लबों की जुंबिश से घुल जाने वाली मिठाई बेरंग, लाकडाउन में सपना हो गईं बनारसी मिठाइयां, फीका पड़ा बाजार


कोरोना के आतंक से दुकानों के शटर हो गए जाम 


लाकडाउन ने मिठाई के ‘विश्वकर्मा’ को दी धोबी पाट


मीठा बनाने वाले घरों में पैदा कारीगरों की फौज से खौफजदा 



विजय विनीत


वाराणसी। राष्ट्रीयता में पगी बनारसी मिठाइयां लाकडाउन में सपना हो गई हैं। शहर में मिठाई की दुकानें बंद हैं। बाजार खुले भी, लेकिन मिठाई की दुकानों पर ताला लगा हुआ है। मुश्किल यह है कि बनारसी मिठाइयां बनाने वाले कारीगर अपने घर लौट गए हैं। दूसरी बात कोरोना के चलते लोग मिठाइयां खरीदने के लिए भी तैयार नहीं हैं। बनारस ऐसा शहर है जहां देवी-देवता तब तक खुश नहीं होते, जब तक उन्हें मिठाइयों का भोग न लगाया जाए।



बनारस में मिठाई की सैकड़ों दुकानें हैं, लेकिन ज्यादातर बंद हैं। जो खुल भी रही हैं वो भी सिर्फ नाम के लिए। कोरोना ने मिठाई कारोबारियों को तगड़ी चोट दी है। इस वजह से वो भारी घाटे में चले गए हैं। बनारस के वरुणापार इलाके में राजाश्री मिष्ठान भंडार। देसी घी में बनीं इस दुकान की मिठाइयां काफी पापुलर हैं। देश में ही नहीं, विदेश में भी। राजश्री का गुलाब मेवा लड्डू हो या फिर मेवा बाइट। इन मिठाइयों का स्वाद सिर पर चढ़कर बोलता है। बूंदी के लड्डुओं की बात ही न कीजिए। एक बार इसे चखने का चस्का लग गया तो डाइबिटीज का खौफ भी हवा में उड़ा देंगे। लाकडाउन में राजश्री की मिठाइयां न मिलने से लोगों का मूड आफ है। दुकान सिर्फ तीन दिन खुल रही है। गिनी-चुनी मिठाइयां बन रही हैं, लेकिन खरीदार हौसला जुटाने में लगे हैं। 



राजश्री के मालिक राज कुमार गुप्ता का दुख यह है कि कोरोना ने समूचे कारोबार का भट्ठा बैठा दिया है। दुकान खुल जरूर रही है, लेकिन घाटे का सौदा कितने दिन करेंगे? खोवा और छेने की मिठाइयां रिस्की हो गयी हैं। ज्यादा दिन नहीं रख सकते इन्हें। मिठाई की दुकानें जब तक रोज नहीं खुलेंगी, कारोबार घाटे में रहेगा। अब भी यह कच्चा रोजगार है। दो महीनों के लाकडाउन में इतना लंबा घाटा हो चुका है, जिसे पूरा कर पाना कठिन हैं। मिठाई के कारोबार को पटरी पर लाने में सालों लग जाएंगे।
बनारस के सेनपुरा में है राजेश स्वीट्स। लाकडाउन के चलते दुकान का ताला लाक है। मालिक रोहित यादव के पास रोजाना सैकड़ों ग्राहकों के फोन आ रहे हैं कि अब तो खोलिए। लेकिन वो करें क्या? इनके दुकान की रसमलाई और छेना बड़ा लोगों के मुंह लगे हंै। प्रशासन के निर्देशानुसार रोहित हफ्ते में तीन दिन दुकान खोल रहे हैं, लोग अभी दुकान तक आने के लिए वार्म अप हो रहे हैं। जाहिर है शरीर के साथ मन का इंजन रवां होने में वक्त लगेगा।  कोरोना का खौफ अभी बरकरार है। जब तक संकट रहेगा, दुकानदारी की आग ठंडी रहेगी।



