इम्तियाज़ खान: 70 और 80 के दशक में बनने वाली हर ‘भुतही-फ़िल्म’ के अहम-क़िरदार


जनसंदेश न्यूज़
‘मैं आज भी आँखे बंद कर के उन्हें देख सकता हूं... पालीहिल पर बने उनके ‘कोजी-हाउस’ में जहां ड्राइंगरूम में बनी बड़ी सी कांच की खिड़की पर शाम का सिंदूरी सूरज धीरे-धीरे ढल रहा था... मैं उन्हें देख रहा हूं अब भी अपने सामने गोरे-चिट्टे भारी कद-काठी और मोहब्बत भरी छुवन के साथ काली या मटमैले पठानी-कुर्ते पजामे में... नाक पर रक्खी शानदार ऐनक के साथ अपनी झूलती हुई लकड़ी की कुर्सी पर मुस्कुरा-मुस्कुरा कर कोई दास्ताने-माज़ी सुनाते हुए...!
‘मुग़ल-ए-आज़म’ कि बात करते करते उनकी आंखें भर आती थीं... ऐसा लगता था सारा मन्ज़र उनकी निगाहों में करवट बदल रहा है... वो कैमरा, वो लाइट, वो एक्शन कहती ‘के. आसिफ़’ की रौबदार आवाज़ जिसे तम्बाकू के धुएं ने अजीब सी गहराई दे दी थी... वो आसिफ़ के दूसरे-तीसरे असिस्टेंट थे उन दिनों...  और रह रह कर उस दीवाने-हिदायकार को हिदायत भी दे देते थे... आखि़र उनके लहू में अदाकारी और फ़नकारी जो शामिल थी... आखि़र वो अदाकारी के साहिर ‘जयंत साहब’ (प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता व खलनायक) के होनहार-बेटे जो थे... और नाम था-- ‘इम्तियाज़ खान’!
70 और 80 के दशक में बनने वाली हर ‘भुतही-फ़िल्म’ के अहम-क़िरदार निभाते इस अदाकार की मासूम-शख्सियत से बहुत कम लोग ही वाक़िफ़ होंगे... ‘स्टार ऑफ मिलेनियम’ अमिताभ बच्चन के आस-पास ही अपने फ़िल्मी-कॅरियर की शुरुआत करने वाले इम्तियाज़ को एक ‘जानदार-पर्सनालिटी’ होने के बावज़ूद अदाकारों की पहली सफ़ह में जगह मिलने न पाई... वो एक काबिल-अभिनेता थे... फिर भी उस वक्त के दर्शकों की पसन्द से थोड़े दूर... अग़रचे जवान होते दिलों में उनके गठीले-बदन पर कसी पतलून और हल्के-बालों वाले सीने पर खुले बटन वाली क़मीज़ की चर्चे आम थे... उनके चेहरे पर उभरा एक ‘मस्सा’ उनको बाक़ी अदाकारों से जुदा करने में बड़ी भूमिका निभाता था...उस पर उनकी हल्की-भूरी आखों में उतरता क़ुदरती-खुमार उन्हें बिना कुछ बोले भी बहुत कुछ कहने की काबिलियत देता था... कुल मिला कर वो एक दिलफ़रेब-शखि़्सयत और होनहार ज़ेहन के मालिक थे...।



इम्तियाज़ के खाते में हिंदी की कई हिट फ़िल्में हैं...इनमें ख़ासतौर पर यादों की बारात, दो ग़ज़ ज़मीन के नीचे, तहखाना, धर्मात्मा, प्यारा दोस्त, दयावान, बंटी और बबली का नाम लिया जा सकता है... इसके अलावा प्रतिज्ञा, दस नंबरी, काला सोना, अपराधी, दरवाजा, चोर पुलिस, महा बदनाम, जुल्म की हुकूमत, गैंग, हलचल जैसी सैंकड़ों फिल्मों में उनकी अदाकारी और क़िरदार लोगों के ज़ेहन में बसे हुए हैं... वो सिर्फ़ सिनेमा तक ही महदूद नहीं रहे... उन्होंने नए ज़माने को पहचानते हुए बहुत ही जल्दी ‘दूरदर्शन’ की तरफ़ रूख़ किया और बहैसियत अफ़सानानिगार और हिदायकार ‘अनकही’ ‘नूरजहाँ’ ‘बातों बातों में’ और ‘दीवारें’ जैसे मक़बूल ‘टीवी सीरियल्स’ की तख़लीक़ की...!
‘टीवी’ के उस शुरुआती और ‘दूरदर्शन’ के उस सुनहैले-दौर में उनका इश्क़ उनसे पच्चीस बरस छोटी मग़र बड़ी चमकीली और दिलकश अदाकारा ‘कृतिका देसाई’ के साथ परवान चढ़ा... इम्तियाज़ पेशावर के पैदा ‘मांसाहारी-पठान’ वहीं कृतिका विशुद्ध-वैष्णव हिन्दू... लेकिन मोहब्बत कब मज़हब देख कर होती है... बड़े हंगामों के बाद (शुक्र है तब लव ज़िहाद का हो-हल्ला नहीं था) आखि़र दोनों ने ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली... बड़ी बात यह है कि दोनों अपने-अपने मज़हब पर ताउम्र कायम रहे... इम्तियाज़ ने कभी भी कृतिका को ‘दीन की दावत’ (धर्मांतरण) नहीं दी... बल्की उन्हें अपने मज़हब में बने रहने की सारी सुविधाएं दे दीं... आप उनके घर मे छोटा सा मंदिर सुन्दर देवी-देवता और हर शाम जलता हुआ चिराग़ देख कर अपने भारतीय होने पर गर्व कर सकते हैं... उन-दोनों की एक प्यारी सी बिटिया आयशा भी है जो माँ-बाप के नक्शेक़दम पर चल कर फनकारी के गुर आज़मा रही है..!



