बनारस, बारिश और बतकुच्चन
इन दिनों-विजय विनीत
दुनिया में इन दिनों सिर्फ दो बातों की चर्चा है। एक,मोदी के अमेरिका दौरे की और दूसरी-बनारस में बारिश की। बारिश के चलते गंगा गलियों में उतर आई हैं। बारिश न होने पर कुछ महीने पहले बनारसियों ने मेढ़क-मेढ़की की शादी कराई। देवी-देवताओं को पटाने के लिए हवन-यज्ञ तक कराए। जब बारिश आ गई तो मानो आफत बन गई। मुहल्ले झील बन गए। गंगा गलियों में पहुंच गईं। बनारस में अब मेढ़क-मेढ़की का तलाक कराने की तैयारी है।
बनारस में एक तरफ बारिश और बाढ़ का मंजर है, दूसरी ओर मार-काट और गदर है। लोग ठिठके हुए हैं। बनारस बनारस आने से डर रहे हैं। खौफ खा रहे हैं। आइए, डरिए नहीं। बनारसी डरता नहीं। आतंकवादी बम फोड़ें या बवंडर आए या फिर जलजला। हर बनारसी आफत-विपत, सब हंसकर झेल लेता है। बनारस में मौत भी मंगल है। जानते हैं क्यों? बनारसियों को यकीन है कि यह शहर शेषनाथ के फन पर नहीं, बाबा भोले के त्रिशूल पर टिका है। मतलब, शेषनाथ से बनारस का कोई सरोकार नहीं। गोली चले या तोप। इस शहर पर कोई फर्क नहीं पड़ता। भूडोल भी आता है तो यहां सिर्फ जमीन भर हिलती है। भोले की नगरी काशी का बाल-बांका नहीं होता।
बाढ़ में... सूखा में...बीमारी और महामारी में भी खांटी बनारसी नहीं डरता। इलाज कराने से पहले नजर उतरवाता है। शराबी बाबा भैरवनाथ में झाड़-फूंक कराता है। गंडा-ताबीज बंधवाता है। उल्टी-दस्त, हैजा, प्लेग और चेचक निकलने पर मुहल्ला 'गोंठता' है...। रात में उतारा करता है...। धार देता है...। होम करता है...। मनौती पूरी होने पर मां भवानी को खसी की बलि भी दे देता है। अगर आप कभी बनारस नहीं आए हैं तो सारी बातें लिखकर समझाई नहीं जा सकतीं।
बनारस घूम चुके हैं तो यह भरम कतई न पालिएगा कि यह दिल्ली की तरह दिलजलों शहर है। यह 'कंडम', 'गदाई' और 'लोफरों का शहर' नहीं है। ये ऐसा शहर है जो दिल में तो आता है, पर समझ में नहीं आता। इतना अनछुआ है कि आप छू नहीं सकते। बस, गंगाजल की तरह अंजुली में भर सकते हैं। धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक शहर है यह। जहां जीवन और मृत्यु साथ-साथ चलते हैं। यह अद्भुत शहर जीवन का मर्म बता देता है।
बनारस जरूर आइए, मगर ध्यान रखिए। अकड़िएगा किसी से भी नहीं। न पान वाले से.., न रिक्शा वाले से..। वरना यही जवाब मिलेगा-'इ बनारस हव, धुर्री बिगाड़ देब' या 'जानलऽ बनारस कऽ रहेवाला हई'। यह बात भी जान लीजिए। खांटी बनारसी रबड़ी-मलाई चाभता है। दंड-बैठक करता है। गदा-जोड़ी फेरता है। लाठी चलाना सीखता है और नाल उठाता है। बउलिया पर नहाता है। गैवी पर भांग छानता है। रोजाना संकटमोचन हनुमानजी के सामने शीश नवाता है।
बनारस आकर आपने बनारसी गुरुओं की संगत नहीं की, भांग नहीं छाना, साफा नहीं लगाया, गंगा आरती नहीं देखी और नाव पर सैर नहीं की तो बनारस नहीं देखा। गंगा की सैर करते समय कोई किसी से कहे-'का राजा, नहा के आवत हउवा?' तो चौंकिएगा नहीं। बनारस में राजा का मतलब भीगा गमछा, हाथ में दातुअन और फक्कड़पन। यहां कोई 'सर' और 'मिस्टर' नहीं होता। राजा यहां एक पवित्र संबोधन है। याद रखिएगा, 'राजा' और 'गुरु' शब्द न किसी की बपौती है और न ही किसी जाति विशेष की अमलदारी। हर खांटी बनारसी यहां 'राजा' बन सकता है और 'गुरु' भी, बशर्ते उसमें नफासत हो..., नजाकत हो... और शराफत हो...।
बनारस सिर्फ स्वर्ग का वेटिंग रूम भर नहीं। यह आस्था का समंदर है। बनारसी जहां रहता है, बनारस उसके अंदर रहता है। पुराण से भी पुराना है बनारस। बनारस जीने का नाम है। अपने भीतर उतरने का मार्ग है। बनारस वह समंदर है जहां मोती वाली सीप खुद डूबने पर ही मिलेगी। मोती यानी उल्लास, उमंग, संगीत, साहित्य, कला, भोजन और सबसे बढ़कर जीवन का रस... यानी बनारस। बनारस में जीने के लिए एक जीवन भी कम है।