रोहित यादव कहते हैं लाकडाउन हमारे मिठाई कारोबार के लिए काला अध्याय है। बोले, लाकडाउन में हर कोई घरों में कैद रहा। सबने मिठाइयां बनानीं सीख लीं। इस संकट ने मिठाइयों के कारीगर रातों रात जैसे खड़ा कर दिया। अब तो हमे हुनर बता रहे हैं लोग। बनारस  के लोग अब रसमलाई, रसगुल्ला, गुलाब जामुन से लगायत तरह-तरह के लड्डू बनाना सीख गए हैं। देखिए फेसबुक और व्हट्सएप पर मिठाइयां बनाने की कितनी सारी रेसिपी काशीवासियों ने डाल रखीं हैं। जब सभी मिठाई बनाएंगे तो हम किसको खिलाएंगे। हमारी पूछ तो खत्म समझिए। ये दोहरी मार है कोरोना की। आशंका तो यह है कि अब हमारे पास वही कस्टमर आएंगे, जिन्हें गिफ्ट में देने के लिए फैंसी मिठाइयां चाहिए होंगी।



रोहित कहते हैं कि हमारा दर्द सोशल मीडिया ने ज्यादा बढ़ा दिया है। वो कहते हैं, -यू-ट्यूब और डेली मोशन साइट्स हमारे कारोबार के बड़े दुश्मन हैं। बनारस के लोग इन साइट्स के सहारे मिठाई बना रहे हैं।  सजावट भले न हो, पर मिठाई का सुख तो ले रहे हैं। यह हमारे लिए शुभ संकेत नहीं। अपनी रचना पराए के लुभावन डिजाइन पर भारी पड़ जाती है। रोहित ने स्वार्थ की फिलासफी समझाई। 



काशी विद्यापीठ के पास है शिवम मिष्ठान भंडार। इसके मालिक हैं दिनेश चक्रवाल। महात्मा गांधी जब काशी विद्यापीठ आते थे, तब इनकी दुकान से ही मिठाइयां आजादी के रणबांकुरों को परोसी जाती थीं। अभी इनकी दुकान के ताले नहीं खुल पाए हैं। इन्हें भी अब इस बात का मलाल है कि लाकडाउन में लोग खुद मिठाइयां बनाना सीख गए हैं। दिनेश कहते हैं,-गुलाब जामुन, रसमलाई, इमरती, जलेबी से लेकर चाट-गोलगप्पा बनाने का हुनर अब सबके पास है। बनारस के लोग खुद सक्षम हो गए हैं, हमारे पास क्यों आएंगे? लाकडाउन के दौरान अगर यूपी में सबसे अधिक मिठाइयां बनाने का प्रयोग किसी शहर में हुआ तो वो था बनारस। यू-ट्यूब ने हर किसी को हलुवाई बना दिया। हमारे कारीगर भाग गए और इधर लोग खुद मिठाइयां बनाने लगे। फिर क्यों कोई आएगा हमारे पास।



कुछ इसी तरह का दर्द शहर के जाने माने बंगाल स्वीट्स के मालिक भगवान दास को भी है। वो कहते हैं, -बनारस शहर में अब रसगुल्ला, गुलाब जामुन, खीर मोहन, चमचम, मलाई चप, गोपाल भोग, खोवा रोल, बरफी, काजू केसर, पिस्ता रोल, गोंद, बेसन और बूंदी के लड्डू बेच पाना बेहद कठिन है। हमारी मिठाइयों पर किलर कोरोना की नजर जो लग गई है।
बनारस में मिठाई की कई और दुकानें हैं जो किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। चाहे वो कचौड़ी गली का राजबंधु हो या फिर ठठेरी बाजार का राम भंडार। शिव भंडार, मधुर जलपान, नारायण मिष्ठान भंडार, सत्यनारायण मिष्ठान भंडार, कृष्णा मिष्ठान भंडार से लगायत जलजोग की मिठाइयों के स्वाद से हर बनारसी वाकिफ है। इन दुकानों पर ऐसी मिठाइयां बिकती रही हैं, जिनका नाम सुनते ही लोगों की जुबान से लार टपकना शुरू हो जाता है।



