गर्दिश में काशी के पंचरंगी सितारे, हर दिल को सुकून देने वाले बनारस के घाटों पर गुमनाम हो गई गंगा आरती 

 


सतरंगी चादर में लिपटी काशी में कोरोना ने बहुत कुछ बदला है। दिल को सुकून देने वाले गंगा घाट लाकडाउन में वीरान हैं तो गंगा आरती भी गुमनाम सी हो गई है। बनारस को अनूठी पहचान देने वाले वो सितारे इन दिनों गर्दिश में हैं, जिन्होंने अपनी हाड़तोड़ मेहनत के दम पर बनारस को प्रसिद्धि दिलाई है। चाहे वो चाय की अड़ियां हो या फिर रिक्शे अथवा नौकायन कराने वाले मांझी। चाय और ठंडई के लिए कुल्हड़ मुहैया कराने वाले कुम्हारों पर भी कोरोना की काली साया पड़ी है। धार्मिक आयोजनों में सिर का बाल उतारने वाले नाइयों की कहानी भी कम दुखदायी नहीं है। लाकडाउन में इनकी कैची की धार ही भोथरी हो गई है। काशी को अनूठी पहचान देने वालों लिए लाकडाउन मामूली संकट नहीं है। ये ऐसा संकट है जिसमें उन्हें पेट भरने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। पढ़िए इस रिपोर्ट में।



० मटियामेट हो गए कुम्हारों के अरमान, इनके पास न मिट्टी है, न कोयला


० बनारस में अब रिक्शेवाले बता रहे हैं कैसी होती है पेट की आग?


० सुबह-ए-बनारस के मिजाज का अहसास दिलाने वाली चाय की चुस्कियां हुईं फीकी


० माझियों पर कोरोना का सबसे बड़ा वार, बारिश में भी लाक रहेगा इनका धंधा


० कोरोना फैलने का खौफ चाट गया नाइयों की कारोबार, सैलूनों के ताले नहीं खुले


 


विजय विनीत के साथ रवि प्रकाश सिंह, अश्वनी कुमार, अमन विश्वकर्मा



लाकडाउन ने रिक्शेवालों बना दिया काठ का मूरत


रोटी का सवाल टटोल रहे काशी के हजारों किरदार


आप ही देखिए क्या हाल है? इस दोपहरी की ताप देखिए।  मेरे दिल की आग मापिए। बाबूजी...! आप अंदाज नहीं लगा पाएंगे कि कौन ज्यादा गरम है? यकीनन पेट की आग से सबसे बड़ी है। गांव से शहर आए थे रोजी-रोटी का इंतजाम करने। कोरोना का हल्ला हुआ। समझ पाते, इससे पहले ही लोकडौन (उसका उच्चारण) हो गया। काठ बन गए। जहां थे, वहीं रह गए। एक झटके में सब कुछ खत्म हो गया। उम्मीद भी...और यकीन भी। चोरी-छिपे रिक्शा चला रहे हैं। साथ ही पुलिस के डंडे भी का रहे हैं। दिन भर में बस एक महिला सवारी मिली। वो अस्पताल से लौट रही थी। हमारी लाचारी देखी नहीं गई तो वो रिक्शे पर बैठ गई।  फातमान से महमूरगंज पहुंचाया। हमने एक दूसरे को देखा जैसे, एहसान जता रही हो।


यह व्यथा थी बिहार के मोतिहारी निवासी सोमारू की। सोमारू आज जाना कि परोपकार भी होते हैं कई तरह के। सोमारू को लगा कि अब एक दूसरे की मदद भी लाकडाउन में परोपकार के दायरे में आ गई है। लाकडाउन ने सब ले लिया, पर एक चीज़ सिखा दिया जीवन जीने और जिलाने का तरीका। दो महीने बाद चालीस रुपये मिले तो हथेलियां गुदगुदाने लगीं। समझ में नहीं आया कि कहां करेंगे खर्च? ढाबा तो बंद है।



