आयुषि तिवारी की कुछ ऐसी कविताएं तो जो दिल को छू जाएं......


(Ayushi Tiwari)


जनसंदेश न्यूज़
वाराणसी। प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती, सही दिशा में सार्थक प्रयास हमें औरों से अलग बनाता है। यह बातें देवरिया, गोरखपुर की आयुषि पर सटीक बैठती है। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी में पत्रकारिता और जनसंचार विभाग में बीए मॉस कम्युनिकेशन की विद्यार्थी आयुषि तिवारी की उम्र भले ही कम है, लेकिन प्रतिभा काफी बड़ी है। पढ़ने और लिखने की शौकीन आयुषि एक कुशल कविता लेखन के साथ एंकरिग भी करती है। 
कोरोना संकटकाल में जब लॉकडाउन लगा हुआ है तो इन्होंने खाली समय में कई कविताएं लिखी है और अपने अंदर की प्रतिभा को कागज पर उकेरा है। अपनी कविताओं में इन्होंने नारी अस्मिता के साथ ही जिंदगीं के प्रमुख रंग भी शामिल किये है। 
प्रस्तुत है इनकी कुछ कविताएं.......
1. हे नारी.....
रचूं क्या शब्दों में उसको, जिसने रचा संचार का स्वरूप,
स्वयं प्रभु जन्म लिया, है तू वैसा स्वरूप। 
तू कोमल है, कमजोर नही
इस धरती पर तू बोझ नही
मोल नही कोई तेरा
इस धरा की तू शोभा है।
तू शक्ति है, तू प्रेरणा है
ईश्वर की सबसे सुंदर रचना है
कोई संघर्ष न तू है हारी
ये दुनिया नहीं तुझ पर भारी है
कोई और नही तू नारी है
हर रूप में जिसने हर मुश्किल को वारी है


2. सवाल खुद से करो
जवाब मिल जायेंगे
नजर खुद से मिलाओ
गलतियां ढूंढ पाओगे
कहते फिरते हो कि वो बुरा हैं
कभी खुद को देखो, बुरा मान जाओगे
बड़े गर्व से कहते हो कि ये देश गंदा हैं
अरे साहब तुम सफाई करो तब माने जाओगे
यहां बच्चियों के दर्द में भी तुम धर्म ढूंढ़ते हो
कभी सबको अपनी बेटी समझो, तब जान आओगे
बहुत कुछ कहते हो कि सरकार नही
साहब हमने क्या किया इस देश के लीये सोचो, फिर जवाब पाओगो
गर हो हिम्मत खुद से सवाल करने की 
यकीन मानो हम इंसान हो जायेंगे।।


3. बचपन से ख्वाहिश थी बड़ा होना है,
बड़ी-बड़ी किताबें पढ़नी है, बड़ी-बड़ी बातें करनी हैं
हजारों ख्वाहिशें दिल में लेके घूमते थे, 
इरादे नेक थे, आगे बढ़ना चाहते थे
गिली मिट्टी में भी फिसलना नी चाहते थे, 
हम तो बस बड़ा होना चाहते थे
स्कूल के यूनिफार्म, कालेज की मस्तियां अब नी भाते है
अब तो मंहगे शूट और बड़ी-बड़ी गाड़ियां चाहते है
अब तो हम पैसे कमाना चाहते है
भाग-दौड़ की इस दुनिया में अब थम जाते है
इतनी सारी ख्वाहिशें है पर पता नी क्यूं फिर से अब बचपन में खो जाना चाहते है
शायद ख्वाहिशों के पीछे घुमते बड़े बोर हो गये है हम,
जिंदगी की इस बदलते हुए रूप से अब थक गये हैं हम
बचपन के अंधेरे गुड्डे-गुड़ियों की शादियों में फिर से लौटना चाहते हैं हम
बड़े होने का बोझ लेना नी चाहते अब बड़ा होना ही नी चाहते


4. हे कलयुग के मानव अब तुमसे ये नारी नाराज़ नहीं....
करनी अब कोई गुहार नहीं, सुन लो कलयुग के मानव, अब यह नारी तुमसे नाराज़ नही।
खैर मेरी नाराजगी अब उतनी नही है
अब स्वयं संपूर्ण हूं, इस अटूट सत्य से परिपूर्ण हूं,
तो क्या समाज से मैं अब अकेली हो जाऊंगी??
नही वो उठते सवालों ने, अनवरत दलीलों ने मुझे स्वयं से मिलाया है। 
मैं कैसे समर्थ हूं हर भाव में, लोगों की अनुपस्थिति ने मुझे एहसास दिलाया है।
तो रूक मैं गति अवरोध क्यों करू?
अभी बहुत कुछ स्वयं में खोजना बाकी है,
सफलता की बहुत सी ऊंची ऊंचाइयों को बाकी है
तुम व्यर्थ के तर्कों और प्रश्नों में बंधे रहो, 
मैं हल निकलती जाऊंगी
मेरे रास्ते में रूकावट बन जाना
बस उन रास्तों को बंद मत करना
संकल्प लिया हैं स्वयं से मैंने, मैं निरंतर आगे ही बढ़ती जाऊंगी।


5. परछाई
गर साथ दे ये जिंदगी साथ चल मेरे उम्रभर,
अपने नही तो क्या हुआ, तू साथ दे उम्रभर।
अपने तो अब खूब सपने हुए, खोना नहीं तू मगर, 
गर जिंदगी भी छोड़ दे, तू साथ-साथ रहना उम्रभर।
इस जिंदगी से न हूं खफ़ा, तुझसे खफ़ा हूं मैं मगर
तू साथ है मगर, तब तक जहां उजली डगर
क्या साथ तेरा यही, चल दें यूंही छोड़कर, 
जहां साथ तेरी थी मुझे, उस अंधेरी राह पर,
पर सच यहीं है जानकर, यूं तुम्हें अपना मानकर, 
तू जहां मेरा साथ दें, मैं चल पड़ी उस राह पर।



आयुषी तिवारी
शिक्षार्थी, पत्रकारिता व जनसंचार विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ


 


 


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