किलर कोराेना ने छीनी डाेमराजा की हनक, मणिकर्णिका की खामोशी बता रही है, क्या कुछ सच में अनहोनी हो रही है...!
रो रहे हैं मणिकर्णिका घाट के राजा, चाहते हैं छूट जाए उनका पुश्तैनी धंधा
यजमानों की बाट जोहने वालों की आंखों में आंसुओं की धुंध आ चुकी है
विजय विनीत के साथ अश्वनी कुमार
वाराणसी। बनारस के राजा रो रहे हैं। वो राजा, जो छत्रधारी राजा नहीं हैं, लेकिन बनारस ने उन्हें राजा की पदवी दे रखी है-डोम राजा। मणिकर्णिका घाट पर शवों का अंतिम संस्कार करने वाले दर्जा प्राप्त डोम राजा अब खून के आंसू रो रहे हैं। इन्हें इस बात का दर्द है कि घाट पर "राम नाम सत्य" का उद्घोष बंद हैं। मणिकर्णिका घाट पर सिर्फ खामोशी है....और सन्नाटा है। लाकडाउन के बाद इस घाट पर अब नारा नहीं..., हलचल नहीं..., शोक नहीं...और शोर नहीं है। मौत का सामान बेचने वाले भी कसमसा रहे हैं।
महाश्मशान मणिकर्णिका पर हमारी भेंट हुई डोमराजा माता प्रसाद चौधरी से। अर्थियों को आग देने के लिए पास बैठे थे इनके चाचा राधेश्याम चौधरी। कहते हैं, ‘हमारा हाल न पूछिए तो बेहतर। सदगति प्राप्त करने वालों की मृत्यु और पुनर्जन्म की गुत्थियां हमीं सुलझाते हैं। लाकडाउन में अब हमारे जीवन की गुत्थी ही उलझ गई हैं। वैज्ञानिक युग में भी प्रबल विश्वास के चलते दुनिया भर से लोग यहां अंत्येष्टि कराने आते थे। सफाई देने लगे कि हम ईमानदारी से धंधा करते हैं। मनमानी नहीं करते। तय शुल्क लेते हैं और बदले मेंआग देते हैं। इसके बावजूद सताने के बेबुनियाद आरोप हम पर रोज थोपे जाते हैं। देखिए, लाकडाउन में आमदनी पांच-दस फीसदी रह गई है। लेकिन शवों का इंतजार चौबीस घंटे करना पड़ रहा है। आखिर आग भी देनी है। लेकिन इस हालत ने सोचने पर विवश कर दिया कि अपने बच्चों को दूसरे धंधे में डाल दिया जाय। लेकिन सोचने से क्या होता है? जो होता है वो ईश्वर की मर्जी से होता है। हमारे कुल में कई चौधरी हैं। सबकी पारी बंधी है। धधकती चिताओं से अब सचमुच हमारा मोह भंग होने लगा है...।’
पहले तीन सौ शव जलते थे अब दहाई को तरसे
वो कहते हैं, ‘यहां रात-दिन दाह संस्कार होता है। गर्मी के दिनों में पहले अमूमन एक दिन में दो से तीन सौ शवों की अंत्येष्टि होती थी। अब तो दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं हो रहा है। बाहर के लोग तो शव ला नहीं पा रहे हैं। जो बनारस के लोग हैं, वो भी आस-पास ही कहीं अंतिम संस्कार कर ले रहे हैं, क्योंकि इतनी दूर लाना भी अपने आप में समस्या है। इस समय लोगों का निकलना और वो भी कई लोगों के साथ निकल पाना असंभव-सा है।’
व्यथा जारी रखते हुए चौधरी बोले, ‘अंतिम संस्कार के धंधे में होने की एक बड़ी वजह ये भी है। हम डोम राजा के परिवार से आते हैं। इसे हम अपनी आन-बान और शान समझते हैं। मगर शवों की तादाद घटने से हमारी मुश्किलें बढ़ गई हैं। लाकडाउन में सभी जिलों की सीमाएं सील हैं। लोग नहीं आ रहे हैं। शव लेकर नहीं कोई आ रहा है, इससे मणिकर्णिका घाट पर करीब साढ़े तीन सौ परिवारों के सामने भुखमरी का संकट आ गया है।’
