भारत में मजदूर होना क्या अभिशाप है? : डॉ. अखिलेश चन्द्र


डॉ0 अखिलेश चन्द्र 

फ़िल्म 'मजदूर'का एक गाना जिसे महेन्द्र कपूर जी ने आवाज दी थी आज बरबस याद आ रहा है-'हम मेहनतकश इस दुनियां से जब अपना हिस्सा मांगेगे, एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं, हम सारी दुनियां मांगेंगे। 'दिलीप कुमार, राज बब्बर पर फिल्माया यह गाना मजदूरों की कहानी बड़े बेबाक़ी से उठाता है। इस गाने के बोल में मजदूर का जो आत्म विश्वास है, जो उम्मीद है, जो सपने देखने और उसे सच करने का जज्बा है, जो उमंग है, जीवन तरंग है, खुशियों को छीन लेने का माद्दा है, अपनी शर्त पर जीवन जीने का जो उल्लास है वो सब मजदूर अपने पसीने से कर सकता है या यूँ कहें कर सकने का हौसला रखता है पर आज उसकी यह आशा छीड़ हो रही है या छिन रही है।

मजदूर काम करने से कभी भी पीछे नही रहता ,वो तो नित तुम्हारे शहर के  रोजगार के चौराहों पर मेहनत करने के लिये घर से रोजगार की तलाश में असंगठित या संगठित क्षेत्र में काम करने के लिये निकल पड़ता है। अपने गांव से कई किलोमीटर या कभी-कभी कई सौ किलोमीटर। एक जिला नही, कई जिला या कभी- कभी कई राज्य पार करता हुआ आ पहुँचता है तुम्हारे मेट्रो पोलिटन सिटीज में। अपना सब कुछ गाँव, घर, रिश्ते-नाते पीछे छोड़कर आ जाता है सिर्फ और सिर्फ पेट के लिये जिसे उसे रोज सुबह -शाम भरना पड़ता है, कुछ खाद्यानों से जो उसे नही मिलता अपने गाँवों में अपने राज्यों में या यूँ कहें कभी-कभी अपने देश में। वो कर जाता है पलायन अपनी बेहतरी के लिये इस शहर, उस शहर इस देश या उस देश।

दूर जब ठीक- ठाक कमाई चलती रहती है तो वह अपने आपको गाँव से या राज्य से या कभी-कभी देश से जोड़ने की जद्दोजहद करता रहता है और अपने आपको फ़िल्मी गानों के माध्यम से जोड़ता है कि वह किसी से अलग नही हुआ है। तभी तो इन भावनात्मक गानों को इतनी ऊंचाई भी मिल जाती है। कौन नही जानता कि फ़िल्म 'बॉर्डर' का यह गीत- 'संदेशे आते हैं, हमें तड़पाते हैं, वो चिठ्ठी आती है, पूंछ जाती है, के घर कब आओगे, लिखो कब आओगे। फ़िल्म में यह गीत हालांकि सैनिकों के लिये फिल्माया गया है पर इसमें एक टीस हर उस आदमी की है जो अपने घर, अपने गांव, अपने देश से दूर है । सभी मेहनतकश के अपने घर से दूर होने का कारण  एक है । अपनी जगह पर काम का न होना।

आज का दौर कोरोना ( कोविड 19 ) का संकट का दौर है। आज एक वायरस ने पूरी दुनियां को तहस-नहस कर रखा है। क्या विकसित? क्या अविकसित? क्या विकासशील सभी की हालत एक जैसी। किसी को कुछ न तो समझ में ज्यादा आ रहा है और न ही इलाज। इलाज के नाम पर ले दे के मात्र एक उपाय जो समझ में आया और जो सर्वथा उपयुक्त भी है हर जगह लॉकडाउन। जब तक वैक्सीन न आ जाय तब तक लॉक- डाउन।

लॉकडाउन में जिनके पास खाने-पीने की सामग्री है, जिनका अपना घर है, जिनके पास अपना बना बनाया रुतबा है उनकी तो घर में रहकर ले दे के कट ही रही है। कोई ख़ुशी ख़ुशी लाकडाउन काट रहा है, तो कोई उदासी के साथ, पर विकल्प भी यही है सो जो जैसे है बस काट रहा है। लाकडाउन 1,2,3 का जो दौर चला । प्रथम में तो मजदूर थोडा धैर्य बनाकर चला, द्वितीय के आगे चलने पर उसका धैर्य जवाब देने लगा। कारण सिर्फ धैर्य का नही था, उसके पास खाने के लिये अन्न नहीं, रहने के लिए घर नहीं, पहनने के लिये कपड़े नहीं, दवा के लिये पैसे नहीं, पीने के लिये पानी नहीं। जितने जरूरी सामान जीने के लिये आवश्यक हैं सभी के लिये सिर्फ और सिर्फ नहीं।