बंगाल स्वीट्स, क्षीर सागर और जलजोग का रसगुल्ला बनारसी मिठाइयों के असली स्वाद का अहसास कराता है। पश्चिम बंगाल से बढ़कर यहां रसगुल्ले बनते-बिकते हैं। लेकिन कोरोना के चलते मिठाई की दुकानें बंद हो जाने की वजह से जहां पहली बार रसगुल्ला और संदेश जैसी लोकप्रिय मिठाइयां बाजारों और घरों से गायब हो चुकी हैं, वहीं इसके चलते रोजाना औसतन हजारों लीटर दूध पानी के भाव बेचना पड़ रहा है।



पूर्वांचल में आमतौर पर ताजा दूध के कुल उत्पादन में से लगभग 60 फीसदी की खपत मिठाई की दुकानों में ही होती थी। लॉकडाउन के चलते इन दुकानों के बंद होने से डेयरी उद्योग को रोजाना करोड़ों  का नुकसान झेलना पड़ रहा है। दूध की बर्बादी के चलते मचे हाहाकार के बाद प्रशासन ने मिठाई विक्रेताओं को हफ्ते में तीन दिन दुकानों को खोलने की अनुमति दे दी है। बनारस में मिठाई की दुकानें करीब डेढ़ हजार के आसपास हैं। इनका कोई संगठन नहीं है। मिठाई निर्माताओं की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उन्होंने दूध की सप्लाई करने वाली कई सहकारिता समितियों और स्वनिर्भर समूहों के साथ सालाना समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। ऐसे में उनको दूध तो मिल रहा है। लेकिन दुकानें बंद होने की वजह से उनको समझ में नहीं आ रहा है कि इस दूध का आखिर वे करें क्या? नतीजतन, रोजाना दूध बर्बाद हो रहा है। इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में गाय-भैंस रख कर दूध की खुदरा बिक्री करने वाले लोगों की कमाई भी ठप हो गई है। परिवहन की दिक्कतों के चलते लोगों को पानी के भाव दूध बेचना पड़ रहा है।



मिठाई के कारोबारी विकास चक्रवाल कहते हैं, ‘कुछ सप्लायर दुकानों तक दूध भेज रहे हैं तो कई लोग परिवहन की दिक्कतों के चलते ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन सालाना समझौता होने की वजह से दुकान मालिकों को इस दूध के लिए भुगतान करना पड़ रहा है। दुकानें बंद होने से इतनी भारी मात्रा में आने वाले दूध का कोई इस्तेमाल नहीं है। लिहाजा इसे किसी तरह खपाना पड़ रहा है। अचानक हुए लाकडाउन के वक्त मिठाई विक्राताओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। कुछ दुकानदारों ने लोगों को फोकट में मिठाइयां बांटी तो कुछ ने गाय-भैंस और सड़क के कुत्तों को खिला दिया।’



बनारस के चौक में है खोवा मंडी। यहां एक बड़े कारोबारी हैं अमित शाह। वो कहते हैं, दस फीसदी धंधा नहीं बचा है। छेना, खोवा, पनीर, दूध सब कुछ इफरात मिल रहा है। लाकडाउन के दौरान बनारस के घरों में न जाने कितने हलुवाई पैदा हो गए? खुद ही खोवा, छेना-पनीर बना लिए। मिठाइयां बनानी सीख लीं। आखिर हम क्या करें? यू-ट्यूब वालों ने तो हमारे पेट पर ही लात मार दिया। सोशल साइट्स वालों ने हमें तगड़ी चुनौती दे दी है। आम दिनों में खोवा मंडी में 20-25 कुंतल खोवा हाथों-हाथ बिक जाता था। शादी-विवाह के दिनों में आपूर्ति दोगुनी हो जाया करती थी। मिठाइयां बना भी लें तो बेचें किसे? बड़ा संकट है।