सोमारू ने दम बटोरा। ब्रेड और दूध खाया। बात शुरू हुई तो आंसू निकल आए। बोला, ‘हुजूर..! एक-दो दिन भूखा भी रहना पड़ता है...।’ शायद वो मुझे समझाने की कोशिश में था कि ब्रेड और दूध उसका रोज का नाश्ता-भोजन नहीं है।


कैंट स्टेशन पर ओवर ब्रिज के नीचे मिले सीतामढ़ी के संतोष। उम्र अधिक नहीं था, लेकिन हालात ने उसे उस पड़ाव पर पहुंचा दिया था, जिसके चलते उसके बाल सन जैसे हो गए थे। मुलाकात हुई तो गमझे पोछा, फिर हमारी तरफ मुखातिब हुआ।  जनाब, आप जैसे लोगों की मदद से चल रही है जिंदगी की गाड़ी। कोई न कोई भोजन और नाश्ता दे जाता है। वो कौन लोग हैं, मुझे नहीं मालूम। दो रोज पहले गांव से फोन आया था। घर वालों के पास दवा तक के लिए पैसे नहीं। राशन भी खत्म हो गया है। उन्हें क्या बताते अपनी लाचारी? जो हाल उनका है, वही हमारा है। इतना बोलकर संतोष खामोश हो गया। यही संतोष पहले रोज पांच-सात सौ रुपये कमा लेता था। अब सवारी के लिए हर वक्त टकटकी लगाए रहता है। कोई सवारी मिल जाए तो चार पैसे पाकेट में आ जाएं।


पेट की आग कैसी होती है? इसके एहसास रिक्शा चालक मंसूर आलम ने दिखाया। सवाल करने से पहले ही शर्ट उठाकर पेट दिखा दिया। बता दिया कि बस शरीफ लोगों के भरोसे कट रही है जिंदगी। सुबह से कोई सवारी नहीं मिली है। पेट खाली है। तेज भूख लगी है। ज्यादा नहीं बोल सकता। साहब...बोलने में भी दम लगता है। निरालानगर में हमें मिले सुरेंद्र। पेड़ की छाए में सुस्ता रहे थे। निगाहें आसमान पर थीं। शायद वो रोटी के सवाल का जवाब टटोलने की कोशिश कर रहे थे। इनके पास अपना रिक्शा है। शायद वो न होता तो पैदल अपने गांव लौट जाते। यह वही रिक्शा है जिसके दम पर उन्होंने अपनी बेटी की शादी की है। बेटे को पढ़ाया-लिखाया। पत्नी का इलाज कराया। कहते हैं, -घर जाएं तो कैसे? अब इंतजार के अलावा कोई रास्ता नहीं है मेरे पास।


विद्यापीठ भारत माता मंदिरों के पीछे रहकर गुजारा कर रहे असलम की कहानी सबसे अलग है। वो कहते हैं मंदिर मस्जिद उनके लिए जो सियासत करते  हैं। मुझे रोजी रोजी इसी भारत माता मंदिर से मिलती है। लॉकडाउन के पहले यहां रोजाना आने वाले विदेशियों को शहर बनारस की सैर कराता था। बदले में अच्छी कमाई हो जाती थी। लेकिन आज जब वक्त ने करवट ली तो कोई सुधी लेने वाला नहीं है। शुक्रगुजार हूं मैं इस कर्मभूमि का जिसने आज भी इस खराब हालात में मुझे जिंदा रखा है।


सुरेंद्र बिहार के अररिया के रहने वाले हैं। अपनी कमाई से अब रिक्शा खरीद लिया है। किराया नहीं देना पड़ता। होली के बाद गांव से लौटे थे, तभी लॉकडाउन हो गया। सुरेंद्र ने ढेरों सवाल खुद ही कर डाले। कहा, हम अपनी लाचारी समझते हैं। बस जिंदा रह जाएं यही काफी है। पहले परिवार चलाने के लिए मेहनत करते थे और अब पेट भरने के लिए परेशान हैं। मगर लग नहीं रहा कि कोरोना जाएगा और हमारे दिन फिर लौटेंगे। मन दुविधा में है। हमें खुद को बचाना है और रिक्शे को भी।