चौधरी बताते हैं कि कोरोना संक्रमित की मौत से पहले घाट को पूरी तरह खाली करवाया गया था। सिर्फ स्वास्थ्य विभाग की टीम आई थी। कुछ लोगों में इस बात का भी डर है कि कहीं कोरोना का प्रभाव अब तक न मौजूद हो। संदेह का कीड़ा गहरे जड़ जमा चुका है। कोरोना को छूत की बीमारी बहुत से लोग मान रहे हैं। ये माना जा रहा था कि मौत तो शाश्वत है तो यह होगी और इससे घाटों का काम नहीं रुकेगा। लेकिन लॉकडाउन ने सबकुछ लॉक कर दिया। मणिकर्णिका जैसे घाट पर इतने सन्नाटे की उम्मीद किसी को नहीं थी।
अपनी बात जारी रखते हुए चौधरी बोले, ‘समस्या फकत शवों का यहां न आना ही नहीं है, बल्कि ये कि जो शव यहां आ भी रहे हैं, उनके अंतिम संस्कार के लिए संसाधन नहीं हैं। लाशों के साथ आने वाले लोगों के लिए भोजन-पानी की विकट समस्या है। दो महीने तक तो कफन की दुकानें भी बंद थीं। इस समय तो सिर्फ एक-डेढ़ दर्जन लाशें ही यहां जलने के लिए आ रही हैं। इनमें कई लावारिस भी होती हैं, जिनके दाह-संस्कार का जिम्मा भी हमारे सिर होता है।’ इस हालत में ‘नंगा क्या नहाए, क्या निचोड़े’ वाली बात है।
‘अब तो हम तमाशा देखने वाले हो गए’
मणिकर्णिका घाट पर पहुंचने से पहले ही हमारी पहली मुलाकात कमलेश पांडेय से हुई। वो अंत्येष्टि का सामान बेचते हैं। हमें देखा तो इनके आंखों की चमक बढ़ गई कि कोई तो आया, पूछ बैठे, ‘कोई सेवा है हाकिम।’ मैने कहा, ‘शवयात्रा पर नहीं, मैं लेख यात्रा पर आया हूं।’
कमलेश ने निराशा की लंबी सांस खींचने के बाद छोड़ते हुए कहा, ‘हां बाबू। हम तो तमाशा देखने वालों में आ गए हैं। जब से लाकडाउन हुआ है, बैठे ठाले हो गए हैं। ग्राहकों की बाट जोहने की इस लाचारी का आभास नहीं था। आंखों का दर्द बढ़ता जा रहा है। महाश्मशान पर अब सोशल डिस्टेंसिंग जैसे शव जल रहे हैं। यानी एक यहां तो दूसरा वहां। हमारी तीन पीढ़ियां कफन बेचती आ रही हैं। ऐसे मुश्किल भरे दिन कभी नहीं आए थे। बस, बीस-तीस रुपये की कमाई हो जाती है दिन भर में। मौतें हो रही हैं, लेकिन मोक्ष की सोच ने काशी की राह बदल ली है।
अब तक सुन रहे कफन बेचने वाले संतोष गुप्ता मौका पाते ही चुप्पी तोड़ते हैं। कहा, पुश्तैनी धंधा है। अब कैसे इसे हम छोडेंÞ। कफन बेचने वाली हम तीसरी पीढ़ी हैं,लेकिन लाकडाउन ने कमाई ठप की, पर खर्च बढ़ा दिया। कमाई के ‘ठन-ठन गोपाल’ वाले शोर में सभी सन्नाटे में हैं। कोरोना के डर से कोई श्मशान घाट नहीं आना चाहता। आदमी अब आदमी से डर रहा है। हर कोई मुश्किल में है। पहले कफन के लिए कोई मोल-भाव नहीं करता था और अब एक-एक चीज के लिए लोग मोल-तोल कर रहे हैं और हम उनकी बात मानने के लिए विवश हैं।
‘पहले यजमान भागते थे, अब हम भाग रहे’
तीस वर्षीय महापात्र अर्जुन पांडेय मणिकर्णिका घाट पर यजमानों के चक्कर में परेशान नजर आए। इनके चेहरे के उतार-चढ़ाव के चिह्नों को देख मैने सवाल किया, "कैसा चल रहा है धंधा? अर्जुन की आंखें डबडबा गईं।" बोले, "न लाशें आ रही हैं, न श्राद्ध कराने वाले। नदी के किनारे किसी यजमान का पिंडा परवाते पुलिस देखती है तो लाठीचार्ज के पुराने फार्मूले पर उतर आती है। लाकडाउन में अब तो पेट चलाने के लाले हैं। एक जमाना था जब लोग श्रद्धा से श्राद्ध करते थे। अब सिर्फ खानापूरी हो रही है। पहले तोसक-रजाई, पलंग, तकिया, सोने-चांदी की प्रतिमा, गाय-भैंस, जमीन-जायदाद तक महापात्रों को विदायी में मिल जाया करते थे। किसी को इसके लिए प्रेरक प्रसंग नहीं कहना पड़ता था। अब हमें यजमानों के पीछे भागना पड़ रहा है।’
