कर्मनाशा के माथे पर कलंक का टीका क्यों?

लतीफशाह और नौगढ़ बांधों का बोझ सहकर पुरातन सभ्यता को आधुनिकता से जोड़ने का कार्य किया



महेशचंद्र जायसवाल/डा.प्रशांत सिंह



मैं देव सरिता गंगा हिमालय के उत्तरी भाग गंगोत्री से निकल ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, प्रयाग, विंध्याचल, वाराणसी, पाटलिपुत्र, मंदारगिरी, भागलपुर, अंगदेश व बंगदेश को सिंचित करती हुई गंगासागर में समाहित हो जाती हूंl मुझसे जुड़ी अनेक कथाएं हैं। वैसे तो कहा जाता है कि मैं सगर के साठ हजार पुत्रों को तारने वाली हूं,  जो आज तक सबको मोक्ष देती आ रही हूं। लेकिन अपनी यात्रा के एक पड़ाव बक्सर में आकर मैं स्तब्ध हो गई जहां मेरी मुलाकात एक शापित नदी से हुई-"कर्मनाशा" जिसने मेरे वेग को थमने नहीं दिया। कहने को तो वह मेरी सहायक नदी है फिर भी वह एक कलंक के साथ जीती आई हैl


भौगोलिक रूप से कर्मनाशा का उद्भव कैमूर जिले के अधौरा व भगवानपुर मध्य स्थित कैमूर की पहाड़ी से हुआ और जहां से निकल कर वह सोनभद्र, चंदौली और गाजीपुर से होते हुए बक्सर पहुंचती है और यही पर  मुझमें समाहित हो अपना अस्तित्व और पहचान दोनों तज देती हैl


कर्मनाशा के बारे में एक अंधविश्वास यह भी प्रचलित है कि वह एक बार बढ़ जाए तो बिना मनुष्य की बलि लिए घटती ही नहीं l मैं ना ही कर्मनाशा के शाब्दिक अर्थ को बताना चाहती हूं और ना ही पौराणिक कथा से उसका सरोकार हैl मुझे देखें उसने तो हमेशा ही जोड़ने का ही काम किया हैl 


चाहे सहस्राब्दियों पहले, नव अंकुरण को प्राप्त हो  रहे बौद्ध धर्म को चिरस्थायी सनातन हिन्दू धर्म के माध्यम से सहारा देने में उस नदी की भूमिका रही हो या फिर आधुनिकता के चकाचौंध और विस्मृत कर देने वाली जगमगाती दुनिया में मानव सभ्यता की आवश्यक्ता की पूर्ति करने के लिए बांध का निर्माण हो, तब भी इसी नदी ने लतीफशाह और नौगढ़ बांधों का बोझ सहकर पुरातन सभ्यता को आधुनिकता से जोड़ने का कार्य किया, पर क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि अगर मैं पापनाशी मानवजीवन के लिए सर्व्यमान व पुण्यशलीला हूं तो कर्मनाशी सहायक नदी घृणित कैसे हो सकती है? यद्यपि पाप का घटित होना ही बुरे कर्म के घटित होने का प्रतिफल है।


यदि यह इसी दुष्कर्म को प्रारब्ध में ही कर्मनाशा नाश कर देती है तो अप्रत्यक्ष रूप से वो पाप को बीज रूप में ही होने से रोकती है तो वह पतिता सरिता कैसे और मैं पुण्यशलीला कैसे? हर नदी चाहे मैं, चाहे सरयू या फिर यमुना बाढ़ से विध्वंश के निशान तो छोड़ती ही हैl ...तो फिर  यह कलंक का टीका सिर्फ कर्मनाशा के माथे पर ही क्यों? यदि कोई नदी गंगा की सहायक नदी है तो फिर वह अपवित्र कैसे हो सकती है? यदि उस नदी के स्पर्श मात्र से पशु पक्षी और वन्य संपदा तक समाप्त हो जाते होते तो फिर चंद्रप्रभा अभयारण्य और तटीय हरे भरे खेत कैसे फल-फूल रहे हैं?