15 अक्टुबर 1942 को पैदा होने वाले इस फ़नकार ने अपने बाप ‘जयंत’ (ज़कारिया खान) के साथ कोई आठ बरस की उम्र में फ़िल्म ‘नाज़नीन’ (1951) में पहली बार कैमरे का सामना किया और फिर ताउम्र उसी के ‘आगे-पीछे’  बने रहे... कभी बिमल रॉय तो कभी गुरुदत्त के सहायक के तौर पर इम्तियाज़ ने सिनेमा की गहराइयों में प्रवेश किया... उनके छोटे भाई ‘अमज़द खान’ को तो दुनिया ‘गब्बर सिंह’ के नाम से जानती ही है... इम्तियाज़ अज़मद की जोड़ी सिनेमा से हट कर अक्सर मंच पर भी नज़र आ जाती थी... अमज़द की असमय-मृत्यु ने इम्तियाज़ को तोड़ कर रख दिया था... वो अक्सर उनकी बात करते हुए ग़मगीन हुए जाते थे... उम्र बढ़ने पे उन्होंने अफ़साना लिखने में अधिक वक्त देना शुरू किया और कई नाटक भी लिखे...थियेटर में उनका नाटक ‘लूट’ भी बहुत सफल रहा...
गुजराती ज़ुबान में तो उनका काम लाजवाब रहा है... कुल मिला कर वो एक  पैदाइशी फनकार थे जो ज़िन्दगी की आख़री शाम तक कुछ न कुछ तराशते रहे ...!
मैं अभी-अभी फ़रवरी में उनसे मिल कर आया था... बड़ी मोहब्बत और इख़लाक़ के साथ बीती वो दो-शामें अब तक पूरी तरह बीती भी नहीं थीं... की कल आधीरात कृतिका जी के टेलीफोन-कॉल ने मुझे उदास कर के छोड़ दिया... बकौल ‘ग़ालिब’ --
‘मौत का एक दिन मुऐय्यन हैं/ 
नींद क्यों रात भर नहीं आती!’
रात जब कृतिका जी का फोन बजा तब दिल मे एक हलचल हुई कि लगता है कोई बुरी खबर है... और वही हुआ सिसकती हुई कृतिका जी ने कहा कि ‘ये चले गए...आप प्रेयर कीजिएगा प्लीज़!’.. मैंने सोचा प्रेयर क्या करूँ अब... अब तो बस एक सन्नाटा है दूर तक... ये पहाड़ों पर बजने वाली किसी गड़रिये की बंसी का अचानक बन्द हो जाने जैसा सन्नाटा है... जो बहुत बुरा लगता है... अपनी आख़री मुलाक़ात में मैंने उनसे वादा लिया था कि अगली मुलाक़ात में मैं उनकी तमाम तमाम यादें ‘रिकॉर्ड’ करूँगा... उस पर उनका कहना था-- ‘नहीं हम दोनों सिनेमा के बीते ज़मानो पर गुफ़्तगू करेंगे और कृतिका जी उसे रिकॉर्ड करेंगी... पर हाय! मैं भूल ही गया था कि-- 



कौन जीता है, 
तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक..!’
मैं अब भी देख सकता हूँ... ‘पालीहिल’ पर बने उनके आशियाने की पारदर्शी खिड़की के पार का सिंदूरी सूरज काले पड़े समंदर की आगोश में समा चुका है... और खिडकी पर खामोश अंधेरा पसरा पड़ा है... ‘कोज़ी हाउस’ के कमरे में करीने से रख्खी सैकड़ों किताबें पन्ना-पन्ना सिसक रहीं हैं... छोटे से मंदिर में कृतिका जी के हाथों रौशन हुआ चिराग़ भी मद्धम पड़ गया है... हाँ कुछ सितारे हैं अभी अँधेरे-आसमान से झाँक झाँक कर कमरे में उस शख़्स को तलाश रहे हैं जो बस अभी अभी अपनी आराम कुर्सी से उठ कर... नीचे लेट गया है... नीचे वहीं दो ग़ज़ ज़मीन के नीचे...!!’
17 मार्च 2020
ओमा 
(मेरे अज़ीज़ और मक़बूल फ़नकार इम्तियाज़ साहब की मौत पर उदास हो कर लिखा स्मृतिपत्र...)


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