मणिकर्णिका घाट पर करीब सौ-सवा सौ महापात्रों का रेला पहले लाशों के पीछे भागता था। अब सब के सब निठल्ले बैठे हैं। महापात्र गौरव पांडेय कहते हैं, ‘पीपल के पेड़ पर घंट बंधवाने से लेकर मोक्ष का काम हमें करना पड़ता है। ग्यारहवें दिन होती है हमारी विदायी। लेकिन अब पुण्य अर्जित करने का विधान कोई पूरा नहीं कर रहा है। इस वजह से सिर्फ सौ-पचास रुपये ही नसीब हो पा रहा है।’
मणिकर्णिका घाट के मोड़ पर सिर पर हाथ धरे बैठे मिले संतोष शर्मा। ये वो शख्स हैं जो चिता में आग लगाने वालों के सिर पर उस्तरा चलाते हैं। कहते हैं, "पहले हमारे यहां लाइन लगा करती थी। हजार-दो हजार का वारा-न्यारा आराम से हो जाता था। केश छीलते-छीलते अब बूढ़ा हो रहा हूं। गंदे से गंदा मुर्दा, सड़ा-गला मुर्दा, हमारे सामने से ही गुजरता है। साफ-सुथरा आदमी देख ले तो उबकाई आने लग जाए। आप को ऐसी दुर्गंध मिल जाए, खाना पीना छोड़ देंगे। हम तो पेट की खातिर यह सब देखने-सूंघने-सहने के अभ्यस्त हो गए हैं।’
आगे बढ़े तो हमारी मुलाकात हुई हरिकांत झा से। इन्हीं के पास बैठे मिले राजा गुरु। जितेंद्र से पहले बोल उठे, ‘हुजूर, पहले कुछ लोग महापात्रों की जगह कर्मकांडी ब्राह्मणों से कर्मकांड कराते थे। अब तो भूखों मरने की नौबत है। जो पहले का बचा है, वही खा रहे हैं। लाकडाउन में हमारे सामने पेट पालने का संकट है।’ आगे की कड़ी हरिकांत झा ने जोड़ी। वो भी अंत्येष्टि का सामान बेचते हैं। कफन भी और लकड़ी भी बेचते हैं। कहा, ‘हमारी दुकान पर पहले दो-तीन सौ मीटर कपड़े और ढेरों कफन बिक जाया करते थे। अब पांच-दस मीटर बेचकर तसल्ली करनी पड़ रही है। हम लोगों का धंधा बड़ा खराब है। न रात है और न दिन का ठिकाना, इंतजार ही हमारा नसीब है। पता नहीं कब-कौन ग्राहक आ जाए। लाकडाउन में संकट ज्यादा बढ़ गया है।’ हमने सवाल किया, ‘इस धंधे से सामाजिक प्रतिष्ठा कम नहीं होती? ’ निश्चित रूप से हमारा मान-सम्मान प्रभावित होता है। शादी-विवाह में रिश्ता तय करते समय हमसे धंधे की बात पूछी जाती है। तब हमें कहना पड़ता है कि कपड़े का व्यवसाय है,- हरिकांत ने कहा।"
कफन कारोबारी हरिकांत से बात पूरी होते-होते श्मशान के लकड़ी कारोबारी जितेंद्र मिश्र से मुलाकात हुई। बातचीत से महसूस हुआ कि लाकडाउन में अपने कारोबार से वो काफी खिन्न और दुखी हैं। गहरी सांस खींची और बोलने लगे, "पूर्वजों की कपालक्रिया की दुकान थी। मैं खामख्वाह इस धंधे में फंस गया। एक लाश पर नौ से तेरह मन लकड़ी की जरुरत पड़ती है। देहात के लोग अब शव के साथ लकड़ी भी लेकर आने लगे हैं। बस लागा-डाटी की वजह से यह धंधा कर रहा हूं। यह भी जानता हूं की इस धंधे में खोट है। न समाज में इज्जत, न जाति बिरादरी में। मैं तो मणिकर्णिका से श्मशान हटा देने के पक्ष में हूं। न रहेगा बांस, न बांसुरी बाजेगी।’
