अंतहीन राह..., कठिन मंजिलें..., धुंधला भविष्य...!, थमता नजर नहीं आ रहा यूपी, बिहार और झारखंड लौट रहे मजदूरों का दर्द
० "घर लौटने को हुए तो स्टेशन से हमें कुत्तों की तरह भगाया गया, अब हम कभी नहीं जाएंगे शहर"
० ट्रक वालों ने वसूला मनमाना किराया, बार्डर पर ही छोड़कर भाग निकले, सड़कों पर खाए डंडे
विजय विनीत के साथ रवि प्रकाश सिंह
वाराणसी। बनारस के ग्रैंडटैंक रोड पर पसीने से सराबोर, थकान से चूर, भूख से बेहाल श्रमिकों की लंबी कतारें, पलायन की उस कहानी की कड़ी हैं जिसका सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसी कई कहानियां सड़कों पर इस समय भी घूम रही हैं। प्रवासी श्रमिकों को कहीं कार वाले धक्के मार रहे हैं तो कहीं पुलिस वाले डंडे। घर वापसी के लिए बेहाल ये वो श्रमिक हैं जो हवाई जहाज से अधिक किराया देने के बावजूद अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाए हैं। सबका सिर्फ एक ही दर्द है, "हम महीने भर पहले घर लौटना चाहते थे। रेल और बस स्टेशनों से हमें कुत्तों की तरह भगाया गया। अब हम कभी नहीं लौटेंगे शहर।"
दशकों के तिरस्कार से आहत प्रवासी मजदूरों का वापस गांवों की ओर पलायन अनोखी बात है। अजूबा यह है कि प्रवासी मजदूरों ने मोटी धनराशि खर्च की। ट्रकों के हिचकोले झेले। मीलों पैदल भी चले, तब भी मंजिल दूर ही रही। दशकों के तिरस्कार से आहत और कमजोर पड़ती खेती-बाड़ी के इस माहौल में ये श्रमिक मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली और चेन्नई जैसे बड़े शहरों की ओर से आ रहे हैं। बनारस की ओर आने वाले ज्यादातर श्रमिक सड़कों पर झुंड में चलते दिखे। दरअसल उनके सामने हालात ही ऐसे हैं। ऐसी मुश्किलें जिसमें सोशल डिसटेंसिंग बहुत दूर पीछे छूट गई है।
वाराणसी में प्रशासन ने उम्दा इंतजाम किया है। राजातालाब में इनके लिए कैंप खोला है। यहां खाने-पीने से लेकर घर तक पहुंचाने तक का इंतजाम है। इस कैंप में सैकड़ों मजदूर शरण लिए हुए हैं। इन्हें घर छोड़ने के लिए शहर भर की स्कूली बसें लगाई गई हैं। स्कूल संचालकों ने खुद ये बसें पुलिस को दी हैं। बारी-बारी से सबको घरों की ओर रवाना किया जा रहा है। हमने तमाम श्रमिकों से बात की। सबने एक ही जवाब दिया, -"हम जल्द से जल्द घर लौट जाना चाहते हैं। अगर बड़े शहरों में रहे तो कोविड-19 से नहीं, तो भूख से मर जाएंगे।"
फ्लाइट से ज्यादा वसूला किराया
कोरोना महामारी को फैलने से रोकने के लिए मोदी सरकार ने जैसे ही लॉकडाउन लगाया, शहरों से गांवों की तरफ प्रवासी मजदूरों का पलायन शुरू हो गया। लॉकडाउन के कारण देश भर में रेल सेवा बंद है। सड़कों पर यातायात भी ठप है। बड़ी संख्या में मजदूर साइकिल अथवा पैदल अपने गांवों की तरफ लौट रहे हैं। कुछ मजदूरों ने पैसों का इंतजाम किया और ट्रकों में बैठकर यहां पहुंचे। पलायन का सिलसिला अभी थमता नजर नहीं आ रहा है। कई रोज से देश भर से हजारों मजदूर बनारस पहुंच रहे हैं। पूना की एक बड़ी कंपनी में ड्राइवर मुन्ना और इनके साथी सतीश, संदीप, सर्वेश तीन दिन सफर करने के बाद बनारस