कर्मनाशा का पक्ष मेरे सिवाय कोई यदि रखता भी है तो उसकी कौन सुनेगा? वास्तविकता यह है कि चंदौली को "धान का कटोरा" बनाने में भी कर्मनाशा का बहुत बड़ा योगदान हैl वह कर्मनाशा ही है जो बाढ़ के वेग और तीव्रता को कम करती हैl थोड़ा मैं और पीछे ले चलती हूंl आप सभी को शायद पता भी हो कि बौद्ध धर्म का विकास कर्मनाशा के पूर्व ही हुआl बौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में पश्चिम से लोग बौद्ध क्षेत्र में कर्मनाशा को  पार कर ही पहुंचते थेl


पश्चिम क्षेत्र के लोगों को धर्मावलंबियों ने बौद्ध धर्म के आकर्षण से मुक्त करने हेतु एक सोची-समझी रणनीति के तहत  कर्मनाशा को अवरोध के रूप में खड़ा कियाl और ये स्थापित करने में सफल रहे कि कर्मनाशा  के जल के स्पर्श मात्र से सारे कर्मों का क्षरण हो जाता है। फलतः भयभीत जनमानस को बौद्ध विचारों से विमुख करने में तात्कालिक धर्मावलंबियों को मदद मिली और कालांतर में यही किवदंती बन गईl


एक पौराणिक कथा को इसके लिए आधार बनाया गया, जिसके अनुसार राजा हरिश्चंद्र के पिता सत्य व्रत को सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा हुई। गुरु वशिष्ट द्वारा इसके लिए मना करने के पश्चात वह गुरु विश्वामित्र के पास गए और उन्होंने अपने तप के बल से यह कार्य संभव कर दिया। परंतु कुपित इंद्र ने उन्हें धरती पर उल्टे सिर वापस भेजने का प्रयास किया। जबकि विश्वामित्र ने रोकने का। ऐसे में राजा सत्यव्रत त्रिशंकु बन बीच में अटक गए और उनके मुंह से तेजी से टपकती लार ने कर्मनाशा नदी का रूप लिया। इसी कारण इसे शापित नदी बना दिया गयाl


 अरे! मुझे तो कर्मनाशा बहुत हद तक कर्ण जैसी लगती है, जिसने हर योग्यता व गुण होने के बावजूद समाज से पीड़ा और तिरस्कार ही प्राप्त किया। बहुत हद तक वह मुझे मां उर्मिला जैसी भी जान पड़ती है, जो मां सीता के छाया तले ही रही और उनके त्याग व समर्पण को बताने की फुर्सत ही किसी के पास न मिली। और इसी निर्वात के कारण कालान्तर में कर्मनाशा भी मेरे नाम तले अपना अस्तित्व खो देती है l


चढ़ दिया गया झूठ का मुलम्मा


किंवदंति है कि एक बार काले सांप का काटा आदमी बच सकता है और जहर पीने वाले की मौत भी रुक सकती है, लेकिन जिस पौधे को एक बार इस नदी का पानी छू ले वो फिर हरा नहीं हो सकता। कर्मनाशा के बारे में एक और मान्‍यता प्रचलित थी कि अगर एक बार नदी में बाढ़ आ जाए तो बिना किसी की बलि लिए नहीं लौटती। यह भरम योजनाबद्ध ढंग से फैलाया गया। साजिश रची गई, नदी को बदनाम करने की। कर्मनाशा यूपी के सोनभद्र, चंदौली, वाराणसी और गाजीपुर से होकर बिहार में बक्‍सर के पास गंगा नदी में मिल जाती है। नदी के बारे में कई पौराणिक किताबों में जिक्र है। लेकिन झूठी कहानियों ने इस नदी को हद तक बदनाम किया है। अगर ये नदी नहीं होती तो शायद चंदौली को धान के कटोरे का खिताब मिल भी नहीं पाता। तब इस जिले में कंगाली होती...भुखमरी होती...और हर तरफ बदहाली दिखती।


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