जाते-जाते जितेंद्र मिश्र ने कहा, ‘हमारे धंधे से अलग इस श्मशान की चीख-पुकार है। मौत के बाद लोग यहां जलने के लिए लाए जाते हैं। किसी का ध्यान श्मशान की करुण गाथा की ओर नहीं गया। बहुत से लोग यहां सताए भी जाते हैं। इतना सताए जाते हैं कि रो देते हैं। घाट पर न कोई कायदा, न कोई कानून है।’
मणिकर्णिका घाट के पास हमें मिले लकड़ी की टाल लगाने वाले रामवीर। पेशे से वो मल्लाह हैं, लेकिन लकड़ी बेचने का धंधा करते हैं। वो कहते हैं, "हमारे पास लकड़ियों का जो स्टॉक था वो अब खत्म होने वाला है। दूसरी सामग्री भी, जिनकी अंतिम संस्कार में जरुरत होती है, वो नहीं मिल रही है। कुछ हफ्तों तक तो जमा सामान से काम चलाते रहे, लेकिन अब मिल नहीं रहा है और दूसरी जगहों से हम ला नहीं सकते।
लौटते समय हमारी बात हुई कपाल क्रिया के विक्रेता पुल्लू (बदला नाम) से। वो अपना नाम छपवाने के लिए तैयार नहीं हुए। लेकिन सब कुछ बताया। कहा, ‘लाकडाउन में सिर्फ इज्जत ढंक पा रही है। हम कपालक्रिया का सामान दसांग, घड़ा, धूप, तिल्ली, करधन, घी, और चंदन बेचते हैं। पहले चंदन के बुरादा और घी से कमाई हो जाती थी। इन दिनों हमारे कोटे में लाशें ही नहीं आ रही हैं। बनारस की सीमाएं सील हैं। पहले देश भर से लाशें आती थीं यहां। लगता है कि अब अगले साल ही कुछ उबर पाएंगे हम। कोरोना ने हमारा अस्सी फीसदी धंधा चौपट कर दिया है।’
हरिश्चंद्र घाट भी कम नहीं है बेहाल
विश्वव्यापी कोरोना संकट ने सिर्फ मणिकर्णिका घाट ही नहीं, हरिश्चंद्र घाट को भी पूरी तरह अपने शिकंजे में ले लिया है। इस घाट पर भी पहले रोज सैकड़ों की संख्या में शवों के दाह-संस्कार के लिए लोग आते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद उपजी स्थिति की वजह से इस संख्या में भारी गिरावट आई है। वाराणसी के जिÞला प्रशासन की ओर से शवों के अंतिम संस्कार को लेकर कोई रोक-टोक नहीं है। बाहर से आने वाले शवों पर भी कोई पाबंदी नहीं है। अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए आने वालों से सिर्फ इतनी गुजारिश की जा रही है कि वो अंतिम संस्कार के लिए ज्यादा भीड़ न लाएं और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं कि कोरोना ने मणिकर्णिका की आग को भी मद्धिम कर दिया है। जब जिंदा आदमी घर से नहीं निकल रहा है, तो मुर्दा यहां तक कैसे आ पाएगा? घाटों पर सुबह-शाम गंगा-स्नान करने और पूजा-पाठ करने वालों से रौनक रहती थी, तो इन दो घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए जलती चिताओं से हर वक्त रोशनी रहती थी। फिलहाल न तो दूसरे घाटों पर पुरानी रौनक है और न ही यहां चिताओं की ज्वाला पहले जैसी है। शवदाह पर दिक्कतें खड़ी नहीं की जानी चाहिए। यह सिर्फ शवदाह का नहीं, मोक्ष का मामला है...आस्था का मामला है। इस पर चोट मारना ठीक नहीं है। आस्था सेलेक्टिव नहीं होनी चाहिए। यहां आधुनिक सोच रखनी चाहिए। जितनी सुविधा मुहैया करा सकते हैं, उतनी कराई जानी चाहिए।
