भरोसे की आंख ने रुला दिए खून के आंसू, ‘ये जो हालात हैं, यकीनन एक दिन सुधर जाएंगे, पर अफसोस के बहुत से लोग दिल से उतर जाएंगे’
दोहरा संकट : कहां आ रहे हो भइया, लौट जाइए, यहां आपका स्वागत नहीं है!
खाली पेट मीलों चले पैदल, खाए पुलिस के डंडे और गांव पहुंचे तो मिली तल्खी
कोरोना महामारी के चलते पलायन कर चुके लोगों के लौटने पर गांवों में दहशत
पुलिस-प्रशासन को बुला रहे लोग, गांव से बाहर किया जा रहा क्वारनटाइन
विजय विनीत के साथ रवि प्रताप सिंह
सीन-एक
कोरोना संकट का मुश्किल दौर। कठिन समय में अपने गांव-घर पहुंचने के लिए पैदल नापते सड़क। कुछ अभी रास्ते में हैं और कुछ परदेश में फंसे हैं। भीषण गर्मी और बारिश झेलते हुए निकले हैं तमाम लोग। किसी की रात सड़कों पर बीत रही है, तो कुछ की फुटपाथों पर बीत रही हैं। कंधों पर थैला टांगे। छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लिए निकला है कारवां। कुछ ट्रकों से आ रहे हैं तो कई लोग घर-गृहस्थी और बच्चों को साइकिल पर लादकर। हैंडल पर सिर टिकाए सोते बच्चे को लेकर मीलों दूर से लेकर बनारस तक का सफर एवरेस्ट पर चढ़ने से कम नहीं। कुछ के पैरों में छाले हैं तो कई अपने मां-बाप को कंधे पर टांगे श्रवण कुमार की याद दिला रहे हैं। किसी को दो रोटी मयस्सर है तो किसी को फांका। पेट में लगी आग हस्ती जला रही है तो पुलिसिया जुल्म कोढ़ में खाज की तरह रही। न जाने कितनी कहानियां एक साथ अनगिनत पटकथा सड़कों पर रच रही हैं। भारत विभाजन में लोगों का मरना, एक भयानक त्रासदी थी तो पैदल भागती जनता, एक दूसरे खौफ की दास्तां पेश कर रही है। लेकिन ये जो भागम-भाग है, उसमें एक अदृश्य मर्ज का शिकार हो जाने की आशंका है, जिसे पहले किसी ने भोगा ही नहीं है।
सीन-दो
गुजरात के सूरत से 18 लोग जाल्हूपुर इलाके के धर्मपुर गांव में एक साथ पहुंचे। परदेश से आने वालों को जरुर इतना संतोष था, संकट दूर हुआ, अब अपनों के बीच आ गए। मगर यह क्या! कहां खुशी जताते कि समर से बच आए योद्धाओं जैसा स्वागत होगा। लेकिन यहां तो अपने ही बेगाने हो गए थे। गांव वालों ने दूर से हाथ की छाया आंखों पर बनाकर देखा। अपने परिजनों को एलर्ट का रिंग बजाया। फिर बोले-अरे यहां क्यों आ गए, यहां खतरा क्यों रोप रहे हो? वापस चले जाओ। आप लोग यहां अवांछित हैं। कोई आपको नहीं चाहता। फिर मोबाइल पर पुलिस का नंबर मिलाया और कर दी मुखबिरी। प्रवासी सोचने लगे, हम अपनों में ही बेगाने हो गये। 302 या 376 के मुजरिम हैं क्या जो पुलिस बुला लिया। थाना पुलिस गांव में आ गई। सबको अलग-थलग कर दिया गया। घुड़साल सरीखे एक अहाते में चौदह दिनों के लिए क्वारंटाइन होकर 13-12 और 11 की उलटी गिनती गिन रहे हैं।
सीन-तीन