पहुंचे। वो बताते हैं, "ट्रक वाले ने हर किसी से पांच-पांच हजार रुपये वसूले। पहुंचाया भी नहीं, यूपी बार्डर पर ही छोड़कर भाग निकला।" इतने पैसे में ये सभी मजदूर फ्लाइट से भी बनारस पहुंच सकते थे। दो बच्चों के साथ खड़ी मुन्ना की पत्नी रुपवंती ने अपनी व्यथा सुनाई। कहा, "ट्रक वालों ने हमें जानवरों की तरह बैठाया। हिचकोले खाते किसी तरह बनारस आए, फिर भी घर नहीं पहुंच पाए। हमें अभी गोरखपुर तक जाना है।"
श्रमिकों पर कहर
देश भर से बनारस पहुंच रहे सभी प्रवासी मजदूर यूपी के पूर्वांचल, बिहार और झारखंड के हैं। ये वो इलाके हैं जहां भीषण गरीबी है। बंधुआ मजदूरी से आजादी पाने की छटपटाहट में ये श्रमिक बड़े शहरों की ओर पलायन कर चुके थे। साल 2007-08 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं। दिल्ली, अहमदाबाद, मुंबई, कोलकाता, लुधियाना आदि शहरों में तीन चौथाई से भी अधिक प्रवासी मजदूर (78 फीसदी) बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से पहुंचते हैं। कोरोना संकट में ये सभी शहर रेड जोन में हैं। एनएफएचएस की साल 2015-16 की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रवासी श्रमिकों की औसत सदस्य संख्या 4.6 से 5.9 है और इन्हें एक ही कमरे में रहना पड़ता है। महानगरों में जहां इन्होंने ठिकाना बना रखा है, वहां स्थिति ठीक नहीं है। न तो पीने का पर्याप्त पानी है और न ही शौचालय। 53.9 फीसदी लोग खुले में शौच करने जाते हैं। बहुतों के पास हाथ धोने के लिए साबुन तक नहीं है। पूर्वांचल में कोई ऐसा जिला नहीं है जहां हर दस हजार की आबादी पर सरकारी अस्पताल मौजूद हों। बनारस में भी स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं राष्ट्रीय औसत से कम है।
नोटबंदी से भी कठिन समय
चेन्नई में एक दवा की एजेंसी में काम करते हैं रोहित। वो करीब पांच हजार रुपये खर्च करने के बाद किसी तरह बनारस पहुंच पाए। पगार 14,500 मिलती थी। लाकडाउन हुआ तो दवा एजेंसी के साथ नौकरी पर भी ताला लग गया। रोहित ने बताया,-अप्रैल महीने के पहले हफ्ते में आखिरी तनख्वाह मिली। जिससे कमरा का किराया और खाने-पीने का खर्च ही निकल पाया। हम साल में दो बार होली-दीवाली पर अपने घर आते हैं। जमा पैसे घरवालों को देकर लौट जाते हैं। होली से चेन्नई लौटे ही थे कि कोरोना ने बेरोजगार बना दिया। किसी तरह घर लौटने के लिए धन का इंतजाम कर पाए। कुछ साल पहले हमने जो बचत कर रखी थी वो साल 2016 की नोटबंदी ने चट कर दिया था। अब कुछ नहीं है।
सीएसडीएस का सर्वे भी बताता है कि भारत में 50 फीसदी लोगों को आमदनी के मुकाबले अपनी पारिवारिक और घरेलू खर्चों को पूरा करने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। नोटबंदी के बाद से ये वर्ग किसी तरह दोबारा उबरने की कवायद में जुटा था, लेकिन कोरोना ने तबाह कर दिया। लॉकडाउन के बाद मजदूरों की कमाई पूरी तरह खत्म हो गई। देश की आधी आबादी अचानक से गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गई। पलायन की इस मानवीय त्रासदी के शुरुआती दौर में जो लोग अपने घरों की ओर रवाना हुए, उनके पास फिर भी कुछ हजार रुपये थे, लेकिन लॉकडाउन के महीने भर बाद जो लोग लौट रहे हैं, उनकी झोली खाली है। आने वाले दिनों में अपने लिए भोजन और दवा का इंतजाम कैसे होगा, यह चिंता लिए आगे बढ़ने में बचा खुचा हौसला लरज रहा है।
