भारत और आधुनिक इंडिया के बीच बढ़ती दूरी.........
अभिनव त्रिपाठी
कोरोना जब फ़ैल रहा था उस वक्त शायद ही ये किसी ने सोचा होगा कि आने वाले समय में यह वायरस महामारी का रूप ले लेगा। लेकिन हुआ ऐसा कि अदृश्य दुश्मन ने देखते ही देखते पूरे विश्व को उनके घरों में कैद कर के रख दिया। भारत भी इससे अछूता न रहा, पिछले करीब 2 महीनों से भारत भी लॉकडाउन है, हालातों को देखते हुए केंद्र सरकार द्वारा 1 लाख 73 हज़ार करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान किया गया लेकिन स्थिति को देखते हुए फिर से 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान किया गया।
लॉकडाउन का असर कोरोना की लड़ाई में तो कारगर साबित हुआ, लेकिन दूसरी ओर जो तस्वीर निकल कर सामने आई वो आंखों को झकझोर कर रख देने वाली है। लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार हुए और सबसे बड़ी मुसीबत के दिन जिसे देखने पड़ रहे वो मजदूरों को देखने पड़ रहे, जो रोजगार की खोज में अपने घरों से अन्य प्रान्तों में गए हैं, आज उनके सामने या यूं कहें कि उनके जीवन में ये स्थिति उत्पन्न हो चुकी है कि एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई है। इन सभी समस्याओ से जूझते हुए वें अपने-अपने घरों को लौट रहें है, सैकड़ों किलोमीटर की दूरी को पैदल ही अपने जान को जोखिम में डालते हुए चले जा रहें हैं।
(Abhinav Tripathi)
भारतीय सभ्यता ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को मानती है और अपने देश समेत पूरे विश्व को एक परिवार मानती है, इन सब के बीच खेद इस बात का है कि प्रवासी मजदूर अपने घरों से देश के विभिन्न प्रान्तों, हिस्सों में फंसे हैं उन्हें जो समस्या झेलनी पड़ रही, उससे ये सभ्यता दूर तक मेल नहीं खाती, राज्य की सरकारें बड़े-बड़े दावे तो मजदूरों के प्रति करती रहीं हैं, लेकिन सब खोखले साबित हो रहें हैं। इन्ही सब कारणों से मजदूर अपने घरों की ओर इस प्रण से लौट रहें हैं कि फिर वें शहरों को नहीं आयेंगें, दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों को इस बात से रूबरू होना पड़ रहा है की वें अन्य प्रान्त के हैं, जो सर्वथा अनुचित है, पूरे विश्व को अपना परिवार मानने वाला देश अपने कुटुंब के भरण पोषण में सक्षम होता नज़र आ नहीं रहा है।
परिदृश्य यही दिखाते हैं कि आज देश दो हिस्सों में बंट गया है एक वें जो शहरों में आलिशान जीवन शैली को जीकर जीवन यापन करते दिख रहें हैं, दूसरा वें जो ग्रामीण परिवेश से ताल्लुक रखते है और अपने घरों को छोड़कर परिवार से दूर अन्य प्रान्तों में मजदूरी और नौकरी कर जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ा रहा है।
इस परिवेश में एक हिस्सा इंडिया है, जो आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है। दूसरा हिस्सा भारत है, जो आज दूसरों पर निर्भर है, घरों से दूर है, पिछड़ा है। भारत और आधुनिक इंडिया में अब अंतर साफ़ देखने को मिल रहा है और ये अंतर अब तो ज्यादा ही होता जा रहा है। आज स्थिति ये बन गई है कि शहरों में रहने वाले लोग जो लॉकडाउन के कारण अपने घरों में कैद हैं, वें इंतज़ार में है कि कब हम खुले शहर में घूम पाएंगे, सिनेमा देख सकेंगे और मौज मस्ती कर सकेंगे? दूसरी तरफ देश के अलग-अलग हिस्सों में कई मजदूर और गरीब परिवार ऐसे भी हैं जिन्हें खाना तक मिल पाना अब संभव सा नज़र नहीं आ रहा। दुनिया घरों में कैद है और ये प्रवासी मजदूर लॉकडाउन में बेघर हो चलें है। ये भारत है जो पिछड़ा है गांव में बसता है और शहरों पर निर्भर रहता है।
आज जरूरत इसे भरने की हैं, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के परिवेश में इतना अंतर कहीं ना कहीं देश के आर्थिक विकास के पहिये को गति देने में बाधक साबित हो रहा है। इस अंतर को भरे बगैर हम विश्व गुरु परिकल्पना को साकार नहीं कर सकते हैं। आज जरुरत सही वस्तु सही जगह तक ले जाने की, जरुरत के सामानों को जरुरतमंदों तक पहुँचाने की हैं, यदि ये अंतर मिटकर शून्य हो गया तो आधी जंग पलभर में जीत जायेंगे।
अभिनव त्रिपाठी
शिक्षार्थी