चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश-कहां तुम चले गए...!

ये बेजुबां भी समझते हैं बिछुड़ने का दर्द...?

अपनों को ढूंढ रहे सारनाथ मिनी जू के पशु-पक्षी, बर्दाश्त नहीं हो रहा बिछड़ने का गम


कई दिनों से सहमा हुआ है साथी पक्षियों की देखभाल करने वाला रोजी पिल्कन



विजय विनीत
वाराणसी। ये इंसान नहीं, बेजुबां हैं..., लेकिन जुदाई का दर्द सबसे ज्यादा समझते हैं। कोरोना ने इंसानियत का कत्ल किया तो उसका असाह्य दर्द पशु-पक्षियों अधिक झेलना पड़ रहा है। सालों से इंसान से मुहब्बत जो लगा बैठे थे। शायद पहली बार इन्हें लंबी जुदाई झेलनी पड़ रही है।
ये कहानी अपने बनारस की है। सारनाथ के मिनी जू की है। इस जू में सैकड़ों पशु-पक्षी हैं। ये बेजुबां अपनों को ढूंढ रहे हैं। उन लोगों को ढूंढ रहे हैं जो कुछ न कुछ अपने साथ लेकर जाते थे। मुहब्बत बांटते थे। जुदाई बर्दाश्त न होने के गम में जू के एक विशाल पिंजरे में कैद रोजी पेल्कन सहमा-सहमा सा है। यह वही रोजी है जो आम दिनों में चहका करता था। अब दुबका हुआ है। गम में दुबला होता जा रहा है। ये जिस पिंजरे में रहता है, उसमें मौजूद पक्षियों का मुखिया है। इंसानों से जुदाई के गम में ये कलरव नहीं कर पा रहे हैं। इनके पिंजरे में  सन्नाटा है...और वीरानी है। रोजी पेल्कन तो कुछ ज्यादा ही मायूस है। शायद इसकी मायूसी भी तभी टूटेगी जब कोरोना का लाकडाउन टूटेगा।



अचानक हम सारनाथ मिनी जू पहुंचे तो रोजी दौड़कर पास आ गया। इसके व्यवहार को देख ऐसा लगा, जैसे कि शिकायत कर रहा हो, चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश-जहां तुम चले गए...? रोजी जिस पिंजरे में रह रहा है, उसमें दर्जन दूसरे भर पक्षी भी हैं। इनमें पेंटेड स्टार्क, व्हाइट स्टार्क, व्हाइट नेक्ड स्टार्क, ब्लैक नेक्ड स्टार्क हैं। सब के सब गम मायूस हैं और उन्हें जुदाई का गम सता रहा है।
बगल के पिंजरे में आस्ट्रेलियाई पक्षी एमू का जोड़ा भी विक्षोभ में है। सारस भी मुंह लटकाए पड़े हैं। इन्हें देखकर लगता है कि कोरोना ने इंसान से ज्यादा इन बेजुवानों को दर्द दिया है।
सारनाथ मिनी जू में घड़ियाल और मगरमच्छ भी बेसुध पड़े हैं। पहले इनकी खूब दादागिरी चलती थी। अब इन्हें सताने और बातचीत करने वाला कोई नहीं है। जू में एक पिंजरा लालमुनिया और लव बर्ड का भी है। ये दोनों पक्षी इंसानों के सबसे ज्यादा करीब हैं। मुहब्बत बांटने वाले इन पक्षियों ने हमें देखा तो चहकना शुरू कर दिया...। बतियाना शुरू कर दिया...। तोता भी नमस्ते बोलने लगा। चंद पलों में इन बेजुबानों के चेहरों की रंगत बदल गई और मायूसी भी गायब हो गई।



सारनाथ जू इस बात का गवाह रहा है कि यहां रहने वाले वन्यजीव अपने साथियों के लिए जान तक दे देते रहे हैं। इस जू में जुदाई बदाश्त न होने के कारण कई बेजुबानों ने अपने प्राण न्योछावर किए हैं। लोगों से बिछड़ने की तकलीफ इनकी बेचैनी को बढ़ा देती है। इस चिड़ियाघर में जेब्रा फिंच, सन पैराकीट, बजरी, जेब्रा कीट, काकाकीट के अलावा शाहियों का बड़ा झुंड है। यहां करीब 108 चीतल और पांच काले हिरन भी हैं। इन दिनों सबके चेहरों पर उदासी है। जो चीतल पर्यटकों को देखकर कुलांचे भरने लगते थे। दौड़कर पास चले आते थे। अब वो सहमे-सहमे से हैं। सबके चेहरों पर मुर्दानगी छाई हुई है।
कोरोना के चलते इन दिनों सारनाथ मिनी जू में भी लाकडाउन है। गेट पर बड़ा सा ताला जड़ा है। बेजुबां पशु-पक्षी लोगों की बाट जोह रहे हैं। शायद वो चाहते हैं कि कोई उन्हें बुलाने, पुचकारने और दुलराने वाला आए। मगर अफसोस। इन बेजुबानों से बतियाने वाला कोई नहीं है। इनके व्यवहार को देखकर एहसास हो रहा है कि इन्हें इंसानों से बड़ी शिकायत है। जू में अचानक कोई पहुंचता है तो ये बेजुबां उन्हें एकटक देखते हैं। सवाल करते हैं-तुम कहां चले गए थे?  



क्षेत्रीय वनाधिकारी अरुण कुमार शुक्ला कहते हैं कि बेजुबान पशु-पक्षियों में भी इंसानियत होती है। ये प्रेम, करुणा, सहानुभूति, मित्रता के भूखे होते हैं। बेशक वो मनुष्य की तरह बोल-बतिया नहीं सकते, लेकिन इंसान से अधिक समझदार होते हैं। जब हम जानवरों की सेवा करते हैं तो वह हमारे स्पर्श को भी पहचानते हैं। वे हमें नुकसान नहीं पहुंचाते। ऐसे में कोरोना ने इन इन बेजुबानों को जो दर्द दिया है वो असहनीय है। इसकी पीड़ा शायद इन्हें भी सालों-साल सालती रहेगी।


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