जगजीत सिंह जी की गजल -'गाँव मेरा मुझे याद आने लगा 'मरता क्या न करता,रोता-गिड़गिड़ाता कुछ दिन किसी तरह काटने के बाद आखिर उसे उसका गाँव जिसे वो अपने ज़ेहन में गीतों में याद करता था चल पड़ा उसी गाँव की ओर।

अब नहीं चाहिये उसे सरकारों के कोरे आश्वासन,नहीं चाहिये उसे किसी नेता की चिकनी चुपड़ी बातें, नहीं सुननी उसे अब रोज रोज की आंकड़े बाजी। उसने जब भी देखा क्या था उसके पास सिर्फ वही जिसे उसने खुद मेहनत करके कमाई और बनाई।सरकारें आती है, सरकारें जाती है वो बेचारा वही खड़ा रहा जाता है जैसे फ़िल्म 'कुली' का अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गाना-'सारी दुनियां का बोझ हम उठाते है, लोग आते हैं, लोग जाते है, हम यही पर खड़े रह जाते हैं, सारी दुनियां का बोझ हम उठाते हैं।'

जाने कहा चले जाते हैं वो लोग जो कहते हैं-'मजदूर को उसकी मजदूरी उसके पसीने के सूखने के पहले मिल जानी चाहिए।' आखिर ये लोग भी कहाँ है, सरकार करेगी या नही, कर रही है या नही यह तो विवेचना का विषय है । हालांकि अगर कर रही हैं जैसा वो कह रही हैं तो मजदूरों को उन पर भरोसा क्यूँ नहीं हैं। अगर उनका भरोसा मजदूर नही कर पा रहा है तो क्या मजदूर सिर्फ विवश है। हाँ! सिर्फ और सिर्फ मजदूर विवश हैं।

जिसे भी उनकी विवशता न समझ में आएं वो ज़रा उनकी दीनता को देखें और समझे हम सभी को ज्यादे न समझाये। आप अपने 5 से 10 साल के बच्चे को 2 से 3 मिनट अपनी गोंद में नही उठा सकते वो भी अपने घर के A C हाल में। आज बाहर का तापमान 40-45 डिग्री है और मजदुर अपने बच्चे, अपनी माँ, अपने सामान अपनी गोंद में लिये 400-1400 किलोमीटर पैदल, साईकिल, रिक्शा, कही-कही ट्रक, ट्राली, सीमेंट ट्रक में चलने को मजबूर है। उसके पास पैसा नही है, कोई अपना मोबाइल बेच कर जीवन से जद्दोजहद कर रहा है, कोई अपनी पत्नी का मंगलसूत्र बेच रहा है, कोई सर पर कब्बल लादे जा रहा है, कोई किसी तरह गाँव अगर पहुँच भी जा रहा है तो अत्यधिक थकान के कारण एक या दो दिन में दम तोड़ दे रहा है। यह सब मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटनाएं हैं इसे सदियों तक याद करके आने वाली आने वाली पीढियां हम सभी से  सवाल करेंगी, कि आप उस समय कि बात कर रहें है जब भारत में 1947 से ज्यादा 2020 में एक राज्य से दूसरे राज्य या एक देश से दूसरे देश में पलायन हुआ था।

यह पलायन सिर्फ महामारी के लिये नहीं याद किया जायेगा,यह याद किया जायेगा मजदूरो के पलायन के नाम से। अगर कोई पढ़ सकता है तो पढे उस मजदूर के आँखों की कहानी जिसे वो नम आखों से पुरे भारत से पढ़वाना चाहता है। हम कितने काबिल क्यूँ न हो जाय जब एक बेबसी का हल नहीं निकाल पा रहे हैं तो हमे अपनी काबिलियत पर गर्व करना छोड़ देना चाहिए। मत रहिये गफलत में आप पर बीत नही रही है इसका मतलब यह कत्तई नही हैं कि आप पर बीतेगी नहीं।

हाथ में फावड़ा लिये जब मजदूर जमीन से सोना उपजा सकता है तो अपने लिये जीने के लिये वो जमीन को नाप भी सकता है।पर इसमें उसकी हिम्मत है कि वो ऐसा कर सकता है और वो कर भी रहा है।

निराला ने जब 'वह तोड़ती पत्थर' कविता तो किसी एक मजदूरन की कविता थी जिसे उन्होंने प्रतीक स्वरूप लिखा, पर न जाने आज कितनी कविताये रोज इन मजदूरों पर लिखी जा रही हैं। साहित्य का एक नया युग कोरोना युग के नाम से रचा जा रहा है। लोग कहते है साहित्य राजनीति को राह दिखाता है, पर ऐसा होता दिख क्यूँ नहीं रहा है। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया में तथा साहित्य के सोशल मीडिया में इस पर इतना कुछ लिखा जा रहा है पर इनकी सुध कोई क्यूँ नहीं ले रहा।