बनारस में एक मिठाई की दुकान के मालिक बलराम कहते हैं, "लॉकडाउन के एलान के बाद उनका एक लाख रुपये का स्टॉक बर्बाद हो गया। हम चाहते हैं कि सरकार हमें ब्याजमुक्त कर्ज दे। तभी हमारे धंधे में जान आ पाएगी। हम चाहते हैं कि मिठाइयों को भी मिड डे  मील जैसी जरूरी वस्तुओं की सूची में शामिल कर लिया जाए।"


रक्सहवा कोहड़े के उत्पादक भी परेशान हैं। गर्मियों के सीजन के लिए उन्होंने कोहड़े उगाकर अपने घर भर लिए थे। अब बेचना मुसीबत है। कहां ले जाएं? ज्यादा दिनों तक उसे स्टोर भी नहीं कर सकते। सड़ने लगेगा। इस कोहड़े को तो पशु भी नहीं खाएंगे। इसी कोहड़े से पेठा और तरह-तरह की मिठाइयां बनाई जाती थीं।



बनारस के सोनारपुरा में एक मिष्ठान भंडार के मालिक दोपहर के लगभग एक बजे अपने दुकान को समेटते हुए वहां काम करने वाले छोटे बच्चे पर झल्लाते हुए कहते हैं कि जल्दी से काम खत्म करो तो कारखाने में जाकर वह भी आराम कर लें। उनकी दुकान कैसी चल रही है और मिठाइयों की सप्लाई कैसी है? इस बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि मिठायों की सप्लाई कैसे पूरी होगी, जब कारीगर ही नहीं है? कारखाने में बस दो कारीगर हैं, जिनपर मैं काम का ज्यादा दबाव नहीं डाल सकता हूं। इनमें से एक को कारखाने में रखा है और दूसरे को दुकान में मेरा हाथ बंटाने के लिए रखा है। उधर, मिठाई की दुकान खुलने से खुश ग्राहकों को दुकानों पर पहुंच कर मायूसी हो रही है। कचहरी गोलघर पर मिठाई खरीदने आए एक दंपति ने बताया कि हम दोनों को ही मिठाइयां बहुत पसंद है। इतने दिनों बाद मिठाई की दुकान खुलेगी, सुनकर हमें बहुत खुशी हुई थी। लेकिन दुकान पर आकर हमें बुरा लग रहा है, क्योंकि यहां हमारी पसंद की कोई मिठाई नहीं है। हमें खाली हाथ ही वापस घर जाना पड़ रहा है। लॉकडाउन के दौरान ऐसी परिस्थिति भी नहीं है कि हम किसी और दुकान में जाकर मिठाई खरीदें।



मिठाइयों के शौकीनों को बुलाता है बनारस


लुप्त हो गया है मिठाइयों का सुनहरा युग, मिट गई पुरानी रवायत


मिठाइयों के लिए बनारस यूं ही फेसम नहीं है। राजश्री की मिठाइयां दुनिया भर में सैर करती हैं। गुलाब मेवा लड्डू और गुलाब बाइट के स्वाद के शौकीन सिर्फ इस दुकान की ओर ही रुख करते हैं, लेकिन रसगुल्ले का टेस्ट तो बंगाल स्वीट्स पर पहुंचकर मिल पाता है। क्षीर सागर और जलजोग का रसगुल्ला भी बनारसियों को दीवाना बना चुका है। रसवंती के शौकीन है तो ठठेरी बाजार में रसवंती मिष्ठान भंडार की ओर रुख करना पड़ेगा।