जाल्हूपुर इलाके के एक गांव के भरत सिंह के भाई बृजेश सिंह मुंबई में रहते थे। कुछ दिनों पहले बीमारी से वहीं उनकी मौत हो गई। बृजेश की विधवा और उसके तीन बच्चे मुंबई में फंसे हैं। खाने-पीने के लिए इनके पास फूटी कौड़ी नहीं है। फोन पर बच्चे रो रहे हैं..., बिलख रहे हैं। भरत का कलेजा फट रहा है, लेकिन करें क्या? इनके एक और भाई मुंबई में मजूरी करते हैं। लाकडाउन के समय ही एक दुर्घटना हुई। हाथ-पैर दोनों टूट गए। इनका परिवार भी वहीं है। चाहकर भी ये संकट की घड़ी में घर नहीं लौट पा रहे हैं। भोजन के लिए मुंबई में मारे-मारे फिर रहे हैं। भरत की भी माली हालत ठीक नहीं है। मजदूरी जमा कर वो भाइयों को भेज रहे हैं। कहते हैं कि गांव लौट पाते तो कुछ भी करके परिवार पालते। इस समय उनका परिवार सरकारी राशन के भरोसे है। वे इस समय किसी भी तरह अपने परिवार के साथ होना चाहते हैं, लेकिन चाहने से होता क्या है। कोरोना और लाकडाउन जो है।
कोरोना संकट में सैकड़ों किलोमीटर का सफर करके लौट रहे प्रवासी कामगारों के साथ गांव और घरों में जो सलूक हो रहा है वो दिल दहलाने वाला है। वो मजदूर परेशान से ज्यादा हैरान हैं, जो जान पर बनीं तो जड़ों को लौटे। पर यहां भी किसी को उनकी चाहत नहीं है। जो लौट आए हैं उनमें से कइयों के पास गांव में भी खाने-रहने तक का पैसा नहीं है। पहले वे शहर में परेशान थे और अब वे गांव में फांकाकशी को विवश हैं। इन्हें मदद की दरकार है, लेकिन ये कामगार हर जगह से दुत्कारे और फटकारे जा रहे हैं। हालत ये हो गई है कि परदेश से लौटने वालों को गांवों में घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। उन लोगों को भी अपने घरों में ही नहीं घुसने दिया जा रहा है, जिनकी कई जांच हो चुकी हैं और प्रशासन ने उन्हें घर में क्वारनटाइन करने का निर्देश दिया है। उसने पता करने की जहमत नहीं उठाई कि इन हालात में क्या होगा। हालत यह है कि परदेश से लौट रहे लोगों को रोकने के लिए चिरईगांव इलाके के कई गांवों में लाठियां तक निकल आई हैं।
वीरान गांवों में लौटे प्रवासी
बनारस में सैकड़ों गांव हैं जो युवाओं के पलायन के चलते वीरान हो गए थे। कुछ गांवों में इक्का-दुक्का परिवार ही रह रहे थे। अब उन गांवों में भी वापसी लोग कर रहे हैं। लेकिन उनका स्वागत नहीं हो रहा है। ऐसा किसी न सोचा नहीं था। अभी तो ऐसे हालात नहीं थे, ये लोग बदल कैसे गए। कोरोना की दहशत ने लोगों को संदेह से भर दिया है। ढाब इलाके की नखवां बस्ती के कई घरों में बरसों से ताले लटके थे। बहुत कोशिश के बाद भी ये लोग अपने घर नहीं लौटे, लेकिन कोरोना का संकट आया तो रहने वापस आ गए। अब गांव वाले आशंकित हैं कि कहीं ये अपने साथ संक्रमण न लेकर आए हों। ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं नदारद हैं। लोग चाहते हैं सरकार इन पर रोक लगाए।
