कोविड से कहीं खतरनाक है चाइना का ‘टिक-टॉक’ वायरस, दीवानगी ऐसी कि कुछ भी कर गुजरने को तैयार, अश्लीलता और मौत का नंगा नाच


-बर्बाद कर रहा जिंदगी, मटियामेट हो रही संस्कृति
-टिकटॉक पर बाल यौन शोषण और अश्लीलता


-बैन लगे या न लगे लेकिन ‘डंडा’ पड़ना जरूरी


-सबके जागने का समय है वरना मौत की नींद अकेला इलाज (मर्ज) बन जाएगी


रवि प्रकाश सिंह
वाराणसी। चाइना से उभरी लाइलाज बीमारी कोविड-19 से भी ज्यादा जानलेवा टिक-टॉक है। और दुर्योग ये है कि इसका भी जन्मदाता कोई और नहीं, चीन ही है। टिक-टॉक वायरस भारतीय युवाओं की रगों में लहू का रूप ले चुका है। दिमागी सोच को ऐसे ले बढ़ा है कि जिंदगी दांव पर लग रही है। भारतीय संस्कृति को मानने या न मानने को लेकर बहस हो सकती है, लेकिन इस बात में कोई तर्क नहीं है टिक-टॉक कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक वायरस बन गया है। सस्ती लोकप्रियता, लाइक और कमेंट की अदम्य लालसा तक पहुंचे अब टिक-टॉक बनाकर जान देने पर आमादा है। लाइक और कमेंट पाने की अधीरता ने अश्लीलता की पराकाष्ठा को पार कर लिया है। भारतीय समाज इतना अनमना हो गया है कि उसे मंडराते खतरे की परवाह तक नहीं है। वह इसके खिलाफ न तो कोई आवाज उठाता है, न ही कोई पहल करने का साहस जुटाता है। हां, ये जरूर है कि इस दिशा में मद्रास हाईकोर्ट ने इसे बैन करने की बात कही लेकिन उत्तर भारत तक उसकी गूंज ही नहीं सुनी गयी। इस टिक-टॉक ने कितनी ही जान का बयाना ले लिया।
यह है तो वाराणसी इससे इतर कैसे रहता। दीवानगी की रेल-पेल में हजारों-लाखों शामिल हो गये। गंगा घाट, उस पार रेती पर, सारनाथ, फ्लाईओवर, पार्क जैसे स्थान चुन लिए गए। टिक-टॉक बनने भी लगे, वायरल भी होने लगे। आह और वाह भी होने लगी। ऊंचे मकानों से लेकर झोपड़ी में टिक-टॉक होने लगा। कोरोना तो अब आया है, यह उससे पहले चल निकला और इसका ‘संक्रमण’ कहीं ज्यादा है। अमीरी-गरीबी के परे इसकी गलबहियां हैं। और कुछ भले ही किसी को नहीं आ रहा, पर टिक-टाक नहीं आया तो घोर बेइज्जती की बात है। अब ऐसा करने में अश्लीलता और मौत को दावत भी दी गई। दाद अधिक मिली, लानत कम। मन बढ़ा और फिर कौन रोकने वाला था। लेकिन अगर कोरोना से लड़ने के लिए सारा देश संकल्प ले सकता है तो इस ‘महाकोरोना’ को नष्ट करने का हौसला कब सरकार दिखाएगी। वक्त आ गया है कि प्रशासन इस एप पर अपना डंडा चलाए।
ताजा प्रकरण रामनगर का है।



पांच किशोर, ध्यान दीजिए। ये सभी युवावस्था में प्रवेश ही कर रहे थे और इसी टिक-टॉक की ही दीवानगी ने इनकी जलसमाधि बना दी। मां गंगा को यह स्वीकार्य नहीं हो सकता था, लेकिन उनकी गोद में यदि कोई समाना चाहे तो उसे अस्वीकार्य करने का अधिकार विधाता ने उन्हें भी नहीं दिया है। पांचों किशोर गंगा में नहाने की आदत बनाई तो रेत पर टिक-टॉक वीडियो बनाने लगे। शुक्रवार को भी विभिन्न पोज में टिक-टॉक बनाया और पानी में उतर गए। फिर जो हुआ, वह दिल हदसाने वाला था। परिवारों पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा।



ये तो किशोर थे, लेकिन हाल ही में चौबेपुर थाने पर तैनात दोरागा को याद कीजिए। वे टिक-टॉक के लिए  एके-47 लिए सिंघम गाने पर झूमने लगे। यह भी याद नहीं आया कि इसके बाद विभाग क्या गाज गिराएगा। सिंघमबाजी वायरल हुई और अगले ही दिन सस्पेंड। यह ऐप क्या दिमाग को दिवालिया कर दे रहा है? यह सवाल वाकई किसी दैत्य की तरह सामने आ खड़ा हुआ है। लोगों को न जाने क्या मिल रहा है कि जिसे देखिए टिक-टॉक बनाकर वायरल कर दे रहा है। अकेले वे ही जिम्मेदार नहीं, जो देखकर ‘मुफ्त’ की लाइक की उछाल रहे हैं, वे भी उतने ही दोषी हैं। मुफ्त में मिले टिक-टाक को दान की ‘बछिया’ के दांत कौन गिने, की गैर जिम्मेदार मुहावरे जैसे गटक जाने की प्रवृत्ति के त्यागने का समय आ गया है। वरना दिल दहलाने वाली और घटनाएं भी राह तक रही हैं।
लेकिन टिक-टॉक पर बैन की बात सार्वजनिक करने की स्वीकार्यता के लिए बात करने की कोशिश को पहली ठोकर काशी विद्यापीठ जैसी शिक्षा मंदिर में ही मिली। नाम न छापने की शर्त पर एक छात्रा ने, जो टिक-टॉक की फैन है,  उसने यहां तक कह दिया कि टिक-टॉक वीडियो बनाने से रोका जाना महिलाओं की आजादी पर चोट है। यह एक और नजीर लें। किस तरह तमिलनाडु के अरियालुर इलाके की महिला अनीता को टिकटॉक ऐप का ऐसा चस्का लगा था कि वह अपने परिवार पर ध्यान देने से ज्यादा समय टिकटॉक चलाने में ही बिताती थी। इससे नाराज अनीता के पति ने डांट लगा दी, नतीजतन, अनीता ने जहर पीकर आत्महत्या कर ली। ये हाल है इस देश का। इस साल 14 जनवरी को बरेली में दिल दहलाने वाली घटना घटी। यहां फौजी के बेटा पिता की सर्विस रिवाल्वर लेकर टिक-टॉक वीडियो बना रहा था। इस बीच ट्रिगर दबी और गोली मौत का परवाना बन गयी। हजारों वीडियो इस साइट पर देखे जा सकते हैं जिसमें कम उम्र की लड़कियों के अंतरंग वीडियो वायरल हैं। इसलिए कि उनका नेम और फेम मिले साथ ही कुछ पैसे। आधुनिकता की रेस किसी अंधे कुएं में जा रही हो तो आजादी के नाम पर इसकी छूट नहीं दी जा सकती। इसके पहले कि यह सब बेकाबू हो जाय, कानूनी और सामाजिक बंदिश की सख्त जरुरत है। सबके जागने का समय है वरना मौत की नींद अकेला इलाज (मर्ज) बन जाएगी।


 

 

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