बिन बुलाए मेहमान
महाराष्ट्र में रवि कुमार कपड़े की एक कंपनी में काम करते थे। छह हजार रुपये देकर किसी तरह से बनारस पहुंचे। वो बताता हैं,- "हम मजबूरी में अपने घर लौट रहे हैं। समूची गृहस्थी पीछे छोड़ आए हैं। गांव में न घर, न जमीन है। राशन कार्ड, चूल्हे-चौके और दूसरी किसी कमाई की व्यवस्था नहीं है। हम तो बिन-बुलाए मेहमान की तरह सगे-संबंधियों के यहां डेरा डालने जा रहे हैं।"
समझने की बात यह है कि जो प्रवासी श्रमिक अपने घरों की ओर जा रहे हैं, उनके हाथ खाली हैं। आने वाले दिनों के लिए इनके पास कुछ भी नहीं है।" दशकों से आंध्र प्रदेश में रहकर मकानों की पेंटिंग का काम करने वाले धर्मेंद्र ने हमसे अपनी मानसिक व्यथा बताई। वो कहते हैं, "लाकडाउन की शुरूआत में उनके पास कुछ पैसा था। लेकिन दो महीने से खाली बैठने की वजह से उनके पास अब मात्र चार हजार रुपये बचे थे। मकान मालिक भी किराया मांगने आ रहा था। ऐसे में हमारे सामने दो विकल्प था। पहला, उधार लेकर किराया देना और दूसरा अपने गांव लौट जाना। ट्रक डाइवर को 3500 रुपये दिए। वह हमें उड़ीसा बार्डर पर ही छोड़कर भाग निकला। कुछ दूर पैदल आए और कुछ रास्ता दूसरे ट्रकों से नापा। आठ रोज बाद बनारस पहुंचे।"
लॉकडाउन से पहले तक धर्मेंद्र रोज 10 घंटे से ज्यादा समय तक काम करते थे। सिर्फ इसलिए कि अपने बच्चों को बढ़िया खान-पान और शिक्षा दे सकें। अब उनकी बस एक ख़्वाहिश है कि बच्चों की परवरिश ठीक से हो जाए। धर्मेंद्र जिस वर्ग से आते हैं, वह शहर के अर्थशास्त्र में अपर लोअर क्लास और ग्रामीण अर्थशास्त्र में अपर मिडिल क्लास माना जाता है। शहरों के ढांचे में ये वर्ग ईंटों के बीच छिपे हुए सीमेंट की तरह काम करता है। इनमें ईंट की चिनाई, मेहतर, दर्जी, धोबी, डिलीवरी मैन, बिजली मैकेनिक, पिज्जा और तंदूरी चिकन बनाने वाले, सिक्योरिटी गार्ड, फल-सब्जी बेचने वाले, फ्रूट चाट-पानी के बताशे (गोलगप्पे) बेचने वाले और बाजार चलाने वाले लोग शामिल हैं।
खाने-पीने का संकट?
हमने कई और लोगों से बात की। गोरखपुर जा रहे अमरजीत और अजित कुशवाहा अपने कंधों पर बड़ा गट्ठर लादे हुए थे। अमरजीत बताते हैं, "पूना से चले तो कहीं दया मिली तो कहीं क्रूरता। बनारस में पहुंचे तो इन्हें हाथों-हाथ लिया गया। हाल पूछा तो आपबीती बताते हुए फफक पड़े-कहा, ‘हम भले ही मर जाएं, पर अपने गांव की ओर फौरन जाना चाहते हैं। दिक्कत यह है कि पहले घर जाते थे तो सबके लिए कुछ न कुछ लेकर जाते थे। इस बार बच्चों को क्या बताएंगे कि हम भगा दिए गए। अब तो लौट पाना कठिन है। नया संकट यह है कि गांव में भी हम कैसे जिंदा रहेंगे। हमारे सामने कोरोना की समस्या नहीं, भूख की है।’
