विश्व पुस्तक मेला 2020: ‘सोल्ड ऑउट' का ‘सोशल ऑडिट’

सोचने-समझने और परखने का नया दृष्टिकोण देती हैं किताबें



डाॅ. सुनीता
प्रवक्ता, नई दिल्ली 


किताबें हम सबकी जिन्दगी, समाज और दुनिया का रूख बदलने में अग्रणी भूमिका अदा करती हैं। हमें चेतनाशील बनाती हैं। नई बहसों को जन्म देती हैं। शंकाओं का समाधान करती हैं। सोचने-समझने और परखने के दृष्टिकोण का  इजाद करती हैं।सही मायने में बेहतरीन किताबें जीवन साथी की तरह होती हैं और हर कदम पर हमारा पथ प्रदर्शन करती हैं। विश्व पुस्तक मेला 2020 4 से 12 जनवरी को दिल्ली में सम्पन्न हुआ। लेखकों, प्रकाशकों, आलोचकों और पाठकों 

के लिए यह मेला कई मामलों में यादगार रहा। 

 

इस बार के विश्व पुस्तक मेले में  ‘सोल्ड आउट’ न केवल तेजी से ट्रेंड किया, बल्कि सर्वाधिक आकर्षक और चर्चा का विषय भी बना रहा। ‘सोल्ड आउट’ का प्रयोग विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में पहली बार एक पुस्तक प्रकाशक द्वारा 1994 में किया गया था। तब से यह आमतौर पर प्रयोग में है। यह शब्द इन दिनों होटल व्यवसाय में बहुत लोकप्रिय हो चला है। इस व्यवसाय में इसके प्रयोग के आगे-पीछे व्यावसायिक नीति, मुनाफ़ा और उपभोक्ताओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति के तौर पर जाना जा रहा है। 

 

संदर्भ बताते हैं कि ‘सोल्ड आउट' का मतलब बहुआयामी है। अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में, संदर्भ और व्यावहारिक दृष्टि में इस्तेमाल किया जाता है। जैसे- बेचना, विक्रय करना, थोपना, किसी को खरीदने के लिये प्रेरक की गतिविधियों में शामिल करना, व्यापार करना, एक लगाव, एक धोखा, लादना, वस्तुओं को बेचने का अभ्यास या तरीका, विश्वासघात करना, खरीदने के लिये मजबूर करना आदि अर्थों में प्रयोग/ सदुपयोग होता है।

 

किताब, लेखक, प्रकाशक और पाठक चारों एक-दूसरे के पूरक हैं। जिसकी आपस में सहमति बने यह जरूरी नहीं है। लेखक जो लिखता है; उसका अपना नजरिया होता है। पाठक जो समझता है, वह उसका अपना तरीका है। दोनों के साथ ही जब प्रकाशक किसी किताब को प्रस्तुत करता है तो उसमें उसका शुद्ध रूप से मुनाफा वाला भाव जुड़ा होता है, क्योंकि व्यापार इमोशन नहीं देखता है बल्कि अपने बिजनेस का फायदा-नुकसान तक सीमित रहता है। अपने सीमित-असीमित दायरे के अनुरूप  वह इस कदर प्रचार-प्रसार करता है कि पाठक खींचे चले आयें बेशक अगली बार उस लेखक की किताब न बिके लेकिन प्रथम बार नुकसान न हो क्योंकि भरपायी की गुंजाइश कम नज़र आने पर ही ऐसा किया जाता है।

 

यह ‘सोल्ड आउट’ क्या चीज है ? इस गुत्थी को समझने के लिये मैंने कुछ नये प्रकाशकों से बात की जिन्होंने बहुत बचते-बचाते, चुपके से ही उत्तर दिया। जिससे संतुष्टि नहीं मिली। मैंने नये सिरे से फिर कोशिश की। प्रकाशन की दुनिया से परिचित लोगों ने बताया कि अमूमन प्रकाशक नयी प्रकाशित किताब की पच्चीस, पचास या सौ प्रति मेले में ले आते हैं। यह संख्या पूर्व प्रचार के आधार पर तय की जाती है। जैसे ही लगता है कि बिक्री तो रही है लेकिन पाठकों में जगह बनाने की बजाय क्षति के संकेत दे रही है तो ‘सोल्ड आउट’ का टिगर लगाकर किताब की बिक्री रोक दी जाती है। 

 

किताब के प्रति पाठक की उत्सुकता बनी रह जाती है।ऑनलाइन का ऑप्शन खोल दिया जाता है। इनसे यह सवाल पैदा होते हैं कि किसी भी पुस्तक की प्रकाशक ने कितनी प्रति प्रकाशित की थी ? कितनी प्रतियाँ बाज़ार मतलब दुकान तक बिक्री के लिये उपलब्ध कराई गयीं?

