चिरईगांव का अचार-मुरब्बा चटकर गया कोरोना, बंद हो गई कई फैक्ट्ररी, दो महीने में गल गए लाखों
-जो दाग कोरोना ने दिये, वो 54 साल में किसी ने नहीं दिया
वाराणसी। जिस अचार मुरब्बे की शान पर इतराता था चिरईगांव। देश विदेश में जाना जाता था। कोरोना से उपजे लॉकडाउन ने खटमिटिया जायके को ‘धोबी पाट’ दे दी है। पूर्वांचल में अचार और मुरब्बे की नींव डालने वाले अब चारों खाने चित हैं। 54 साल में जो रवानी मिली थी, वह कुछ दिन में जाम हो गई। काम काज ठप हो गए और अब बचा है तो लम्बा इंतजार, जिसका अंत नहीं दिख रहा।
प्रोडक्शन की बात तो सूझ ही नहीं रही। पिछले साल का बचा है, वहीं निकल जाय को भला जानिए। चिरईगांव में आचार मुरब्बे की नींव डालने वाले निर्माता अजय कुमार बैठे ठाले हो गए हैं। शरीर को जैसे जंग लग गया है। चेहरे की उदासी बता रही थी कि इस बार लॉकडाउन ने क्या गजब ढाया है। अजय कुमार बताते हैं कि 1966 में चिरईगांव में अचार और मुरब्बा बनाने का कॉनसेप्ट वही ले लाये। तब से लेकर अबतक बड़े पैमाने पर सप्लाई और प्रोडक्शन उनकी कंपनी मारवेल न्यूट्रीमेंट प्रोसेस करती है। पूर्वांचल से लगायत अन्य जगहों पर अचार और मुरब्बे की सप्लाई होती है। उनके इस काम ने दर्जनों को भी रोजी-रोटी दी। वो बताते हैं कि दो महीने में पांच से सात लाख रुपये की चपत लगी है। जिस स्केल पर हम काम करते हैं वहां इतना नुकसान, सहनीय नहीं। क्या होगा, यह भी पता नहीं। ये तो केवल अजय कुमार की कहानी है। चिरईगांव में ऐसे और भी हैं जो इसी काम से जुड़े हैं और लॉकडाउन में सब ठप चल रहा है।
वाराणसी से लगभग 10 से 12 किलोमीटर दूर स्थित यह एक ऐसा गांव है जहां महिलाओं द्वारा मुरब्बा, अचार और पापड़ बनाए जाते हैं। इस गांव में लगभग 80% आबादी यही काम कर रही है। इस गांव का मुरब्बा दूर-दूर तक फेमस है, यहां का मुरब्बा और आचार उत्तर प्रदेश और बिहार के बाजारों में जाता है। इस गांव में ऐसे कई स्वयं सहायता समूह हैं जो गांव की महिलाओं के साथ जुड़कर काम कर रहे हैं। यह गांव नारी सशक्तिकरण के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है, इनके काम को अधिक से अधिक बढ़ावा देने के उद्देश्य से भी इस गांव में विलेज टूरिज्म को प्रमोट करने की बात कही जा रही है। लेकिन कोरोना बाधक बनकर उभरा और उम्मीदों को चारों खाने चित कर दिया।