करोना की लहरें गिन रही ये औरतें, लाक डाउन ने ढाब की औरतों की जिंदगी को कर दिया है लाक

पहाड़ हो गई है सैकड़ों औरतों की जिंदगी, थम नहीं रहे इनके आंसू


सरकार को सुनाई नहीं पड़ रही हैं इन सुहागिनों की सिसकियां



विजय विनीत के साथ जितेंद्र श्रीवास्तव


वाराणसी। रूपवंती की आंखें पथरा गई हैं। न आंसू थम रहे हैं, न सिसकियां। जिंदगी पहाड़ बन गई है। कुछ बची तो सिर्फ यादें, आहें और कराहें। जानते हैं क्यों? कोरोना संकट के चलते रूपवंती के पति सियाराम दुबई में फंसे हैं। कंपनी ने पगार भी रोक दिया है। पासपोर्ट भी कंपनी में बंधक है। सियाराम बस किसी तरह जिंदा हैं। एक लाश की तरह...।


यह सिर्फ एक रुपवंती की कहानी नहीं है, जो ढाब की नखवां बस्ती में रहती हैं। इस बस्ती में तमाम महिलाएं हैं जिनकी जिंदगी लाक डाउन में लाक हो गई है। ये औरतें कोरोना के डंक की लहरें गिन रही हैं। ढाब बनारस का इकलौता टापू है, जो गंगा नदी में उभरे टीले पर बसा है। आबादी है करीब 38 हजार। रुपवंती की तरह ही यहां करीब नौ सौ से अधिक महिलाएं हैं जिनकी जिंदगी अर्थहीन हो गई है। पति परदेस में फंसे हैं। महिलाएं पाई-पाई के लिए मोहताज हैं। रुपवंती बताती हैं,-पहले हर महीने बैंक में बीस-पच्चीस हजार रुपये पहुंच जाते थे। कोरोना संकट के चलते पिछले तीन-चार महीने से उसके पति सियाराम को पगार ही नहीं मिली है। पगार की कौन कहें, कोरोना ने जिंदगी को गुलाम बना दिया है। ऐसा गुलाम, जिसके पास पेट भरने तक के लिए पैसे न हों। बच्चों के साथ यहां रूपवंती बेहाल हैं और दुबई में सियाराम। दरअसल, वो जिस कंपनी में काम करते थे, लाक डाउन होते ही उसके कर्ता-धर्ता गायब हो गए। सियाराम मकान के सेंटरिंग का काम करते थे। रुपवंती कहती हैं, अब तो जिंदगी की गाड़ी खींच पाना मुश्किल हो गया है। उन्हें अपने पति की चिंता भी खाए जा रही है।



बनारस का ढाब ऐसा इलाका है जहां युवाओं को दुबई, कतर और सउदी अरब की सपनीली दुनिया सबसे ज्यादा रिझाती है। मगर अफसोस। गल्फ के ये मुल्क, ढाब की सैकड़ों औरतों के लिए सौतन की तरह हैं। ऐसी सौतन जो हर रोज रात में सताती है। गल्फ सिंड्रोम के चलते ढाब की तमाम महिलाएं सुहागिन होकर भी विधवा हैं। ऐसी सुहागिन जिन्हें सालों से अपने पिया का इंतजार है....। मिलन का इंतजार है...। अलबेली रातों का इंतजार है....। इनकी अकेली रातें रोजाना सऊदी और दुबई वालों को बुलाती हैं।
कोरोना संकट में समूचे ढाब की करीब एक हजार महिलाएं मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। नखवां बस्ती की माला देवी के पति संतोष निषाद दोहा में फंसे हैं। माला बेबस हैं। इनके आंसू भी नहीं रुक रहे हैं। लक्ष्मीना आपने भाई पिंटू को लेकर चिंतित है। पिंटू बहरीन में है और लाक डाउन के चलते अंधेरे कमरे में कैद है। आशा के पति पप्पू का हाल भी बुरा है। इनकी जिंदगी की गाड़ी अब कर्ज से चल पा रही है। कब तक चलेगी, कहा नहीं जा सकता? आशा कहती हैं, -पांच महीने से पैसा नहीं आ रहा है। आखिर कैसे जिंदा रहेंगे? आशा को पांच बच्चे हैं, जिनमें तीन लड़के और दो लड़कियां। बीस साल में पहली बार पप्पू के सिर पर बड़ा संकट आया है। आशा बताती हैं कि उनके पति दो बरस के अंतराल पर आते रहे हैं। पिछले महीने उन्हें लौटना था, लेकिन कोरोना ने उनकी राहें रोक दीं।