 

सोल्ड आउट का पैमाना क्या है ? अमूमन इसका काॅन्सेप्ट व थियरी न लेखक को पता होता है और न ही पाठक को। अगर किसी को पता होता है तो, वह है प्रकाशक व उनकी कोर टीम को। ऐसे में इसके शोर में पुराने, उम्दा और स्थापित लेखक के मन में उदासीनता पनपती है और पाठक भी निराश होता है। सूत्रों ने बताया कि 'सोल्ड आउट' की थियरी बहुत रहस्यमयी, आमतौर पर गोपनीय और गणितीय होती है। अक्सर प्रकाशक नये रचनाकारों की पुस्तकें पचासे से सौ के बीच का लक्ष्य रखकर छापते हैं। यह संख्या ऊपर-नीचे भी हो सकती है। इससे अधिक का रिश्क उठाने से बचते हैं। 

 

जब रचनाकार के नेटवर्क, प्रचार-प्रसार और संबंधों के फलस्वरूप प्रकाशक द्वारा अनुमानित प्रति बिक जाती है मगर पिक नहीं पकड़ती है तब सोल्ड आउट एक कवच का काम करता है। लब्बोलुआब यह सौ, पचास के इर्द-गिर्द का खेल साबित होता है।

 

अक्सर ऐसा होता है कि पुराने, सधे, स्थापित और चर्चित लेखक की रचना का पाठक को इंतज़ार होता है और कई बार रचना-संसार में गढ़, मठ, गिरोह संचालित करने वाले नये लेखकों को प्रचार-प्रसार के माध्यम से स्थापित करने के लिये पूरी ताकत लगा देते हैं जिसका खामियाजा पाठक भुगतते हैं, क्योंकि जो कंटेंट की तलास उसे होती है वह हासिल नहीं होती है। पाठक उस वक्त ठगा सा रह जाता है। 

 

भविष्य में उपरोक्त किसी भी लेखक के लिखे पर भरोसा नहीं जम पाता है। इतना ही नहीं झूठे, प्रचार-प्रसार, बड़े लेखकों के बलर्ब और बगैर पढ़े किताबों की जानकारी संबंधी लेखों की वजह से नवांकुर लेखक की सृजनात्मकता हत्या भी हो जाती है। 

यह एक महीन साजिश व गुत्थी है जिसको लेखक जब तक समझता है तब तक उसकी लेखन पटरी से उतरी चुकी होती है अगर कुछ बचता है तो छलाव व एटीट्यूड।

 

बाजार ने बाजार के माध्यम से हजार ढंग से ठगने का तौर-तरीका खोज निकाला है। जिसके चक्रव्यूह में पठने-लिखने वाले बुरी तरह से फंसते जा रहे हैं। चमकती-दमकती दुनिया देर तक बांध नहीं पाती है बावजूद मानस पर एक गहरी कालिम छोड़ जाती है जिससे उबरने में अर्सा वक्त लग जाता है।

 

किताबी मेला मेरे लिये केवल घूमने या किसी से मिलने का जरिया नहीं होता है बल्कि लेखक व पुस्तक के माध्यम से वैश्वीकरण, ग्लोबलाईजेशन और इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी के विस्फोट के बावजूद अक्षरों में बंधे खुश्बू देश-दुनिया को बेहतर बनाने में कितनी जरूरी हैं। इसी को समझने व देखने जाते हैं। विश्वभर से आये प्रकाशक उनकी रचनात्मक प्रस्तुति, किताबों के संदर्भ पाठकों मोहने के अंदाज कभी भाते हैं तो कभी छलावा लगते हैं। 

 

यह सुन्दर दुनिया है। इसे छल से बचाना ही होगा क्योंकि पेड़ कटते हैं तब कागज़ बनते हैं। जब कागज़ पर रद्दी की तरह चीजें, कल, छल, बल और दल के साथ परोसी जाती हैं तब क्षोभ होता है। ‘सोल्ड आउट’ को ‘सोशल ऑडिट’ की ज़रूरत है।ताकि प्रकाशन की दुनिया में पारदर्शिता हो। इसमें न पाठक ठगा जाय और न लेखक के सृजनात्मकता पर नकारात्मक प्रभाव पड़े।

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