एक कारण जो थोड़ा समझ में आता है, इनके पास ग्लैमर नही है। आज शिल्पा शेट्टी ने बैगन का भरता बनाया, इस खबर को लोग चटखारे लेकर देखते है चैनेल की टी आर पी बढ़ती है। कौन देखें इन मजदूरों की बेबसी शायद इसलिये इन पर ध्यान कम दिया जा रहा हो।

पर एक बात शायद हम भूल रहें है जिस बैगन के पेड़ का भरता शिल्पा जी बना रही हैं जिससे टी आर पी आ रही हैं वह भी किसी मजदूर ने ही बोया होगा और आज उसमे बैगन फला तो उसकी कमाई कोई और खा रहा हैं।

मजदूर के जिम्मे हमेशा यही आता भी है। घर वो बनाता है-उसमें रहता कोई और हैं, होटल वो बनाता है-उसमे टिकता कोई और है, मल्टी प्लेक्स वो बनाता है-उसमें पिक्चर देखता कोई और है, हवाई पट्टी वो बनाता है-उस पर उड़ता कोई और है, हॉस्पिटल वो बनाता है-पर उसमें इलाज होता किसी और का है, रियल स्टेट के फ्लैट वो बनाता है-उसमें बसता कोई और हैं, लिफ्ट वो बनाता है -उसमें चलता कोई और है, खेती करता वो है-अन्न खाता कोई और है। किस किस का हिसाब लगाइएगा सब मजदूर से होके गुजरता है, पर उसी का कोई नही हैं।

एक तो महामारी,उस पर भुखमरी और उस पर पुलिस का डण्डा अलग। एक दर्द हो तो बताएं यहाँ अनेकों दर्द है और दवा कोई है भी या नही कह नही सकते और अगर है भी तो दिख नही रही।

इस आपा थापी में एक दिन एक मजदूर का इलेक्ट्रॉनिक चैनेल पर एक साक्षात्कार देखने को मिल गया जब पत्रकार ने पूछा-भाई इतनी जिलालत से घर जा रहे हो क्या स्थिति सामान्य हो जायेगी तो तुम यहाँ फिर लौटोगे? मजदूर का जवाब था -क्यूँ नही साहब! इस शहर ने भले हमें यहाँ नही रखा पर हम इस शहर को दिल में बसाते हैं जब भी स्थिति सामान्य हुयी हम फिर भागकर अपने इस हर दिल अजीज शहर में फिर आ जाएंगे।'

ये हैं भारत का मजदूर जिसे सभी ने ठुकरा दिया, लोगों ने हालातो से लड़ने के लिये विवश कर दिया पर उसका जज्बा नही टूटा है, पर आखिर कब तक। आखिर कब चेतेंगें इसके जिम्मेदार लोग।

मजदुर के चलते पाँव उसके गाँव की तरफ बस बढ़े जा रहे हैं और वो मन में मलाल लिये बस ये गुन गुनाते हुए अपने पाँव के छालों के साथ बस बढ़ रहा है-'गंगा किनारे मोरा गाँव हो घर पहुँचा द देवी मईया।'

इस गाने के धुन में वो चल तो रहा हैं पर मन में एक अन्य गाना भी किसी कोने में अपनी जगह बना रहा है-'कहे के तो सब केहू आपन, आपन कहावै बला के बा, सुखवा त सभै केहू बाटै, दुखवा बतावै वाला के बा।'

इतने दुःख के साथ चलता मजदूर भारत की नियति तो नहीं है, भारत का यह स्वरूप भी नहीं हैं, शायद जल्दी दिन बहुरेंगे और हम ये मिलकर गा सकेंगे-फ़िल्म सौतन का राजेश खन्ना और पद्मिनी कोल्हापुरी पर फिल्माया और लता मंगेशकर और किशोर कुमार के अकल आवाज़ो में गाया गीत-'जिंदगी प्यार का गीत है, इसे हर दिल को गाना पड़ेगा,जिंदगी गम का सागर भी है हस के उस पार जाना पड़ेगा।'

इस गाने को गाने के लिये हमें मजदूर की बेबसी को दूर करना होगा। हमें ये देखना होगा कि हमारा कोई मजदूर भाई बिना भोजन के न सो रहा हो, सड़क पर पैदल न चल रहा हो, अपनी माँ को गोंद में उठाया न हो, किसी मॉलगाड़ी के नीचे आकर कट न गया हो, अथवा औरंगाबाद के गैस लीक में अपनी जान न गवां रहा हो, सर पर गठ्ठर लेकर शहर से गाँव न चल दिया हो अन्यथा हमें मजबूरन कहना पड़ेगा-'भारत में मजदूर होना क्या अभिशाप है।

डॉ0 अखिलेश चन्द्र 

आजमगढ़

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