धर्मपुर के सौरभ और अमित मुंबई में ओला कंपनी में ड्राइवरी करते थे। परिवार वालों की माली हालत ठीक नहीं थी। गांव में कोई काम नहीं था। मुंबई गए तो कमाई भी घर भेजी। सबके सपने पूरे किए। कोरोना संकट का दौर आया तो भागकर गांव आए। इनके घर वाले खुद इन्हें अंदर नहीं घुसने दे रहे हैं। ये हाल तब है जब इनकी दो-तीन जांच हो चुकी है। दोनों युवक अपनी जांच की पर्चियां भी दिखाते हैं। साथ ही गांव वालों के सामने बार-बार सफाई देने की कोशिश करते हैं कि हमें खांसी-बुखार और कोरोना जैसे लक्षण नहीं है। धरमपुर वालों को इनकी बातों में तनिक भी यकीन नहीं है। घर की तरफ इनके पांव भी बढ़ते हैं तो फिल्मी अंदाज में लाठी-डंडे निकल जाते हैं। चार दिन हो गए। घर वाले अनमने भाव से भोजन की थाली पहुंचा रहे हैं। धरमपुर वालों के बदले रवैये से सौरभ और अमित आहत हैं। दोनों कहते हैं,-पहले जब हम मुंबई से लौटते थे हर कोई मिलने के लिए आतुर रहता था। सबकी फरमाइशें पूरी करते थे। दावतों का दौर चलता था। इस बार आए तो सबकी नजरें बदल गईं और गांव के नजारे बदल गए।
अपने कर रहे बेगानों जैसा सुलूक
चिरईगांव से सटे धरमपुर गांव में हमारी मुलाकात दीपक, मिंटू, सोनू, राम प्रसाद आदि से हुई। ये सभी सूरत की एक फैक्ट्री में कपड़ों पर एंब्राइडरी करते थे। वे अपने घर जाना चाहते हैं, लेकिन सभी को जबरिया एक अंधेरे कमरे में रोक दिया गया है। खाना-पानी तो घर वाले दे जा रहे हैं, लेकिन पड़ोसी और मित्र सिर्फ ताना-उलाहना दे रहे हैं। सवाल दर सवाल किया जा रहा है, ‘क्यों चले आए घर। सालों से कमा रहे थे। महीने-दो महीने खाने का इंतजाम भी नहीं कर सकते थे।’ यही हाल है, सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।
दीपक कहता है, ‘ सब्र का कितना इम्तहान देंगे। पांच बार मेडिकल जांच हो चुकी है। हमारी पत्नी पूनम और तीन बच्चे-पीहू, संस्कृति व लतिका का हाल ऐसा नहीं है कि जो अंधेरी कोठरी में चौदह दिन की सजा झेल पाएं। वो भी ऐसी सजा, जिसके लिए उन्होंने कोई गुनाह ही नहीं किया था। सजा तो छोड़िए। ताने दिए जा रहे हैं कि हम कोरोना लेकर लौटे हैं। हमें उम्मीद नहीं थी कि अपने लोग हमारे साथ ऐसा बर्ताव करेंगे। इसका पता होता तो हम शायद मर जाते, मगर नश्तर की तरह चुभने वाले ताने सुनने गांव कतई नहीं लौटते।’ उसने ये भी कहा, ‘ये जो हालात हैं, यकीनन एक दिन सुधर जाएंगे, पर अफसोस के बहुत से लोग दिल से उतर जाएंगे।’
बनारस से सटे ऐढ़े गांव के सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद पांडेय कहते हैं, ‘ महामारी का प्रकोप ही ऐसा है। अपने भी विषधर लगने लगे हैं। गांव में प्रवासी मजदूरों के आने से पहले ही हड़कंप और हंगामा मचने लग रहा है। गांव भर के लोगों की धड़कन बढ़ जा रही है। भारत में जब प्लेग फैला था तब भी ऐसा हाल नहीं था। अब तो लोग पल भर में पुलिस को बुला दे रहे हैं। ’