प्रदीप बताते हैं, ‘बनारस समेत पूर्वांचल के सभी जिलों से लाशें यहां आती थीं। बिहार, झारखंड से लगायत कोलकाता तक की अर्थियां यहीं सजतीं थीं। लाकडाउन से आना-जाना बिल्कुल बंद है। लोग खुद भी डरे हुए हैं, इसलिए जितना संभव हो रहा है, घर के पास ही अंतिम संस्कार कर रहे हैं। चूंकि कई तरह की पाबंदियां हैं, इसलिए लोग आने से कतरा भी रहे हैं। लेकिन इसका विपरीत प्रभाव यह पड़ा है कि सैकड़ों परिवारों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया है, जो काम में लगे हुए थे।’
मोक्ष के ‘वेटिंग रूम’ पर कोरोना का पहरा
थम गई परंपरा, दिखनी बंद होती जा रही मोक्ष की सीढ़ी
बनारस सिर्फ एक मामूली शहर भर नहीं है। ये मौत का वेटिंग रूम भी है। ये वो शहर रहा है, जहां मोक्ष की लालसा लेकर दुनिया भर के लोग दौड़ते चले आते थे। लेकिन, सदियों पुरानी यह परंपरा अब थम सी गई है। लाकडाउन में बनारस की वो सीढ़ी भी दिखनी बंद हो गई है जो सीधे स्वर्ग पहुंचाया करती थी। मोक्ष की वही सीढ़ी जिसके रहस्य को न कबीर समझ पाए, न तुलसीदास। बनारस की पेंचदार गलियों से होकर गंगा घाटों तक कौन सी सीढ़ी स्वर्ग की ओर ले जाती है, इसे न पंडे-पुरोहित बता पाते हैं, न चीलम फूंकते औघड़। हम तो सिर्फ इतना समझ पाए हैं कि यह अद्भुत शहर मौत को भी मंगल मानता है। न कोरोना से डरता है, न लाकडाउन की झंझावतों से। बनारस के लोगों को पता है कि अगर मौत पर यह शहर रोने लगा तो आंसुओं की लड़ी रुकेगी ही नहीं। न घंटे घड़ियालों की ध्वनियां सुनाई देंगी और न मंदिरों का मंत्रोच्चार।
कोरोना संकट काल में बनारस में सबसे बड़ा बदलाव यह हुआ है कि काशी के मठों-धर्मशालाओं में मौत का इंतजार कर रहे दुनिया भर के हजारों लोग अपने वतन लौट गए हैं। एक तरह से स्वर्ग यात्रा का वेटिंग रूम अब खाली है। दरअसल, बनारस में स्वर्ग यात्रा मणिकर्णिका घाट पर ही खत्म होती है। इसके रहस्य को आप भी जानिए। वो रहस्य जिसे जाने बगैर आपका ज्ञान अधूरा ही रह जाएगा। वहीं मणिकर्णिका घाट जहां हजारों साल से पार्थिव शरीर जलते आ रहे हैं। कभी न खत्म होने वाली जंजीर की तरह। धू-धूकर जलती रहती हैं चिताएं। अलग-अलग चिताओं पर कई-कई लाशें। पहले जलने के लिए पड़ी रहती हैं लाशें, अपनी बारी की प्रतीक्षा में। नई-नई अर्थियां। कोई लाल तो कोई सफेद कपड़ों में लिपटी।
मणिकर्णिका घाट के बारे में कहा जाता है कि जो शरीर यहां पर अग्नि को समर्पित किया जाता है वो जन्म-मरण के बंधन से पार हो जाता है। इसी के कारण बहुत से लोग मणिकर्णिका घाट पर अपने अंतिम संस्कार की इच्छा जताते है। काशी को मोक्ष की नगरी भी कहा जाता है। मणिकर्णिका घाट पर दुखों के बीच साल का एक वक्त ऐसा भी होता है जब पांवों में घुंघरू बांध तबले की थाप पर कुछ पैर थिरक उठते हैं। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि काशी में मरने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही वजह है कि दुनिया भर से तमाम लोग अपना प्राण त्यागने काशी आते रहे हैं। हर कोई मौत के वेटिंग रूम में अपना कमरा बुक कराना चाहता है। रहना चाहता है। मगर कोरोना ने आस्था के मंसूबों पर भी पानी फेर दिया है। मौत का इंतजार करने वाले अब गायब हैं। किसी को पता नहीं कि वो कहां गए? शायद ये लोग अब कमरा खाली कर बनारस छोड़कर जा चुके हैं।