बनारस में अलग-अलग मिठाइयों के कई-कई फ्लेवर हैं। मालपुआ के शौकीन हैं तो लोहामंडी के कृष्णा भंडार की ओर रुख करें। पलंगतोड़ और मलाईपुरी चाहिए तो चौक में मारकंडेय की दुकान शौकीनों को अपनी तरफ खींचती है। ठठेरी बाजार में राम भंडार का रसगुल्ला भी फेमस है। राजभोग के शौकीन हैं तो राजबंधु मिष्ठान भंडार और खीर मोहन के लिए शिव भंडार मिष्ठान प्रेमियों को बुलाता है। बनारस में मिठाइयों की जितनी प्रसिद्ध दुकानें हैं, सबकी अपनी बड़ी खासियत है।
बनारस में मिठाई बनाने की कला उस दौर में विकसित हुई थी, जब बाबा भोले काशी आए। बौद्ध काल में मिठाई बनाने की कला चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। लेकिन नए युग का सूत्रपात 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में एक नए ढंग से बनारस की मिठाइयों को संवारने का काम शुरू हुआ। राम भंडार ने आजादी के आंदोलन में तिरंगी बरफी बना कर देश के नेताओं और आजादी के रणबांकुरों को अपनी ओर आकर्षित किया। अंग्रेज अफसर नाराज भी हुए, लेकिन वो दांत पीसकर रह गए। बाद में इस दुकान ने राष्ट्रीय मिठाइयों की बड़ी श्रृंखला खड़ी कर दी, जिसमें तिरंगी बरफी, गांधी गौरव, मोती पाक, जवाहर लड्डू, मदन मोहन, बल्लभ संदेश उस दौर में खूब मशहूर हुए।



मजे की बात यह है कि केसर, बादाम और पिस्ते से बनी मिठाइयां उस समय काफी सस्ती थीं। दो रुपये सेर के भाव वो बिका करती थीं। राष्ट्रीय गौरव, तिरंगी बर्फी और तिरंगा जवाहर लड्डू के लिए रंग का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। हरे रंग के लिए पिस्ता, सफेद के लिए बादाम और केसरिया के लिए केसर का प्रयोग किया जाता था। बनारस के चौक में शाम होते ही इत्र-फुलेल और फूल-मालाओं से सड़कें महक उठती थीं। भंग के रंग में, चौचक मिष्ठन ग्रहण कर शौकीन लोग चौक के फुहारे पर पान खाते थे। तवायफों के कोठे से जब ठुमरी और चैता की सुरीली आवाजें सुनाई देती थीं, तब लोग झूम उठते थे।
वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र दुबे कहते हैं कि होटल संस्कृति के दौर में वनस्पति घी ने देसी घी पर ऐसा डाका डाला है कि हम सब सिर्फ नाम के मिठाई खा रहे हैं। बनारस में मिठाई के तमाम कारोबारी उस दौर के प्रशंसा-पत्र आज भी दिखाते हैं जो उनके पूर्वजों को राजाओं-महाराजाओं ने दिए थे। पुराने जमाने में बनारसी नान खटाई, नकुल और चिउड़ा भी बादाम व पिस्ते का बनता था। बादाम की इमरती, रस पियाव, गुपचुप, नीम की बर्फी, अकबरी लोकप्रिय मिठाइयां हुआ करती थीं। अब इन मिठाइयों का नाम सुनने को नहीं मिलता है। बनारस में गुलाब शंकरी काफी लोकप्रिय थी। ये मिठाई लड्डूओं की शक्ल में बनती थी, लेकिन खाई नहीं जाती थी। इसे पानी में डालकर पिया जाता था। गुलाब शंकरी के दो लड्डू दिमाग को तरो-ताजा रखने के लिए काफी हुआ करते थे।
राजेंद्र कहते हैं, ‘मिठाइयों का जब स्वर्णिम युग था तब दोना चला करता था। युग बूढ़ा हुआ तो रहट्ठे की झपोली चली। वनस्पति घी ने जब देसी घी की मिठाइयों के साथ सौतिया डाह की तो ताड़ की पिटारी ने अपने भीतर दोना को बंद कर लिया। आज वनस्पति का बाजार गर्म है तो दफ्ती की बनी पिटारियों में मिठाइयां संजोई जा रही हैं। सिद्धेश्वरी मुहल्ले में फलहार की एक ऐसी दुकान हुआ करती थी, जहां मिठाई बनाते समय कारीगर के शरीर का एक बूंद पसीना अगर चू गया तो सारी मिठाइयां गायों को खिला दी जाती थीं। देशी घी, खांडसारी और गंगाजल से मिठाई बनाने की रवायत अब बनारस से लुप्त हो चुकी है।’


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