पंजाब के लुधियाना से अरुण कुमार अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर बनारस पहुंचे थे। इन्हें गोरखपुर जाना है। यहां पहुंचने में इन्हें तीन जगह वाहन बदलना पड़ा। कहीं ट्रक तो कहीं बस। मुंबई से पैदल चलकर पहुंचे सुनील और अरुण बताते हैं कि उनके पास कुछ भी नहीं बचा है। बनारस में पुलिस और प्रशासन ने मदद की। खाना-पानी दिया और एक अफसर ने पैसा भी दिया। प्रवासी मजदूरों से बातचीत का लब्बोलुआब यह है कि लॉकडाउन के चलते ही ये लोग पलायन को विवश हुए हैं। इस वजह से इनकी आमदनी भी शून्य हो गई है। ऐसे में एक बड़ी आबादी अचानक से गरीबी रेखा के नीचे आ गई है।
अशांति की आशंका
बनारस-इलाहाबाद रोड से गुजरेंगे तो तमाम ऐसे लोग मिल जाएंगे जो भीषण गर्मी और लू की परवाह किए बगैर अपने बच्चों को कमर पर रखे, पोटलियां बांधे हुए भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर की यात्राएं कर अपने घरों के लिए लौट रहे हैं। इस पर तुर्रा यह कि सरकार कह रही है कि इस वर्ग के लिए 27 मार्च को 1.7 लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान किया था, लेकिन वो उन तक क्यों नहीं पहुंच पाया? यह अभी यक्ष प्रश्न बना हुआ है। प्रवासी श्रमिकों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि अगर उनके लिए सरकार ने कुछ नहीं किया तो हालात और भी ज्यादा खराब होंगे, क्योंकि इनके पास कोई जमा-पूंजी है ही नहीं।
समाजशास्त्री डा.सुनील मिश्र कहते हैं कि इन कामगारों के लिए एक बड़ा पैकेज मिलना चाहिए। इनके गुजर-बसर, काम-धंधे और खाना-पानी पर ध्यान रखने की जरुरत है। ऐसा नहीं होने पर सामाजिक अशांति का जन्म होगा। खाना-पीना नहीं मिलेगा तो दाने-दाने के लिए तनाव पैदा हो सकता है। प्रवासी मजदूरों के बच्चों का जन्म भी शहर में हुआ है। दूसरी पीढ़ी भी नौकरी की तलाश में है। ऐसे में ये लोग गांव में रहने वाले अपने सगे-संबधियों के भरोसे शहर छोड़कर आए हैं। अब सवाल उठता है कि सगे-संबंधी आखिर कितने दिनों तक इनके भरण-पोषण की जिÞम्मेदारी उठा पाते हैं? सरकार ने जल्द ही कोई मजबूत कदम नहीं उठाया तो स्थिति भयावह हो सकती है।"
क्या कर रही है सरकार?
प्रवासी कामगारों तक खाना और जरूरी सामान पहुंचाना कितना मुश्किल है? इस सवाल पर डा.सुनील कहते हैं,- खाने के सामान की वितरण व्यवस्था ढीली होने पर और भी बड़ा संकट गहरा सकता है। सरकार राशन की जिन दुकानों के जरिए गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोशिश कर रही है, वो तंत्र ही भ्रष्टाचार और खामियों से भरा पड़ा है। समूचे पूर्वांचल में कोटेदारों द्वारा कम राशन वितरित किए जाने की खबरें आ रही हैं। कई कोटेदार सिर्फ़ इसलिए राशन नहीं दे रहे हैं, कि परिवार का मुखिया राशन लेने के लिए मौजूद नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि जिन लोगों ने जिंदगी भर शहरों में गोलगप्पे, चाट बनाना, ठेला-ठेली चलाना सीखा है, वो अचानक गांवों में फावड़ा चलाना कैसे शुरू कर सकते हैं? शहर से आए प्रवासी कामगारों को इनके रिश्तेदार आखिर कितने दिनों तक राजी-खुशी से खाना खिला पाएंगे?
प्रवासी श्रमिकों की वापसी से महामारी फैलने का खतरा...!