वरिष्ठ पत्रकार धर्मेंद्र सिंह कहते हैं कि मौत के प्रतीक्षार्थियों की नगरी बनारस में आने वाले हर किसी की चाहत होती है धनकुबेर बनने की। दूसरी ख्वाहिश होती है स्वर्ग में अच्छी सीट कब्जाने की। चूड़ी, चूनर, चूरन, चना-चबैना बेचने वालों से लेकर आत्माओं को तारने का ठेका लेने वाले लापता हैं। वो लोग भी अब नहीं दिख रहे हैं जो तीर्थ यात्रियों और सैलानियों की जेबें तराशते-तराशते एक दूसरे की जेबें काटने और कटवाने लगते थे।"
धर्मेंद्र कहते हैं, "बनारस धीमे-धीमे चलता है, लेकिन रुकता नहीं। लाकडाउन में भी चल रहा है। बनारस को जानने के लिए शहर की संस्कृति को जानिए। आस्था, विश्वास, ठग विद्या, माया, तीर्थ, रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी, गंजेड़ी-भंगेड़ी, पोंगापंथी, गुरु, गुंडा, आखिर क्या है बनारस की संस्कृति? शायद बनारस को समझ पाना बेहद कठिन है। यह जान पाना भी कठिन है कि यहां कौन ठग रहा है और कौन ठगा जा रहा है? लोग तो सिर्फ यही समझाते हैं—
रांड़, साड़, सीढ़ी, सन्यासी इनसे बचे सो सेवै काशी
इनसे बच भी गए तो कोरोना के झाम से बचाएगा कौन? बनारस के ठगों से बचाएगा कौन? पैसे के बदले मोक्ष दिलाने का ठेका लेने वालों से बचाएगा कौन?
दुनिया मानती है कि बनारस में योगी शिव है। भोगी भी शिव है। शिवत्व योग साधता है। भोग साधता है। तभी तो कोई बनारसी गंगा का साथ नहीं छोड़ना चाहता। दुनिया भर के लोगों की बाबा विश्वनाथ की नगरी से श्रद्धा घट नहीं सकती। लाकडाउन हो या न हो, जिन्हें बनारस के मुहब्बत है वे मानते हैं---
चना, चबेना गंग जल, जो पुरवे करतार
काशी कबहूं न छोड़िए, विश्वनाथ दरबार।
खांटी बनारसी जहां भी रहते हैं, बनारस में रहते हैं। जहां रहते हैं बनारस रहता है। कभी बनारस का होना सपने के सच होने जैसा लगता है। कभी सरल लगता है। कभी विरल लगता है। बनारस की गंगा कभी सुलभ लगती है, कभी सुगम लगती है। बनारस कभी अलग लगता है, कभी अगम लगता है। बनारस की एक काया है। बनारस की एक छाया है। वह हर काया में है जो असीम चेतना की दस्तक देती है।
वरिष्ठ पत्रकार पद्मपति का नजरिया जानिए। वो कहते हैं, "बनारस जितना मूर्त है, उससे कहीं अधिक अमूर्त है। पुराण से भी पुराना है। पुराना के साथ नया भी है। बनारस एक परंपरा है। एक जीवन शैली है। बनारस में काव्य रस की तरह जीवन है। भाषा में भी है और भाषा से बाहर भी। रहस्य, रोमांच, सांड़ के साथ सन्यासी एक दूसरे का स्वागत करने के लिए हर समय तत्पर नजर आते हैं। मगर अब कोरोना ने बनारस का यह रस सचमुच बिगाड़ दिया है।"
वो कहते हैं, "बनारस सुबह का शहर है। मानवीय चेतना में सूर्योदय का शहर। सुबह के शहर में होने के साथ, हर किसी की साध है। गंगा के किनारे हमारी चेतना का एक धरातल है, जहां जागरण का सूर्योदय शंख बजाता है। घंटा-घड़ियाल बजाता है। जीने का यह सुख जीने के लिए कम नहीं है। मान्यता रही है कि बनारस में गंगा घाटों पर नहाने वालों की विभूति देखकर यमराज के दूत तक भाग खड़े होते थे...। पिशाच भाग खड़े होते थे....। बलाएं भाग खड़ी होतीं थीं...। लगता है कि कोरोना तो पिशाच से भी बड़ा हो गया है, लेकिन बनारस के लोग उससे डरने वाले नहीं हैं।"