अरविंद की बातों में सचमुच बहुत दम है। हरहुआ ब्लाक के इंद्रवार गांव में है एक प्राथमिक स्कूल। इसे क्वारेन्टीन सेंटर बनाया गया है। मुंबई, गुजरात, राजस्थान से आए करीब 15 प्रवासी ठहरे हुए हैं। ये बताते हैं कि घर पहुंचने से पहले ही उन्हें क्वारेन्टीन सेंटर का रास्ता दिखा दिया गया। एहसास हुआ कि हमारे अपने लोग ही हमें जहरीले नाग की तरह देख रहे हैं। इंद्रवार के स्कूल का हाल जानिए। यहां न बत्ती-पंखा है, न सोने का कोई इंतजाम। इसी सेंटर में ठहरा हुआ है 22 साल का एक लड़का। वो राजस्थान में मजूरी करता था। कोई खाना देने नहीं पहुंचा। इसकी मां संगीता दिल पर पत्थर रखकर खाना लेकर पहुंचीं। भोजन रखकर वो इस तरह से भागीं जैसे दिन में ही भूत देख लिया हो। माता को कुमाता होते इसी कोरोना ने दिखाया। संगीता ने कहा, -का करल जा, करउना जियल मुहाल कय दिहले बा। केहू अपन ना लगत बा। 14 दिन बाद सब ठीक हो जाई। यह कहानी सिर्फ एक प्रवासी की नहीं, सबकी है। कोरोना ने परदेश से आने वाले हर किसी को अपनों से अलग कर दिया है। आकाश राजभर और विजय पाल कहते है कि जब मुसीबत उठाकर घर आ गए हैं तो कुछ दिन और बाहर गुजार लेंगे।
आयर में प्राथमिक स्कूल में भी बीस लोग क्वारेन्टीन हुए थे। हिदायत देकर अब सभी को घर भेज दिया गया है। इन्हीं में एक हैं संजय कन्नौजिया। दोस्तों और पड़ोसियों ने इनसे मुंह मोड़ लिया है। मुम्बई से लौटे पप्पू यादव कहते हैं कि चौदह दिन का क्वारटिन साल-दो साल की जेल की सजा से बड़ी है। बिना किसी गुनाह के ये सजा अपने दे रहे हैं। आयर में रमेश कन्नौजिया भी परदेश से आए हैं। परिवार में छह सदस्य है। रहने के लिए सिर्फ एक घर। दिनेश कन्नौजिया के पास भी एक ही मकान है और रहने वाले सात हैं। पड़ोसियों को कोरोना संक्रमण का खौफ सता रहा है।
दागे जा रहे हैं सुलगते सवाल
परदेश से बनारस लौटने पर प्रवासियों से कई सुलगते सवाल किए जा रहे हैं। ऐसे सवाल जो उन्हें नश्तर की तरह चुभ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि शहर में ऐसा कौन सा रोजगार कर रहे थे कि दो महीने भी गुजारा न हो सके? बड़ागांव प्रखंड के एक किसान रणजीत सिंह कहते हैं, -दस-पंद्रह बरस से यूपी से बाहर काम कर रहे युवा लॉकडाउन के 24 घंटे नहीं झेल सके? क्या इतने समय में इनके पास रहने की अपनी कोई जगह नहीं थी? अपने पास खाना बनाने की व्यवस्था नहीं थी? जो अपनी खेती की जमीन बंजर छोड़कर चले गए, अपने घरों पर ताले लगाकर चले गए, क्या ये 21 दिनों तक वहीं गुजारा करने लायक नहीं थे?
परदेशियों का पहुंच रहा है रेला
चिरईगांव इलाके में पड़ताल के दौरान पता चला कि चांदपुर में 35, कुकुडा में 47, जाल्हूपुर में 60, छाही 35, मुस्तफाबाद में 60 और ढाब इलाके के गांवों में सैकड़ों लोग अपने घर लौटे हैं। चोलापुर के दानगंज, बेला, रौना, टिसौरा, लखनपुर, जगदीशपुर, भीदूर, धरसौना समेत कई गांवो में प्रवासियों के आने का क्रम जारी है। ये वो लोग हैं जो कभी अपने परिजनों की भूख की दवा हुआ करते थे। सरसौल, चुकहा, नरायनपुर तोफापुर, उमरहा समेत कई अन्य गांवों में बड़ी संख्या में प्रवासी कामगार पहुंचे हैं, लेकिन ग्रामीण उनसे खुश नहीं हैं। उन लोगों के भी सुर बदल गए हैं जो घर लौटते ही नोटों की गड्डियां देख नागिन की तरह नाचने लगते थे। आज गड्डी रूपी बीन नहीं है प्रवासियों के पास।