ये रिक्शे ही बनारस की पहचान रहे हैं। यहां इनकी तादाद हजारों में है। शायद पंजीकरण से पचास गुना ज्यादा। इनमें ज्यादातर बिहारी और बांग्लादेशी हैं। इस शहर में मुंगेर, मोतीहारी, सीतामढ़ी के रिक्शा चालकों का दबदबा रहा है। लॉकडाउन की सबसे बड़ी मार इन्हीं पर पड़ी है। इनके पास अब बेबसी और दम तोड़ती उम्मीदों के सिवा कुछ भी नहीं बचा है।



कुम्हार की चाक के पहिए हो गए 'लॉक'


कोरोना वायरस ने बनारसी कुम्हारों को बना दिया कर्जदार


बचई प्रजापति के चाक के पहिए लाकडाउन में 'लॉक' हो गए हैं। सिर्फ चाक ही नहीं, इनकी समूची जिंदगी ठहरी हुई है। मिट्टी के बर्तन न बिक पा रहे हैं, न बन पा रहे हैं। इनके पास न कोयला है, न मिट्टी है। घर खाली है। न चावल है, न आंटा है। बस किसी तरह जिंदा हैं। लाश की तरह हो गई है जिंदगी...।


बनारस के ऐढ़े गांव में रहते हैं बचई। इनके परिवार की आजीविका मिट्टी के बर्तनों से ही चलती रही है। दो महीने के लाकडाउन ने इन्हें बुरी तरह तोड़ दिया है। लाकडाउन में बचई सरीखे कुम्हारों का ठहरा हुआ चाक बनारस में समाज के हर वर्ग से कुल्हड़, घड़ा, गगरी और सुराही का इस्तेमाल करने की गुजारिश कर रहा है। लेकिन इनके अरमान मटियामेट होते जा रह हैं। खाने के लिए बस कर्ज का सहारा है। एक उम्मीद है जो इन्हें जिंदा जिलाए हुए है। उदयपुर के रामनंदन और श्यामनंदन कुम्हार कहते हैं, -उम्मीद थी कि गर्मियों में कुछ कमाई हो जाएगी। शादी-विवाह बंद, कर्मकांड बंद, चाय की दुकानें बंद और मटका-गगरी व सुराही की बिक्री भी बंद। लग्न आई और चली गई। शादियां हुई नहीं। कर्मकांड भी बंद ही रहे। कुम्हारों के पास जो पूंजी थी, वो भी फंस गई।


दरअसल, कुम्हार की जान होती है मिट्टी। अगर मिट्टी नहीं तो खूबसूरत बर्तन बनेंगे कैसे? पेशा भले ही खानदानी है, लेकिन बनारस के अधिसंख्य गांवों में कुम्हारों के पास मिट्टी पर अपना हक भी नहीं है। बनारस में कुम्हारी कला जीवित बची है तो सिर्फ कुल्हड़ों के दम पर। मिट्टी के इसी पात्र की सबसे ज्यादा डिमांड है। जो काशी को जानता है, वह कुल्हड़ के स्वाद को पहचानता है। बनारसी कुम्हारों की चाक पर बना कुल्हड़ दुनिया भर में प्रसिद्ध है। दुर्योग देखिए। वह अब धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोता जा रहा है।


एक समय वह भी था जब गर्मियों में हर कोई सुराही का इस्तेमाल करता था। फ्रिज के आ जाने से सुराहियों की डिमांड घट गई है। ऐढ़े निवासी गुड्डू प्रजापति बताते हैं,-पहले चाक हमारे पास जीवन-यापन की इकलौती जरिया थी। अब इसकी रफ्तार पूरी तरह थम गई है। परिवार का भरण-पोषण करने में कुम्हार समाज अक्षम हो गया है।


