो वो भाड़ मंडली को तोड़कर नया काम शुरू करेंगे।  


लॉकडाउन में भोजपुरी गाने में छलका प्रेमी जोड़ों का दर्द


वाराणसी। कोरोना वायरस के कारण पूरा भारत लॉकडाउन है। इस बीच कोरोना के बाद लॉकडाउन पर भी भोजपुरी गाना रिलीज हुआ है। यह भोजपुरी गाना तेजी से सोशल मीडिया पर शेयर किया जा रहा है। यह गाना सिंगिंग शो ‘बिग गंगा भक्ति सम्राट’ के विजेता रह चुके गोलू राजा ने गाया है। लोक गीत के लिए मशहूर गोलू राजा का लॉकडाउन पर बना यह गाना वायरल हो रहा है।
इस गाने के बोल हैं...‘कइसे मिलल जाई लॉकडाउन में।’ इस गाने में गोलू राजा ने लॉकडाउन के बीच दो प्रेम करने वालों के दर्द को बयां किया है। इससे पहले कोरोना वायरस को लेकर कई भोजपुरी समेत कई भाषाओं में गाने बन चुके हैं। इस गाने को भी गोलू राजा ने अपने खांटी भोजपुरी अंदाज में गाया है। ‘बिहाने बिहाने’ और ‘नहले पे दहला’ में प्रतिभागी के तौर पर शामिल हो चुके गोलू राजा को भोजपुरी माटी की गायकी के लिए जाना जाता है। अक्सर धोती-कुर्ते में नजर आने वाले गोलू राजा बिग गंगा चैनल पर आने वाले ‘भक्ति सम्राट’ शो के विजेता रह चुके हैं। उनके कई गाने हिट रहे हैं, जिसमें ‘ओठवा के ललिया’, ‘नाक के नथुनिया’ भी शामिल है।


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