वापसी के बाद बढ़ेंगी चुनौतियां, डूबेगी अर्थ व्यवस्था
वाराणसी। प्रवासी श्रमिकों की वापसी ने पूर्वांचल में एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। पलायन कर घर लौट रहे लोगों को उनके अपने ही अब उदास और निराशावादी नजरों से देख रहे हैं। प्रबुद्धजनों को लगता है कि लच्छेदार जुमलेबाजी से जो भी नए कदम उपजेंगे, वे हमको इस भयावह स्थिति से निबटने के लिए एक कमजोर, फौरी सहारा देने से अधिक आगे नहीं जाएंगे।
पूर्वांचल के सभी जिलों में तमाम ऐसे प्रवासी श्रमिक पहुंचे हैं जो कोरोना वायरस से संक्रमित हैं। जो नहीं हैं वो भी घरों में आइसोलेशन में रखे गए हैं। साफ पानी की आपूर्ति और सफाई की उत्तम व्यवस्था भी नहीं है। जिन प्रवासी मजदूरों ने गांवों में शरण लेने की कोशिश की है, ये वे लोग हैं जो माइक्रो यूनिट्स में काम करते हैं। अगर ये इकाइयां सक्रिय होतीं तो शायद इन लोगों तक कुछ पैसा पहुंच पाता।
सबने मारी ठोकर, काशी ने बैठाया सिर आंखों पर
नहीं होगी कोई तकलीफ, आप का दर्द हमारा दर्द : एसडीए
वाराणसी। बड़े शहरों से पलायर कर रहे श्रमिक बनारस पहुंचे तो यहां अफसरों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। दाना-पानी दिया और बिस्कुट और चाकलेट भी। पुलिस और प्रशासनिक अफसरों का सेवाभाव देखकर हर प्रवासी श्रमिक गदगद नजर आया। सबके मुंह से यही निकला,- काशी जैसा सत्कार कहीं हुआ ही नहीं हुआ।
पालयन कर लौट रहे कामगारों के लिए राजातालाब के पास कैंप बनाया गया है। इन्हें यहीं से उनके घरों पर भेजा जा रहा है। इस काम की मॉनिटरिंग खुद एसडीएम विश्वजीत मलिक और सीओ अभिषक पांडेय कर रहे हैं। सैन्य अफसरों की तरह ये अफसर हमेशा मुश्तैद नजर आते हैं।
तपती दोपहरी में हम कैंप में पहुंचे। उस वक्त विश्वजीत श्रमिकों को बिस्कुट, चाकलेट और मिनरल वाटर की बोतलें बांटते नजर आए। विश्वजीत ने यहां खाने-पीने की चीजों का स्टाल लगवा रखा था। समय-समय पर भोजन भी आ रहा था, जिसे मजदूरों को सिलसिलेवार वितरित किया जा रहा था। उन्होंने कहा, -कुछ देर रुकए। आप भी भोजन कीजिए। खुद जान लीजिए कि हम परदेशी मेहमानों को कैसा खाना खिला रहे हैं? राजातालाब कैंप में सिर्फ भोजन-पानी ही नहीं, लोगों के सेहत की जांच के लिए डाक्टर भी तैनात किए गए हैं। भोजन कराने के बाद कामगारों को बसों में बैठाकर गंतव्य के लिए रवाना किया जा रहा है।
एसडीएम विश्वजीत ने हमें बसों की वो सूची दिखाई, जिनमें बैठाकर कामगारों को उनके गांव भेजा जा चुका था। मौके पर दर्जनों बसें खड़ी थीं। प्रवासी कामगारों को जिलावार रवाना किया जा रहा था। कोशिश की जा रही थी कि सभी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें।
एसडीएम ने बताया कि कामगारों के लिए 80 बसें लगाई गई हैं। ज्यादातर बसें स्कूल की हैं। बसों में पानी की बोतलें और बिस्किट भी दिए जा रहे हैं। सभी के चेहरे पर मुस्कान और घर लौटने की खुशी झलकती नजर आई। कैंप के बाहर पुलिस के जवान एनाउंस कर रहे थे। ‘कृपया ध्यान दें फलाने जगह की बस जाने को तैयार है’ -इसके बाद एक-एककर कामगारों को बैठाने का क्रम चलता रहा। बकायदा सूची बनाकर सभी को उनके गांव विदा किया गया। राजातालाब कैंप स्थल पर प्रशासन ने एनडीआरएफ की एक टुकड़ी भी तैनात कर रखी है।
मोदी जी आप देश संभालिए हम चुनौतियों से निपट लेंगे
वाराणसी। तमाम दिक्कतों के बाद भी अगर कामगार की जुबां से ये बात निकले की कोई बात नहीं मोदी जी कोरोना से आप देश को बचा लें हम चुनौतियों से निपट लेंगे..... भरोसे की ताकत हर एक हिन्दुस्तानियों को संबल दे रही है। अरुण झारखंड से चले तीन दिन में वाराणसी पहुंचे और यहां से अपने गंतव्य गोरखपुर के लिए उन्हें जाना है। राजातालाब में बने सेल्टर हाउस में प्रॉपर मेडिकल कराकर सामने लगी बस में हंसते हुए चढ़े.. कहा कि चुनौतियों से भागने की बजाय संघर्ष करने का अपना अलग ही मजा है। सफर में दिक्कतों का आना जाना लगा रहता है। अब हम घर के नजदीक हैं तो कुछ समय के लिए सबकुछ भूल जायं। हालात आगे सामान्य हो जाएंगे।