सचमुच बदलते दौर में कुम्हारी कला विलुप्त होने के कगार पर है। मिट्टी की कीमत में भारी वृद्धि हो गई है। मेहनत को जोड़ दिया जाए तो सामान का लागत भी बाजार से नहीं निकल पाता है। कुम्हारों को लगता है कि इस पेशे से जुड़कर रहना आत्महत्या करने के बराबर है।


चीन से आयातित बर्तनों के आने से बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। परंपरागत तरीके से काम कर रहे कुम्हार बाजार में कहीं नहीं टिक पा रहे हैं। वे सौ बरस पहले जिस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे थे, आज भी उसी पर काम कर रहे हैं। कुम्हारों के कौशल विकास और व्यावसायिक दक्षता को बढ़ाने के लिए यूपी सरकार कुछ भी नहीं कर रही है। कुम्हारी कला को बचाने के दावे सिर्फ फाइलों में कैद हैं।



बनारस शहर के ज्यादातर कुम्हार गुल्लक, कुल्लड़, परई आदि बनाते हैं। नई बस्ती के एक कुम्हार सरवन बताते हैं,-ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ था कि महीनों बोहनी ही न हुई हो। गर्मी में लस्सी की दुकानें खूब लगती है। कुल्लड़ों से ही उनकी खासी कमाई हो जाती थी। मिट्टी के बर्तनों से घर भरा पड़ा है, लेकिन बिक कहीं नहीं रहा है।


मिट्टी के बर्तन बनाने वाले राजाराम प्रजापति ने बताया कि दूरदराज से मिट्टी खरीद कर लाते थे। लॉकडाउन के चलते मिट्टी भी नहीं मिल रही है। कई लोग ब्याज पर रकम लेकर काम करते हैं। सीजन से पहले तैयारी शुरू कर दी गई थी। हालांकि अब बिक्री न होने से मूलधन लौटाना कठिन हो गया है। हालात यही रहे तो दीपावली के लिए लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों संग अन्य चीजें बनाने में भी दिक्कत होगी।


बनारस में कुम्हारी कला से जुड़े करीब एक हजार परिवार हैं। इसमें ऐढ़े, इदिलपुर, नई बस्ती, भट्ठी, आयर, उदयपुर आदि इलाकों में कुम्हार की चकरी घुमती है। ये शिल्पकार मिट्टी पर कला उकेर कर अपना पेट भरते हैं। होली के बाद लग्न शुरू हो रही थी, इसके लिए कुम्हारों ने पहले से तैयारी कर ली थी। कई कुम्हारों ने सीजन देखकर कर्ज लेकर मिट्टी के कलश और बर्तन बना डाले थे। लग्न तेज थी इसलिए इस बार कमाई अधिक होने की भी पूरी उम्मीद थी।


बनारस में प्रजापति समाज के महामंत्री कृपाशंकर प्रजापति कहते हैं कि नई पीढ़ी कुम्हारी कला को सीखने के लिए तैयार नहीं है। कुम्हारी कला को तबज्जो नहीं दिया गया तो आने वाली पीढ़ी इसे तस्वीरों में ही देख पायेगी। बनारसी कुल्हड़ को बचाना है तो इस कला को पर्याप्त संरक्षण देना होगा। प्रजापति समाज के उत्थान के लिए संघर्ष कर रहे लालजी चक्रपाल, चंद्रमा प्रजापति और राजेश प्रजापति ने मांग उठाई है कुम्हार समाज को आदिवासी का दर्जा और अनुसूचित जनजाति को मिलने वाली सुविधाएं मिलनी चाहिए। कुम्हारी शिल्प कला उद्योग निगम की स्थापना की जाए। खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड में कुम्हारों को प्रतिनिधित्व मिले। शिल्प कला महाविद्यालय की स्थापना की जाए। भूमिहीन कुम्हारों को भूमि और मुफ्त आवास भी दिया जाए।



