सिर्फ नाम के आदिवासी हैं उभ्भा के लोग

उभ्भा के आदिवासीयों का दर्द कम नहीं हुआ है।


उभ्भा (सोनभद्र)। ऊबड़-खाबड़ रास्ते...बियावी फटे पैर...मवेशियों को हांकते युवा...और शाम ढलते ही घुप्प अंधेरा। यह सीन बिहार नहीं, सोनभद्र के घोरावल इलाके के आदिवासी बहुल इलाकों के हैं, जहां इस तरह के नज़ारे आम हैं। बेहद दुखदायी और परेशान करने वाला। यहां सड़कें नहीं...क़ानून व्यवस्था नहीं और शायद रोज़गार भी नहीं...। मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और बिहार की सीमा के करीब बर्बाद होते सोनभद्र की हालत यह हो गई है कि अब यहां थोड़ा सा भी विकास आदिवासियों को बहुत भाता है।


सोनभद्र के आदिवासियों में गोंड जाति के लोगों की तादाद सर्वाधिक हैं। उभ्भा गांव में जनसंहार के चलते ये आदिवासी चर्चा में हैं। ये वे आदिवासी हैं, जो पहले पहाड़ों की गोद में रहते थे। घने जंगलों में इनका बसेरा था। सोनभद्र के अधिवक्ता आशीष पाठक कहते हैं, “इन आदिवासियों पर नेताओं का दिल तभी आता है जब चुनाव की मुनादी होती है। अबकी नरसंहार के चलते सियासत के रहनुमा उभ्भा गांव की जनजातीय बस्ती में फेरी लगा रहे हैं। हर नेता कह रहा है वो और उसकी पार्टी आदिवासी समाज के सच्चे सेवक हैं।”


जनसंहार के चलते अचानक सुर्खियों में आए उभ्भा के आदिवासियों की ज़िंदगी में झांकने पर यह सवाल उठता है कि क्या इनको नागरिक माना भी जाता है या ये लोग सिर्फ़ नाम के नागरिक हैं? जंगली नाले के तीरे पर बसे उभ्भा के आदिवासी दो फ़सलें उगाते रहे हैं। बभनी के रामबदन गोंड कहते हैं, “खेती से उनके परिवार का पेट भरने के लिए से लिए आराम से साल भर के खाने-पीने की व्यवस्था हो जाती थी। ऊपर से थोड़ा बहुत अनाज बच भी जाता था। साग-सब्ज़ी भी अपनी ख़ुद उगाते हैं। नदी-नालों में थोड़ी मछली मार लेते थे। अच्छे से जी रहे थे और आत्मनिर्भर थे। गांव में बंधी बनी तो जमीन हमारी ही ली गई। धीरे-धीरे सब डूब गया। जमीन भी और इज्जत भी।”


उभ्भा गांव में घर की कच्ची रसोई से बाहर मनीला हाथ में काली चाय एक पुराना प्याला पकड़ाते हुए कहती हैं, “ जब से होश संभाला है तब से घर वालों को मुकदमे के लिए कचहरी दौड़ते देखा है। हमारी कोई सुनता ही नहीं, सरकार भी मदद नहीं करती। पुलिस तो आए दिन डंडे दिखाकर रौब गालिब करती है। वो आगे जोड़ती हैं, “पहले तो हम जंगल से होते हुए हर जगह पैदल ही चले जाते थे। नदी-नाले के आसपास फैले जंगल हमारे घर-आंगन जैसे थे। जमीन हथियाने के लिए जब से पुलिस और दबंगों की ज्यादती बढ़ी है तब से लगता है कि हमारा जीवन पहाड़ हो गया है। ऐसा पहाड़ जहां आकर हम फ़ंस गए हैं। कहीं सुरक्षित ठौर नहीं। आजादी से हम कहीं आ-जा नहीं सकते। बच्चे स्कूल नहीं जा सकते। हाट-बाज़ार हो, सरकारी राशन हो या कोई बीमारी–हर चीज़ के लिए कीमत अदा करनी पड़ती है। सिंचाई के लिए बंधी है, लेकिन पानी के लिए दबंग प्रधान यज्ञदत्त भूरिया का मुंह देखना पड़ता है। अपनी ही जमीन पर हक पाने के लिए जारी संघर्ष अब तीसरी पीढ़ी तक आ चुका है।”


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