कुछ इसी तरह का दर्द मुन्ना की मां नयनतारा को भी है। मुन्ना दोहा में मकान की चिनाई का काम करता है। वो चार महीने पहले ही दोहा गया था। वहां जाने के लिए एजेंट ने उसके परिजनों से करीब 85 हजार रुपये ऐंठ लिए थे। अब एजेंट का फोन बंद है। पगार के नाम पर सिर्फ एक बार 20 हजार रुपये मिले थे। चार महीने से मुन्ना खुद भी फांकाकसी का शिकार है। वह बस किसी तरह जिंदा है। मुस्तफाबाद की रेखा के पति संजय ने विगत आठ महीने से अपने घर पैसा नहीं भेजा है। कुछ उम्मीद बंधी थी, सो कोरोना संकट ने उसे भी खत्म कर दिया। संजय दो बरस पहले ही दुबई गए थे। रेखा करती हैं कि अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई है। धंधा तो बैठ ही गया है, अब दिल भी बैठा जा रहा है। नखवां बस्ती की निर्मला का दर्द कुछ ज्यादा ही है। इनके पति राम कुंवर और बेटा गोपाल दुबई में फंसे हैं। मालती का छोटा बेटा दोहा कतर में और बड़ा बेटा मोती मुंबई में भुखमरी की कगार पर है। गुल्लू को तो खाना भी मुश्किल से नसीब हो पा रहा है। कोरोना संकट के बाद दोहा में भोजन का बड़ा संकट पैदा हो गया है। ढाब इलाके के ज्यादातर लोग गल्फ देशों में मकान बनाने का काम करते हैं। कुछ र्इंट चिनाई का काम करते हैं तो कई कारपेंटरी। फिर भी, अरब सागर के उस पार बसे खाड़ी देशों में काम करना इस इलाके के लोगों के लिए सपनों की दुनिया है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि लोग अब वहां कम पैसों में भी काम करने को तैयार हैं। यही वजह हैं कि अब वहां उनका जमकर शोषण हो रहा है।



दुबई में समूची जिंदगी खपा देने वाले बालक राम बताते हैं कि करीब 2700  लोगों की आबादी वाली नखास बस्ती में शायद ही कोई घर होगा, जिसके परिवार का कोई आदमी गल्फ में नहीं होगा। साल 1976 में वो जब दुबई गए थे तब वहां बहुत काम था। दुबई में उन्होंने बुर्ज खलीफा जैसी इमारतों को खड़ा किया। बरसों तक अपना पसीना बहाया। अब वहां काम नहीं रह गया है। पूर्वांचल में नौकरी की संभावना न होने के कारण लाचारी में बड़ी संख्या में लोग वहां फंसे हैं। युवाओं को अब एजेंट भी धोखा दे रहे हैं। टूरिस्ट वीजा पर ले जाते हैं और वहां भगवान भरोसे छोड़कर भाग आते हैं।
बालक राम बताते हैं कि ढाब से खाड़ी देशों में काम करने के लिए जाने का चलन दशकों से चला आ रहा है। वो बेबाकी से स्वीकार करते हैं,-गल्फ सिंड्रोम एक हकीकत है। बहरीन, कतर, युनाइटेड अरब अमीरात और ओमान में भी बनारस के सैकड़ों कामगार हैं। खाड़ी देशों में लोगों के सपने बसते हैं। इसलिए लाचारी में ढाब की सैकड़ों औरतों के ख्वाब कुचल रहे हैं। उनके अरमान कुचल रहे हैं... उनके सपने कुचल रहे हैं। बालक राम यह भी कहते हैं कि जब तक अपने घर में नौकरी के पर्याप्त अवसर नहीं होंगे, तब तक गरीबी और मुफलिसी में जीवन गुजारने वालों को सऊदी अरब, दुबई, कतर जैसे खाड़ी देश अपनी तरफ खींचते रहेंगे। तेल की दौलत से मालामाल ये देश भले ही ढाब इलाके के सैकड़ों कामगारों की मंजिÞल रहे हों, लेकिन कोरोना से उपजे संकट में वो अब फाकाकशी को मजबूर हैं। इनके शोषण की कहानियां न अखबारों की न सुर्खियां बन पा रही हैं, न सरकार चेत रही है।



पिया के इंतजार में सैकड़ों सुहागिनें


तनाव भरा जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं ये महिलाएं


वाराणसी। ढाब की औरतों की जिंदगी मुश्किलों से भरी है। हर घर का आदमी खाड़ी देश में काम करने गया है। गांव में बची हैं सैकड़ों अकेली औरतें। ये औरतें शादी के बाद से ही अकेली हैं। इसलिए अवसाद में हैं। हमेशा चिंतित रहती हैं। किसी का पति कुवैत में है तो किसी का सउदी में। औरतों की तन्हाई और अकेलेपन ने इनको मानसिक रूप से तोड़ दिया है। गल्फ में नौकरी करने वाले ढाब के लोगों में ज्यादातर माझी हैं। कम उम्र में लड़कियों की शादी की परंपरा इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या है। वो जल्दी मां बन जाती हैं और पति के दूर रहते हुए उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती। अकेलेपन के चलते ये लड़कियां मानसिक तनाव में ही रहने को मजबूर हैं। नखवां की मंजू कहती हैं, हमारे पति कई सालों से सऊदी में हैं। सुहागिन रहते हुए भी सालों से वह विधवाओं जैसा जीवन जीने को अभिशप्त रहीं। बेटी बीमार हैं। इलाज नहीं हो पा रहा है। उसकी चिंता मंजू को अंदर ही अंदर खाए जा रही है। कुछ इसी तरह का दर्द उन सभी औरतों को है जिनके पति खाड़ी देशों में कमाने गए हैं। मंजू बेबाकी से कहती हैं कि पति का इंतजार करना हमारी नियति बन गई है और अपने अरमानों का गला घोंटना कर्तव्य। वो ये भी कहती हैं कि खाड़ी देशों में हालात बहुत खराब हैं। मगर पति हमेशा तसल्ली देते हैं। परेशान तो वो भी होते होंगे, मगर बताते नहीं। वो तो बस यही कहते हैं कि सब ठीक हो जाएगा, लेकिन कब तक? कोरोना के चलते यह सवाल अब यक्ष प्रश्न बनकर रह गया है।


 


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