लाकडाउन के मझधार में फंसी जीवन नैया


काशी में थम गया चप्पुओं का सुरीला संगीत


बहुत पुराना गाना है, ‘नदिया चले रे धारा, चंदा चले रे तारा, तुझको चलना होगा’। इस गाने को रोज गुनगुनते हैं  मांझी समाज के लोग। कोरोना ने इन्हें तोड़कर रख दिया है। नाव के चप्पू लाक हो गए हैं। कोई मछली बेच रहा है तो कोई सब्जी। लाकडाउन इतना लंबा चला कि इसका लाक खुलने का नाम ही नहीं ले रहा है।



दशाश्वमेध घाट पर सालों से नाव चला रहे हैं केदार साहनी। जब से उन्होंने होश संभाल है, तब से गंगा ही उनका सहारा रहीं। लाकडाउन हुआ तो रोजी-रोटी छिन गई। उम्मीद ही नहीं था कि इतना लंबा खिंचेगा ये लाकडाउन। केदार कहते हैं, -कोई भूलकर गंगा घाट पर नहीं आ रहा है। पुलिस का तगड़ा पहरा है। चप्पुओं का सुरीला संगीत थम गया है। बनारस के 84 घाटों पर सन्नाटे की चादर पसरी है। जून के बाद जुलाई में बाढ़ आ जाएगी। नाव तब भी नहीं चल पाएगी। मतलब पूरा साल गया लाकडाउन में।



मीरघाट की सीढ़ी के समीप माथे पर हाथ धरे बैठे मिले दुर्गा प्रसाद साहनी। इनके होठों पर लाचारी की पपड़ी जम चुकी है। कहते है, -पहले हमें गंग पुत्र कहा जाता था। अब ये नावें हमारी जान लेकर रहेंगी। हम सब्जी भी नहीं बेच सकते। लोग क्या कहेंगे? अब सुबह-शाम गंगा को निहार रहे हैं।


बनियान और लूंगी पहने, सिर पर गमछा लिए एक घाट पर गुमसुम बैठे मिले मुनसुन साहनी। ये रामनगर में  नाव चलाते हैं। आते-जाते लोगों से पूछते हैं,-आखिर कब खुलेगा लॉकडाउन। दरअसल, नौकायन बंद होने से इनका बजट बिगड़ गया है। कुछ ऐसी ही बेबसी शम्भू साहनी की भी है। वो कहते हैं,-घर बैठ कर खाइए तो धन कुबेर का भी खत्म हो जाता है। हम तो इंसान ठहरे। प्रदीप साहनी, सत्यनारायण साहनी, मुरारी लाल कश्यप कहते हैं कि उन्हें लाकडाउन ने बुरी तरह तोड़कर रख दिया है।


 



भोथरा हुआ उस्तरा, कैंची कंघी की तकरार हुई बंद


नाइयों की हालत खस्ता, सैलून वाले भी बेहाल


एक छोटा सा झोला हाथ में लिए, बाएं कंधे पर नीला गमछा लटकाये, टेरिकॉट का कुर्ता पायजामा पहने सड़क से गुजरते 52 वर्षीय एक अधेड़ को मुहल्ले के एक युवक ने आवाज लगाई दीना चचा सुनिए ...! दीना इलाके के पेशेवर नाई हैं। लॉकडाउन में सैलून बंद है। दीना के सामने रोजी-रोटी का संकट है। लोगों के आग्रह पर वो इन दिनों घर-घर जाकर हजामत बना रहे हैं।



दीना कहते हैं,-ढलती उम्र के इस पड़ाव पर हम अपने पुश्तैनी धंधे को नहीं छोड़ सकते। दूसरा धंधा करने के लिए चाहिए अनुभव और पूंजी भी। शहर में नए-नए सैलून खुल गए हैं। पूंजीपति इस धंधे में आ गए हैं। हमारा पुश्तैनी धंधा तो पहले से ही चौपट हो चुका है। लाकडाउन में तो आफत ही आ गई। तेलियाबाग के सैलून संचालक बबलू कहते हैं, -पहले रोज काम करते थे तब भरता था पेट। अब पानी का सहारा है। लाकडाउन की आफत जो टूट पड़ी है। दशाश्वमेध मार्ग पर सैलून चलाने वाले शमीम का दर्द कुछ अलग है। कहते हैं, -लोग मानने लगे हैं कि हमारे औजार से कोरोना फैलने का खतरा है। इस गलतफहमी ने हमारा धंधा ही चौपट कर दिया है। लाचारी में हमें आलू बेचना पड़ रहा है। शमीम बिहार के सासाराम के रहने वाले हैं। इन्हें लगता है कि अबकी ईद भी नहीं मना सकेंगे।



