सामाजिक कुरीतियों से लड़ने वाली अनुपमा की कविताओं में झलकता दर्द......


जनसंदेश न्यूज़
राजस्थान के बॉदीकुई दौसा निवासी अनुपमा तिवारी का जन्म 30 जुलाई, 1966 को हुआ है। हिन्दी और समाजशास्त्र में एमए करने वाली अनुपमा ने पत्रकारिता व जनसंचार से स्नातक की शिक्षा ग्रहण की है। इनके पिता का नाम विजय कुमार तिवारी और माता का नाम मायारानी तिवारी है। 
1989 से शिक्षा जगत में सक्रिय अनुपमा कच्ची बस्ती और ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों की शिक्षा और राजकीय शिक्षकों के साथ अकादमिक संबलन के कार्य से जुड़ी रही है। साथ ही बाल अपचारी गृह के बच्चों, घर से निकले रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहने वाले बच्चों, देह व्यापार में लिप्त परिवारों व शौचालयों में काम करने वाले परिवारों के बच्चों, तथा कामकाजी बच्चों के साथ उनकी शिक्षा व वंचितता पर काम करती रही हैं। 2011 से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के साथ जुड़ी अनुपमा वर्तमान में भी फाउंडेशन में हिंदी विषय की सन्दर्भव् यक्ति के रूप में कार्यरत है।
प्रस्तुत है उनकी लिखीं कुछ कविताएं........


शब्द    


शब्द बने थे


मन – मन भर अर्थ लिए


उतर जाते थे सीधे दिलों में


शब्द बाण बन जाते थे


युद्ध भूमि में


शब्द मूँछ बन जाते थे


समाज में


शब्द खड़ा कर देते थे रोगी को  


शब्द शरीर के तार – तार झनझना देते थे


शब्द धीरे – धीरे बीमार हो रहे हैं


खो रहे हैं ये अपने अर्थ


हो रहे हैं दिन – ब - दिन खोखले


इतने खोखले


कि इन्होंने उतार दिया है मेरे अन्दर का पानी


मेरे पास हैं अब बहुत सारे लच्छेदार शब्द


पर सबके सब – सब ठंडे शब्द


अब ये मुझे नहीं जगाते


नहीं दौडाते मेरे खून को


चलो फिर से बैठते हैं किसी चौपाल पर


या अँधेरे कमरे में


और फूँकते हैं सारे शब्दों में अर्थ


प्रण करते हैं कि हम नहीं गाएँगे


अब कोई चेतना गीत


जो हमारे दिल में न उतरे


या दिल से न निकले !


 दौड़


वे दौड़ें, 
जिन्हें लगानी है, 
दौड़ 
किसी को पीछे धकेल कर 
निकलना है आगे.
वे फेंकें पासे, 
वे चलें पेंतरे.
टटोलें नब्ज़ 
अपने आस - पास वालों की. 
नापें तापमान कुर्सी का
सुबह और शाम. 
जिन्हें नहीं धकेलना किसी को पीछे 
वे अपनी चाल चलते हैं. 
उन्हें किसी से आगे नहीं निकलना है 
उन्हें खुद अपने से आगे निकलना है ...


 कमाना, औरत होना !


कभी मत पालना यह भ्रम
कि तुम देवी हो,
तुम शक्तिस्वरूपा हो,
तुम रोक सकती हो मौत को भी !
यदि ऐसा होता तो
तुम, बलात्कार रोक पातीं
तुम, हत्याएँ रोक पातीं
परन्तु ऐसा नहीं हुआ न !
होता भी नहीं हैं.
उन्होंने इन विशेषणों से तुम्हें बहलाया
और तुम बहल गईं ?
मानो अपने को कि,
तुम हाड़ - माँस की औरत से ज्यादा कुछ नहीं हो !
ये चमकीले, लुभावने विशेषण जो तुम्हें मिले हैं
लौटा दो इन्हें !
आओ मैदान में
और कमाओ,
खुद्दारी से,
अपना औरत होना !


क्या - क्या बचाओगे ?


जब तुम बचाते जाते हो, 


जीवन भर


प्रशंसा के शब्द, 
मदद के हाथ, 
किसी के लिए दूर तक गए पैर,
और चुनौतियों के संकल्प, 
तब, सब कुछ तेजी से खर्च होता जाता है 
कुछ भी नहीं बचता है
तुम्हारे जाने के बाद.


 


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