‘चाय की नगरी’ में ठंडी हो गई ‘चाय की चुस्की’  


बंद हो गई गप्पबाजी और सियासी चर्चाएं


टूटी भट्ठियां... दुकानों व गुमटियों के बंद दरवाजें... चौकियों पर पड़े धूल... ये हालत हो गई है ‘चाय वाले’ की नगरी काशी के चाय वालों की। कोरोना के कारण एक दिन की ‘जनता कर्फ्यू’ के बाद चरणबद्ध तरीके से लागू हुए ‘लॉकडाउन’ ने चाय वालों को भी कम नहीं रूलाया है। चाय की दुकान पर सुबह-सुबह मुफ्त की अखबार के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए राजनीति पर चर्चा करने का माहौल अब देखने को नहीं मिल रहा है। रोजाना भोर में भट्ठियों व गैस चूल्हों पर चाय बनाने वाले दुकानदार इन दिनों लॉकडाउन का करारा दंश झेल रहे हैं। अड़भंगी नगरी काशी में देश की ताजातरीन खबरों पर रायशुमारी करते हुए गपबाजी बंद हो गई है। लोग दुकानों पर चाय की चुस्की नहीं ले पा रहे हैं। वो जाए जो लोगों को तरोताजा करती थी। इनके चेहरे पर लॉकडाउन में मायूसी अब साफ-साफ झलकने लगी है।


अपना दर्द बयां करते हुए बनारस के चाय वालों ने ‘20 लाख करोड़ में’ उनके लिए क्या है, बस यही सवाल पूछा? हालत यह हो चली है कि कुछ चाय वाले अपने घर के बाहर सब्जियां बेचकर परिवार का पोषण कर रहे हैं। वहीं कुछ दुकानदार मंडियों में दूध बेचकर गुजर-बसर कर रहे हैं। जिन चायवालों के घर में गाय-भैंस हैं, वे गोबर की पथरी भी बेच रहे हैं। हाय रे कोरोना...! का दम्भ भरते हुए कुछ चायवालों ने बताया कि इतने बरस हो गए लेकिन आज तक ऐसा भयावह नजारा नहीं देखा।


हुकुलगंज के चाय बेचने वाले गोपाल यादव बताते हैं कि लॉकडाउन में दुकानें बंद होने के बाद पूरी कमाई मर गई। थोड़ी-बहुत जो जमापूंजी थी धीरे-धीरे सब खत्म हो गई। आज तक ऐसा समय देखने को नहीं मिला। पुलिस की सख्ती के कारण चोरी-छिपे भी दुकान खोलने की हिम्मत नहीं होती। दुखड़ा सुनाते हुए उन्होंने बताया कि चार बच्चों का परिवार है। पढ़ाई-लिखाई से लेकर राशन का खर्च सब चाय की दुकान से ही चलता था, कमाई खत्म होने से परिवार चलाना अब मुश्किल हो गया है।


मलदहिया में चाय की दुकान चलाने वाले लालू यादव बताते हैं, -सरकार की ओर से हमारी दुकानों के लिए कोई निर्णय नहीं लिया गया। लॉकडाउन से पहले हर सुबह दुकान खोलता था तो एक उम्मीद रहती थी कि शाम तक कुछ आमदनी हो जाएगी। साग-सब्जी से लेकर हर छोटी-मोटी जरूरतों के लिए अब सोचना पड़ रहा है। घर में रहते-रहते अब मन उबाऊ हो चला है। चाय वालों की रेंगती जिंदगी पर कोरोना का कहर इस कदर बरपा कि उनकी जिंदगी की सारी उम्मीदें टूटती जा रही हैं।


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